सात साल के प्रद्युम्न की तस्वीरें पूरी रात आंखों में तैर रही थीं । उसकी अस्पताल की तस्वीर देखी तो दिल झकझोर उठा । उफ़्फ !! उस मासूम को कितनी हैवानियत से मारा गया..क्या कसूर था…? क्या ये ग़लती कि वो वॉशरूम चला गया ? या फिर ये ग़लती कि वो एक नामी-गिरामी स्कूल में पढ़ रहा था ? या फिर ये ग़लती कि वो पैदा ही ग़लत दौर में हुआ ? उस दौर में जहां इंसानियत बची ही कहां है… इंसानियत, हमदर्दी तो हमारी ज़रूरतों के मुताबिक आती हैं। फ़ेसबुक, व्हॉट्स ऐप पर अपडेट कर दी जाती हैं और उसके बाद हम दूसरा नक़ाब ओढ़े अपनी दुनिया में मग्न हो जाते हैं । वो दुनिया जो सोसायटी के फलैट्स में बसती हैं, आलीशान कोठियों में मिलती है । वो दुनिया जहां बच्चों को हम एसी से बाहर निकलने नहीं देते, स्कूल के बाहर बड़ी-बड़ी गाड़ियां खड़ी रहती हैं । वो दुनिया जिसमें रिश्तों से ज़रूरी मोबाइल फ़ोन बन गए हैं, वो दुनिया जो मॉल में शुरू होती हैं और सेल्फ़ी पर जाकर ख़त्म होती हैं…। ये वो दुनिया है जहां हमारी जेबें बड़ी हो गई हैं और दिल छोटे…!
हर दूसरे दिन ऐसी घटनाओं के बारे में सोचकर मन बार-बार यही कहता है कि काश हम वापस उस दौर में लौट जाएं… जहां पर हम बस एक बार ये कहकर निकलते थे… “मम्मी मैं खेलने जा रही हूं” और उसके बाद सीढ़ियों से उतरकर रफ़्फूचक्कर हो जाते थे । मां-बाप को पता होता था कि मेरी बच्ची अपने आप घर वापस आ जाएगी । अगर ना पहुंचे तो पड़ोसी बता देते थे कि सारे बच्चे खेल कहां रहे हैं । दूर साइकिल पर निकल पड़ता था पूरा झुंड का झुंड… बिलकुल बेपरवाह… ना किसी बड़ी गाड़ी के टक्कर मारने का डर… ना ही किसी अंजान का डर… क्योंकि उस दौर में सभी तो जानते थे एक-दूसरे को । मुझे याद है जब मैं केजी क्लास में थी तो बालकनी से गिर गई, कुछ ही मिनटों में गली के किनारे रहने वाले बिट्टू भैय्या दौड़कर आए और मुझे अस्पताल ले गए । सोचती हूं कि अगर आज इस दौर में किसी के साथ ऐसा हो जाए तो क्या होगा ? लोग वीडियो बनाएंगे… सेल्फ़ी लेंगे… और फ़ेसबुक पर डाल देंगे…और बस यहीं हमदर्दी ख़त्म…! हम इसी संवेदनहीनता के शिकार हो गए हैं । हमें किसी से कोई मतलब नहीं । किसी के बच्चे को चोट लगे या उसके साथ कुछ ग़लत हो जाए तो बहुतों को तसल्ली पहुंचती है । मुंह से निकलता होगा… अच्छा हुआ ग़लत हुआ ! हम स्वार्थी हो गए हैं…इसी स्वार्थ और संवेदनहीनता ने हमारे समाज को ऐसा बना दिया है। हमें किसी की परवाह नहीं बस अपने अलावा।
प्रद्युम्न के साथ जो हुआ उसकी वजह हम सब हैं… हमारा बर्ताव, रवैया, सोच ही है। हम अपने बच्चों को सिखाएंगे कि दूसरे बच्चों को मारो तो वापस में हमें थप्पड़ ही तो मिलेगा…? हम बच्चों को गाली देना सिखाएंगे तो गाली ही मिलेगी। हम बच्चों को उनकी उम्र से आगे की चीज़ें दिखाएंगे तो वो उन्हीं को तो सीखेंगे…! यानी जैसे बीज हम बो रहे हैं तो फल में भी तो वो ही मिलेंगे! तेरा-मेरा छोड़कर , स्वार्थ छोड़कर अगर थोड़े संवेदनशील हम अगर बन जाएं तो इसमें हमारा और हमारे बच्चों का ही भला है । एक-दूसरे की परवाह करना सीखना पड़ेगा हमें… और हर बदलाव की शुरुआत ख़ुद से होती है ।
अंकिता चावला प्रुथी। दिल्ली में पली बढ़ी अंकिता ने एक दशक से ज्यादा वक्त तक मीडिया संस्थानों में बतौर एंकर और प्रोड्यूसर कई शानदार शो किए। इन दिनों स्टुडियो जलसा के नाम से अपना प्रोडक्शन हाउस चला रही हैं। टोटल टीवी, न्यूज नेशन और सहारा इंडिया चैनल में नौकरी करते हुए मीडिया के खट्टे-मीठे अनुभव बटोरे।
नहीं , मैडम अंकिता चावला जी, दोषी हम लोग कतई नही हैं। बिल्कुल ही नहीं , दोषी वह व्यवस्था है, जिसने हमे हृदयहीन , पाखंडी और दौलत के पीछे पागलपन की हद तक दौडने को मजबूर कर दिया है, हमारी इंसानियत हमसे छीन ली है। मैडम , हमारी सोंच , हमारा विचार , चिंतन और कार्यप्रणाली उस आर्थिक व्यवस्था से संंचालित और नियंत्रित हो ती है , जिसमे हम जी रहे होते है। हमे यदि इंसानियत , आपसी प्रेम ,भाईचारा , वात्सल्यभाव , स्नेह -सम्मान, संस्कृति और नीति-नैतिकता को पुनर्स्थापित करनी है तो उस व्यवस्था के विरुद्ध लडाई लडते हुए उसे जडमूल से नष्ट करना होगा , मैडम। ताकि भविष्य मे प्रद्युमन के साथ जो कुछ हुआ वह दुहराई न जा सके। पोस्ट के लिए धन्यवाद ।
हम हर बात के लिए व्यवस्था को कैसे दोष दे सकते हैं… किसी ने नहीं कहा कि आप दौलत के पीछे भागें… हमने खुद अपनी ज़रूरत का दायरा फैला रखा है… आप अभी इंटरनेट का इस्तेमाल करके अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं… यानी आप इंटरनेट में व्यस्त हैं… परिवार, समाज से ज़्यादा हमें यहां पर विचार देने की ज़रूरत पड़ रही है… हम खुद इंटरनेट के आदी हैं… किस ने किया आदी… सिस्टम ने… या आप खुद ने… इसलिए हर बात पर किसी को दोष देने से अच्छा है कि हम खुद भी कुछ ज़िम्मेदारी ले… खुद को भी दोषी माने… सच्चाई यही है…