पुष्यमित्र
गुरमेहर कौर शायद यही नाम है। मेरे फेवरिट बैट्समैन वीरेंद्र सहवाग की वजह से आज यह नाम हर किसी की जुबां पर है। एक मासूम सा पोस्टर है जो सोशल मीडिया में हर जगह घूम रहा है, मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं मारा, युद्ध ने मारा है। और तमाम समझदार लोग उसके इर्द-गिर्द तरह-तरह के मजाक गढ़ रहे हैं। गांधी को गोडसे ने नहीं मारा विचारधारा ने मारा… वीरू ने लिखा है, दो ट्रिपल सेंचुरी मैंने नहीं मारे, मेरे बल्ले ने मारे… ऐसा लग रहा है, चुटकुले गढ़ने की प्रतियोगिता हो रही है।
और उधर के लोग एक अलग ट्रैप में फंसे नजर आ रहे हैं, डिफेंसिव हैं। अलग-अलग तरीके से साबित करना चाह रहे हैं कि गुरमेहर ने ऐसा नहीं वैसा कहा था, अलग संदर्भ था। अलग वक्त था। जैसे पाकिस्तान का जिक्र ही ईश-निंदा कानून जैसा हो। मैं पूछता हूं क्या ग़लत है उस पोस्टर में जो आप लोग उस लड़की के पीछे पड़े हो। उस लड़की ने आपकी समझदानियों को चौड़ा करने की कोशिश की है। अगर यह सब आपकी समझ में नहीं आ रहा है तो यह आपकी समस्या है। उस लड़की की नहीं।
अगर आपने कभी मुर्गों की लड़ाई देखी हो तो समझ सकते हैं कि क्यों उस लड़ाई में एक मुरगा दूसरे मुरगे का हत्यारा नहीं होता है। हत्यारे वे लोग होते हैं जो मुरगों के पैरों में ब्लेड बांध कर उन्हें लड़ाते हैं। वे लोग होते हैं, जो खेल का मजा लेते हैं और दोनों मुरगों को एक दूसरे पर वार करने के लिए उकसाते हैं। मुरगा तो वह लाचार प्राणी है, जिसे हर हाल में लड़ना है, मरना है और पक कर किसी के पेट में चला जाना है।
अगर आपने हावर्ड फॉस्ट की मशहूर कृति ‘स्पार्टाकस’ पढ़ी हो तो याद होगा कि कैसे रोमन साम्राज्य के उस दौर में गुलामों को आपस में तब तक लड़ाया जाता था, जब तक उनमें से एक की मौत नहीं हो जाती थी और तमाम लोग स्टेडियम में बैठ कर इस युद्ध का ‘आनंद’ लेते थे। उस किताब का नायक ऐसी ही एक प्रतियोगिता का खिलाड़ी था। एक बार एक ऐसे ही मैच में उसका प्रतिद्वंद्वी मुकाबला शुरू होने से पहले उससे गले लिपट कर रोने लगता है। वह कहता है, तुम इतने अच्छे आदमी हो, मैं तुम्हें नहीं मारना चाहता। तो स्पार्टाकस कहता है, ऐसा मत करना, तुम पूरी ताकत से मुझसे लड़ना, हर गुलाम का एक ही सपना होना चाहिये, जिंदा रहना। क्योंकि जब हम जिंदा रहेंगे, तभी तसवीर बदलेगी। वे लोग एक दूसरे की हत्या के लिए मुकाबला नहीं करते। वे लाचार हैं, एक दूसरे की हत्या के लिए अभिशप्त हैं, क्योंकि गुलाम हैं।
उसी तरह एक फौजी भी सामने खड़े दूसरे मुल्क के फौजी की हत्या करने के लिए अभिशप्त है। क्योंकि वह इसी बात की नौकरी करता है। एक दूसरे के प्रति तमाम सहानुभूति के बावजूद फौजी जंग के मैदान में एक दूसरे की हत्या करते हैं। भारत और पाकिस्तान भी एक दूसरे से लड़ने के लिए अभिशप्त हैं। अभिशप्त हैं, हथियार जमा करने और जंग के लिए तैयार रहने के लिए। क्योंकि आजादी के बाद से ही यह बात हमें समझायी गयी है कि अगर जिंदा रहना है तो जंग करने के लिए तैयार रहना है। अगर तुम नहीं मारोगे तो सामने वाला तुम्हें मार देगा। तो फिर पाकिस्तान का क्या दोष है? जंग चलेगी तो क्या उसके फौजी चुपचाप बैठेंगे? आपकी गोली से मरने के लिए तैयार रहेंगे। ऐसा नहीं होता। मगर कसूर उस फौजी का नहीं जिसने गुरमेहर के पिता को गोली मारी। न पाकिस्तान का है, जो आपसे जंग लड़ रहा है। जंग तो हम पर थोपी गयी विडंबना है। एक ऑब्सेसिस कंपल्सिव डिसऑर्डर जिससे हम बाहर नहीं निकल पा रहे।
मेरी तो इतनी सी बात है, मैं यही समझता हूं। आप अगर इसे और डीटेल में समझना चाहें तो मंटो की कहानी टेटवाल का कुत्ता पढ़ लें, जो इस लिंक पर है…
http://hindisamay.com/kahani/Vibhajan-ki-kahaniyan/titwal-ka-kutta.htm
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।