पटाखे धीरे चलाओ, स्क्रीन हिली तो सीटें कम हो जाएंगी!

पटाखे धीरे चलाओ, स्क्रीन हिली तो सीटें कम हो जाएंगी!

धीरेंद्र पुंडीर

ये जीत का जश्न फीका है, ये हार का स्वाद मीठा है। ये गुजरात की उलटबांसी है। सिर्फ जनता चाणक्य है बाकि सब मुहावरे हैं।

करोड़ों के कमलम में सैकडो़ं गिनना भारी था। मीडिया के कैमरों और मीडियाकर्मियों की तादाद और कार्यकर्ताओं की संख्या में एक तरह की स्पर्धा सी थी। एक पार्टी राज्य की सत्ता में छठी बार काबिज हो रही थी, और एक तरफ प्रधानमंत्री की हार या फिर बड़ी जीत के उम्मीद में जुटे हुए मीडियाकर्मी। बार-बार स्क्रीन से नजर नहीं हट रही थी। वो हंस भी नहीं रहे थे और आंसू भी नहीं मिल रहे थे। ये जीत का अलग रंग देख रहा था। अपने पिछले सालों के घुमंतू जीवन में। पटाखे वाला पटाखों का ट्रक गेट पर नहीं ला पा रहा था और ढोल वाले कहीं से उतर नहीं पा रहे थे।

उधर कमलम से पुराने करोड़ों वाले ऑफिस में भी ढोल-और ताशे वालों के नंबर नहीं लगाए गए थे। कुछ बुक तो जरूर किए होंगे क्योंकि जमीन में इस बार उम्मीद की फसल दिख रही थी लेकिन किसान की तरह फसल तभी मानी जाती है जब वो खेत से घर आ जाए, नहीं तो खेत में सब कुछ हरि इच्छा। कुछ देर तक फसल लहलहाती दिखी और गीत होठों तक उमड़ आए। लेकिन फिर याद आया कि अभी तो उधार बाकी है। जनता से सालों तक जो विश्वास लेकर खाया और बाद में चुकाया नहीं था, उस वादाखिलाफी से नाराज जनता ने दो दशकों से जो खाता बंद किया था, वो अब खुल तो गया है लेकिन लेन-देन का कॉपी में अभी कुछ बकाया बाकी है। इसीलिए कुछ देर स्क्रीन के सामने रस्म अदायगी हुई और, कुछ देर बाद ये तमाशा भी साफ हुआ।

बीच-बीच में लाईव पर खड़े होना और दूसरे तमाम स्टूडियो में बैठे एक्सपर्ट को सुनने के बीच मुझे गुजरात की कहानी एक दम कहीं दूर तक जाती सुनाई दी। ये एक पूरे पहिए के घूमने का वक्त था।  गांधीनगर की फोरेंसिक लैब के बाहर पेड़ों के नीचे अखबार बिछा कर बैठा हुआ था। सामने गुजरात के पत्रकारों की भीड़ थी। हम सब इंतजार कर रहे थे कि पंधेर और कोली के नारको टेस्ट के बीच कुछ खबर हाथ लग जाए। मैं अपने औजारों के साथ था। और किसी तरह से उनको चलाने के रास्ते खोज रहा था। कुछ देर की झिझक के बाद वहां के पत्रकारों से बात शुरू हो गई। मैंने पहले तो अपनी सहयोगी से ही पूछा, क्या हो सकता है। कैसे अंदर जाया जा सकता है। उसकी आंखों में एक विस्मय सा उभर आया। और जवाब दिया कि ये दिल्ली नहीं है साहेब। ये गुजरात है मोदी का गुजरात। यहां हर काम ईमानदारी से होता है।

मैंने कहा कि नहीं किसी एक को तो पकड ही लूंगा। कोई डॉक्टर, नर्स या फिर लैब्स का बंदा। लेकिन गोपी को लगा जैसे मैं दूसरी दुनिया में हूं। नहीं साहेब ये हो ही नहीं सकता, आपकी दिल्ली में चलता होगा ये सब यहां नहीं। फिर बातचीत में सभी पत्रकार शामिल हो गए। और सबकी बातों का सार इस तरह से था कि आप मोदी के गुजरात में हैं। उनकी बातों में जिस अभिमान का पुट था वो मोदी के गुजरात का होने का था। मैं उस वक्त भी देश में घूमता रहता था, खबरों के सिलसिले में। इसीलिए ये मेरे लिए एकदम से नया अनुभव था। पत्रकारों की पूरी जमात एक मुख्यमंत्री को प्रदेश का गौरव मानते हुए एक अलग किस्म के अभिमान से भरी हुई थी। मैंने बहुत बार सोचा और अपनी सोच को दंगों से बार-बार जोड़ कर देखा। लेकिन मैं सिर्फ दंगों से इस अभिमान को उगते हुए नहीं देख रहा था। मोदी को लेकर उन लोगों का विश्वास कहीं और से जुड़ा हुआ था। खैर मैं कोई स्टिंग्स नहीं कर पाया। और अपनी खबरों को किया और वापस लौट गया।

फिर कई बार आया गया। लेकिन वो अभिमान यहां अलग-अलग हिस्सों में दिखता रहा। फिर आया 2014 का दौर। मुझे अहमदाबाद के दोस्तों के फोन लगातार आते रहे। मेरा संस्थान बदल गया था और मेरी बीट भी। उन लोगों का विश्वास था कि मोदी की जीत बड़ी होगी। वो एक जादूगर है। आप देखते रहिए। हालांकि उस पेड़ के नीचे बैठे हुए तमाम दोस्तों से बातचीत तो नहीं हुई लेकिन सब मोदी को गुजरात के गौरव से जोड़ कर देख रहे थे। मोदी जीत गए। इसके बाद बातचीत काफी कुछ कम हो गई।

जैसे ही कोई चुनाव आता मेरे पुराने सहयोगियों के फोन आ जाते थे। और कुछ ऑफिसर भी जो उस वक्त से दोस्त चले आ रहे थे। ज्यादातर लोगों का एक गलत विश्वास भी होता है कि दिल्ली के पत्रकार कुछ ज्यादा जानते हैं, फोन करते थे। लेकिन मैं अब फोन में गर्व का अहसास नहीं देखता था। वो लगातार फोन करते थे लेकिन इस बार वो जीत की बजाय हार की कामना करते हुए दिखते थे। और फिर मैं 2017 का चुनाव कवर करने आ पहुंचा। उन्हीं पत्रकारों के बीच, उन्हीं तमाम लोगों के बीच।

वही गांधीनगर, वही अहमदाबाद, वही गुजरात लेकिन गायब था अभिमान। वो अभिमान जिसने मोदी को मोदी बनाया। इस बार मोदी से ज्यादा उसके घमंड की चर्चा। इस बार मोदी से ज्यादा उनकी तानाशाही की चर्चा। और मैं गुजरात घूम रहा था मेरे पत्रकार मित्रों ने शर्त लगा दी थी कि इस बार बीजेपी हार रही है। मैं जो देख कर वापस लौटा था, उसके आधार पर मैं कह रहा था कि सरकार तो बन जाएगी। पत्रकार दोस्त या तो इस बात को सिरे से नकार रहे थे या फिर वो कह रहे थे कि साहेब गड़बड़ से ही हो सकता है। कुछ लोगों से शर्त भी लग गई थी। इस बार मैं उनसे सवाल कर रहा था कि वो मोदी क्या हुआ, जिसके लिए मैं गांधीनगर की लैब के बाहर ये कह रहा था कि राजनीति में नायक आते और जाते हैं। वो सिर्फ ये मानकर चल रहे हैं कि अंहकारियों ने पूरी तरह से गुजरात में एक तानाशाही का माहौल क्रियेट कर दिया है। सरकार गांधीनगर की चुनी जाती है, और चलती है 11 अशोक रोड से।

मोदी को लेकर उनकी टिप्पणियों में गाहे-बगाहे कागजी चाणक्य का जिक्र आ जाता है। मोदी आज भी वही है लेकिन एक छाया अहंकार की मोदी के ऊपर दिख रही है और सब इसका रिश्ता जोड़ रहे हैं अमित शाह से। जिस जोड़ी को दिल्ली में एक विजयी जोड़ी माना जा रहा है, उस जोड़ी की जन्मस्थली पर अब वो अंहकार की जोड़ी दिख रही है। मोदी का नायकत्व अभी भी वही दिख रहा है लेकिन उसमें अहंकार की घुन दिख रही है। मुझे दिल्ली के पत्रकारों को लेकर कभी कोई गलतफहमी नहीं होती क्योंकि जमीन से दूर उनको धरती आंवला दिखती है और वो घूमफिर कर अपनी पुरानी समझ सब पर लाद कर अपने इंतजाम में जुट जाते हैं।

खबर को कवर करने के बाद अहमदाबाद में लौट रहा था तो भी शहर शांत दिख रहा था। कहीं से नहीं लग रहा था कि इस राज्य में सरकार बनी है। लोग चाय की दुकानों पर चुनाव की चर्चा नहीं कर रहे थे। अपने कामों में मशगूल थे। गोकुल चाईनीज चाउमीन खाते हुए, सेल्फी दिखाते हुए लड़कों के बीच जैसे सरकार के आने-जाने की उम्मीद नहीं।

इस बीच पटाखे चलने लगे। तभी एक पत्रकार ने पटाखे वाले को कहा कि “बस बहुत हो गया शोर, कम चलाओ पटाखे नहीं तो आवाज से स्क्रीन हिल भी सकती है और ये आंकड़ा और भी नीचे आ सकता है”।


dhirendra pundhirधीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।