नल से बूंद-बूंद पानी टपक रहा है। पानी पहले एक प्लास्टिक के गैलन के ढक्कन में गिर कर जमा होता, फिर वहां से एक छोटी सी देगची में जमा होता, देगची भरने में अमूमन आधे घंटे का वक्त लगता। उस देगची का पानी फिर प्लास्टिक के पीले वाले गैलन में डाला जाता। पीला वाला 10-12 लीटर का गैलन अमूमन 10 देगची पानी डालने पर भरता। यानी एक गैलन भरने में पांच घंटे का वक्त लगने वाला है। वहां बीस से अधिक ऐसे गैलन रखे हैं। सभी भरे जाने का इंतजार कर रहे हैं। वे लोग जो इन गैलनों को भरने यहां जमा हुए हैं, बूढ़े-बच्चे और महिलाएं सभी एक झोपड़े के बरामदे पर बैठे गपिया रहे हैं। यह दृश्य कैमूर की पहाड़ियों पर बसे अधौरा प्रखंड के जमुनी नार पंचायत के गुदरी टोला का है, जो पचास घरों की एक छोटी सी बस्ती है। हम जिस स्थानीय पत्रकार के साथ वहां गए, उसने बताया कि यह कहानी अधौरा प्रखंड के सभी 108 गांवों की है। 54,500 लोगों की आबादी अक्सर इसी संकट का सामना करती है।
2019 लोकसभा चुनाव: पुष्यमित्र की ग्राउंड रिपोर्ट-5
गुदरी टोला में जो दृश्य हमें दिखा वह वहां रोज की कहानी नहीं है। जिस रोज आसमान में बादल होते हैं, उस दिन वहां ऐसा ही संकट उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि वहां जल वितरण की व्यवस्था सोलर पंप के जरिये होती है। हालांकि वहां के एक बुजुर्ग ने यह भी कहा कि जिस रोज सूरज आसमान में चमकता है, उस रोज भी गैलन को भरने में कम से कम 15 मिनट तो लग ही जाता है। 50 घरों की पूरी बस्ती इसी नल पर निर्भर है। हर घर में अगर न्यूनतम पांच गैलन पानी की भी जरूरत हो तो भी चौबीसो घंटे इस नल के पास लोगों की भीड़ जमा रहती है। जिसे इमरजेंसी होती है, वह यहां से तीन किमी दूर स्थित एक नदी के किनारे चला जाता है और वहां से पानी भर लाता है। मगर यह कोई आसान काम नहीं है और न ही वहां का पानी इतना साफ होता है कि उसे पिया जा सके। हमने देखा कि तीन-चार औरतें सिर पर पानी का गैलन उठाये नदी के किनारे से लौट रही थीं और हांफ रही थीं। उन्होंने बताया कि उन्हें दिन में तीन बार पानी भरने नदी के किनारे जाना पड़ता है। यह पानी की कहानी है और इक्कीसवीं सदी में पानी के लिए तरसती आधुनिक मनुष्य प्रजाति के लोगों की दशा है।
कैमूर जिले के अधौरा प्रखंड की पहचान हाल-हाल तक नक्सलियों के गढ़ के तौर पर रही है। मगर पिछले चार-पांच साल से वह इलाका नक्सलियों से मुक्त है। मगर वह पूरा प्रखंड भीषण किस्म के जल संकट की चपेट में लगातार रहता है। सरकार ने कई तरीके से इस इलाके को जल संकट से उबारने की कोशिश की, मगर उसे सफलता नहीं मिली। इसकी सबसे बड़ी वजह इस इलाके का ‘कैमूर वन्य प्राणी रिजर्व’ का हिस्सा होना है। वन विभाग के सख्त नियम यहां डीजल पंप के संचालन की इजाजत नहीं देते। इस इलाके में बिजली की आपूर्ति भी हर गांव में लगे सोलर पावर प्लांट से होती है। गुदरी टोला में भी पांच किलोवाट का एक सोलर प्लांट लगा है। जिससे गांव में बिजली भी जलती है और सोलर पंप से पानी आपूर्ति करने की कोशिश होती है। इससे पहले टैंकरों से इस इलाके में पानी सप्लाई करने की योजना चली, गांव में कई पुराने और खराब पड़े हैंडपंप भी दिखते हैं, जाहिर है वे भी असफल हो गये। क्योंकि उस इलाके में भूमिगत जल का दोहन सिर्फ सबमर्सिबल पंप से हो सकता है, मगर वन विभाग के नियम इसकी छूट नहीं देते। एक और उपाय है, वह है तालाबों और कुओं की खुदाई। मगर लगता है नीति-नियंताओं का ध्यान अभी उस ओर नहीं गया है।
उस इलाके में पानी के संकट का असर सिर्फ घरेलू इस्तेमाल में पानी की कमी पर नहीं पड़ता। इसी वजह से यहां लोग रबी के मौसम में खेती नहीं कर पाते। सिर्फ खरीफ में जब पानी बरसता है, तभी खेती होती है और लोग धान उगाते हैं। दूसरे मौसम में गांव के युवक रोजी-रोजगार के लिए पलायन कर जाते हैं और तो और सरकार द्वारा बनवाये गये शौचालयों का भी इस्तेमाल नहीं होता।
आपको बता दें कि 2015 के विधानसभा चुनाव में जदयू ने अपने घोषणा पत्र में नीतीश के सात निश्चय का उल्लेख किया था। इसमें घर घर पानी पहुंचाना भी एक निश्चय था। जीत के बाद नीतीश ने 2016 में इसे नल जल योजना के नाम से लागू कराया। इसके तहत हर घर को न्यूनतम 70 लीटर पानी रोज उप्लब्ध कराना था। बदले में एक रुपये रोज की दर से शुल्क लेना था। इस योजना का क्रियान्वयन वार्ड सभा को करना था, मगर रिपोर्ट बताती है कि यह योजना अधिकांश इलाकों में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी और आम लोगों को इसका कोई लाभ नहीं मिला। अधौरा का जल संकट भी इसी वजह से दूर नहीं हुआ।
सवाल ये है कि पानी हो, तब तो कोई शौचालय जाये। हमें कई शौचालय ऐसे दिखे, जिनका एक बार भी इस्तेमाल नहीं हुआ। उनमें लोगों ने अपने जरूरत का सामान रख छोड़ा था। जल संकट का आलम यह है कि अगर किसी घर में कोई मेहमान आ जाये तो महिलाएं भयभीत हो जाती हैं कि उन्हें एक बार और पानी भरने नदी के किनारे जाना पड़ेगा, क्योंकि आज भी घरों में पानी भरने का काम औरतों का ही माना जाता है। इसके बावजूद उस गुदरी टोला में लोग हम जैसे अयाचित अतिथियों का स्वागत बिस्कुट, नमकीन और एक लोटा पानी से करते हैं। तो क्या इस गांव में और अधौरा प्रखंड में जो सासाराम लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, पानी का संकट कोई चुनावी मुद्दा है। गुदरी टोला के लोग कहते हैं कि चुनाव के वक्त नेताजी आते हैं, हम जब उन्हें अपनी परेशानी बताते हैं तो वे होगा-होगा कह कर चले जाते हैं। फिर पांच साल तक कोई इस दुर्गम इलाके में आने की हिम्मत भी नहीं करता.
इस बार फिर से राजनीतिक दलों की टोलियां अधौरा प्रखंड के गांव-गांव में वोट के लिए भटकेगी। लोग उन्हें अपनी परेशानियां भी बतायेंगे और बिस्कुट, नमकीन और एक लोटा पानी से उनका स्वागत भी करेंगे, मगर वोट के लिए भटकने वाले राजनेता चुनाव जीतने पर अधौरा के 108 गांवों की इस मुसीबत के बारे में शायद ही कभी सोचेंगे। बिहार की ग्राउंड और विस्तृत रिपोर्ट पढ़ने के लिए hindi.asiavillenews.com और biharcoverez.com पर क्लिक करें।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। प्रभात खबर की संपादकीय टीम से इस्तीफा देकर इन दिनों बिहार में स्वतंत्र पत्रकारिता करने में मशगुल ।