सचिन श्रीवास्तव
गिरीश कर्नाड के निधन की खबर सुनकर पूरी दुनिया में उनके चाहने वालों की आंखें नम हो गईं । 19 मई 1938 को देश के सबसे छोटे हिल स्टेशन माथेरान में पैदा हुए गिरीश के जन्म के बारे में उनके वजूद के बारे में दुनिया ने काफी देर से जाना। बल्कि गूढ़ अर्थों में कहें तो अब तक ठीक से गिरीश को जाना ही नहीं गया। बतौर कलाकार उन्हें लोकप्रियता मिली, बतौर निर्देशक उन्हें सम्मान मिला, बतौर लेखक उन्हें प्यार मिला, बतौर इंसान उन्हें सहज आत्मीयता भी मिली। लेकिन हकीकत यही है कि गिरीश जी के व्यक्तिव के कई हिस्से उनके साथ ही चले गए हैं। वे लेखक, अभिनेता, फ़िल्म निर्देशक और नाटककार के दायरे से कहीं आगे एक दार्शनिक शख्सियत भी थे। अपनी पहली और आखिरी मुलाकात के जरिये उन्होंने मुझ पर जो प्रभाव डाला वह आज तक उतना ही ताजा, यकीनी और बेहद मुलायम है, जितना करीब 14 साल पहले दिल्ली की सर्द शाम में था।
वे खुद को अर्बन नक्सल घोषित कर चुके थे। बीमारी के बावजूद उन्होंने बैंगलौर में अपने विरोध को आगे बढ़कर दर्ज किया था। इस देश की खुली लूट और कमजोर तबकों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ वे एक बुलंद आवाज थे। उनकी शारीरिक उपस्थिति अब किसी कार्यक्रम, किसी सभा, किसी बतकही में न होगी, लेकिन आप जानते हैं कि हर कार्यक्रम में याद किए जाएंगे, हर सभा में उनके नाटकों, उनके लेखन का जिक्र होगा, हर बतकही में उनके किस्से दोहराए जाएंगे।अभिनय की कन्नड़ शैली के महारथी गिरीश की कलम कन्नड़ और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ चलती थी। उनके तुगलक, हयवदन, तलेदंड, नागमंडल और ययाति जैसे नाटकों को मंचित करना किसी भी भाषा के नाट्य निर्देशक का सपना होता है। इब्राहीम अलकाजी, प्रसन्ना, अरविन्द गौड़ से लेकर बी.वी. कारंत तक ने गिरीश जी के नाटकों को बड़े दर्शक समूह तक पहुंचाया है।
गिरीश को जब कोई नहीं जानता था, उस दौर की बात करें तो कोंकणी भाषी परिवार में जन्म के बाद 1958 में धारवाड़ स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन के बाद वे रोड्स स्कॉलर के तौर पर इंग्लैंड चले गए और ऑक्सफोर्ड के लिंकॉन व मॅगडेलन कॉलेज से फिलॉसफी, पॉलिटिक्स और इकॉनामिक्स का व्यवस्थित अध्ययन किया। इसके बाद वे शिकागो विश्वविद्यालय के फुलब्राइट कॉलेज में बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर अपने सेवाएं देने लगे। यह वो दौर था, जिसमें गिरीश एक साधारण पढ़े—लिखे इंसान की तरह अपनी जिंदगी को आगे बढ़ा रहे थे। लेकिन साथ ही उनके भीतर की बेचैनी भी बढ़ रही थी। और वे लेखन की तरफ मुड़े। यह उनका टर्निंग प्वाइंट है। वे इस्तीफा देकर पूरी तरह लेखन के लिए समर्पित हो गए और बारास्ता नाटक फिल्मों में सक्रिए हुए।
बतौर अभिनेता उन्हें आम फहम लोकप्रियता तो मिली लेकिन मूलत: वे एक नाटककार ही हैं। कन्नड़ में लिखे उनके अंग्रेजी और अन्य कई भारतीय भाषाओं में भी उतने ही सराहे गए हैं, जितने अपनी मूल भाषा में। अजीब यह भी है कि कन्नड़ गिरीश जी की मातृभाषा नहीं थी, वह कोंकणी थी। माथेरान जहां उनका जन्म हुआ वह खूबसूरत हिल स्टेशन रायगढ़ जिले की कर्जत तहसील का हिस्सा है, जो मुंबई से बेहद करीब है। यहां कोंकणी की मिठास गिरीश ने अपने भीतर जज्ब तो की लेकिन उसमें लेखन नहीं किया। अंग्रेजी या हिंदी को भी उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की जुबान नहीं बनाया। वे पहुंचे कन्नड़ के करीब। असल में जब उन्होंने कन्नड़ में लिखना शुरू किया तब कन्नड़ लेखकों पर वेस्टर्न लिटरेचर के रिनेशां का गहरा असर था। नई नई चीजों पर बेहद तेजी से लिखा जा रहा था। एक होड़ सी मची थी। नए विषयों को खोलने समझने की। ऐसे समय में गिरीश ने ऐतिहासिक और मिथकीय पात्रों को अपने लेखन का केंद्र बनाया। तत्कालीन इतिहास व्यवस्था के जरिये उन्होंने अपने समय को परखा। पहला ही नाटक ययति जो करीब 1961 में आया, फिर तुगलक जो ययति के तीन साल बाद आया। इसकी मिसाल हैं। लेखन के क्षेत्र में वे संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 1972, पद्मश्री 1974, पद्मभूषण तथा कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार 1992, साहित्य अकादमी पुरस्कार 1994, ज्ञानपीठ पुरस्कार 1998 से नवाजे गए। नाटकों के बाद वे फिल्मों में आए। वंशवृक्ष नाम की कन्नड़ फ़िल्म के जरिये उन्होंने निर्देशन की शुरुआत की और फिर कन्नड़ और हिन्दी फ़िल्मों में उनका शानदार अभिनय अलग से रेखांकित किया जा सकता है। वे उन गिने चुने कलाकारों में शामिल हैं, जो चरित्र को न तो बहुत बढ़ाचढ़ाकर पेश करते हैं, न छोटा। बल्कि किरदार की अपनी सुसंयत जीवनरेखा को वे बेहद खूबसूरती से अदा करते हैं, और वह आमफहम बन जाता है। 1977 में आई उनकी फिल्म जीवन मुक्त के पात्र अमरजीत को याद करना और देखना एक अलग सिनेमाई अनुभव है। फिल्मों में 1980 में गोधुली के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पटकथा के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से बी.वी. कारंत के साथ साझा रूप से नवाजा गया। इसके अलावा भी वे कई राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हुए।
इस तरह गिरीश लेखन और फिल्मों के बीच के एक मजबूत पुल थे। उनकी अभिनय और निर्देशन की समझ और लेखकीय मेधा का मेल अन्य समकालीन अदाकारों और लेखकों में उन्हें आला दर्जा देता है। एक ऐसे समय में जब हम बौने लेखकों और कमतर अभिनेताओं को देखने के लिए अभिशप्त हैं, वैसे में गिरीश जी का जाना अपने समय की उन धाराओं का कम होना है, जो दो अलग दुनियाओं को एक करती हैं। निजी जिंदगी में गिरीश जी के बेटे रघु अमय कर्नाड एक सुप्रसिद्ध पत्रकार हैं और उनकी बेटी शलमली राधा दुनिया की चंद मशहूर डॉक्टरों में शुमार हैं। वैसे बेटी राधा ने बतौर बाल कलाकार एक फिल्म में भी काम किया है।
सचिन श्रीवास्तव। छरहरी काया के सचिन ने यायावरी को अपनी ज़िंदगी का शगल बना लिया है। उसके बारे में आपके सारे के सारे पूर्वानुमान ध्वस्त होते देर नहीं लगती। सचिन को समझना हो तो, उसे उसी पल में देखें, समझें और परखें… जिन पलों में वो आपकी आंखों के सामने हो या आपके आसपास मंडरा रहा हो। बहरहाल, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर समेत कई छोटे-बड़े अखबारों में नौकरी के बाद फिलहाल सचिन क्राइम इन्फो पोर्टल के नेशनल एडिटर हैं ।