धीरेंद्र पुंडीर
ये तो गांधी जी की सत्याग्रह की जगह है जहां से गांधी जी ने सत्याग्रह किया है। वहां पर छुआछूत रख रहे तो पूरे भारत का क्या हाल होगा, ये तो पूरी दुनिया जानती है। गांधीजी के कमरे के अंदर बैठे हुए धीमंत भाई जब ये बात बोल रहे थे तो उनके चेहरे से दुख और रोष की मिलीजुली छायाएं आ जा रही थीं। दलित, हरिजन या फिर मूलवंशी किसी भी नाम से संबोधित कर सकते हैं लेकिन टूूटे हुए सपने की तरह दांडी यात्रा के पंखों को बुन रहे धीमंत भाई को अफसोस है कि विदेशी यहां पहुंच रहे हैं दांडी की यात्रा करने लेकिन हिंदुस्तानियों के मन में इस यात्रा को लेकर उत्साह तो दूर की बात है सही से जानकारी तक नहीं है।
गुजरात तो दूर की बात है अहमदाबाद के पचानऊ टका लोगों नेे कभी साबरमती आश्रम में झांक कर भी नहीं देखा। अहमदाबाद में दिल्ली से लगभग हजार किलोमीटर दूर साबरमती आश्रम से मैं निकलना चाह रहा था दांडी के लिए लेकिन अंदर से ही आश्रम में कुछ ऐसा दिख रहा था जिससे आगे आने वाली दांडी यात्रा का अंदाजा लगाया जा सकता था। इसीलिए चुनाव के दौरान सिर्फ चाय की दुकान पर खड़े होने से बेहतर समझा कि एक लंगोटी वाले इंसान के कदमों के निशानों पर मस्तक टेका जाए।
छूआछूत के खिलाफ गांधीजी की लड़ाई को यहां साबरमती से देखने की कोशिश शुरू की। धीमंत भाई का इस आश्रम से बहुत करीब का रिश्ता है। महात्मा गांधी साउथ अफ्रीका से वापस लौट कर मुंबई में देश के बड़े-बडे लोगों से मिल रहे थे तो धीमंत के दादा भी महात्मा गांधी से मिलने पुहंच गए। पूछने पर बताया कि वो गुजरात केे एक कामगार है और महात्मा को इस बारे में कुछ बतााना चाहते हैं। महात्मा गांधी को बताया गया कि गुजरात से एक कामगार आपसे मिलना चाहते हैं, तो गांधी जी ने पूछा क्यों आखिर यहां आकर क्यों मिलना चाहते हैं? बुलाओ।
धीमंत के परदादा ने महात्मा गांधी से वतन में रोजगार की कमी बताई थी तो महात्मा ने उन्हीं को जिम्मेदारी सौंप दी कि वतन नें जाकर खादी का प्रचार प्रसार करो। धीमंत के दादा चले आए और अमरेली जिले के इस गांव में खादी की कताई और बुनाई के प्रचार का काम शुरू कर दिया। बाद में जब कोचरब के बाद साबरमती में बापू ने अपना सत्याग्रह आश्रम खोला तो धीमंत के परदादा को परिवार सहित बुला लिया था। 1930 में जब आश्रम से लोगों को ऐतिहासिक दांडी यात्रा के लिए लिया जा रहा था तो धीमंत के परिवार के चार लोगों ने अपना नाम लिखाया था और गांधी जी ने धीमंत के दादा अर्जुन को बुलाकर कहा कि आप पर यहां लोगों को खादी और गौशाला की देखरेख की जिम्मेदारी है। और तीन लोग उनके परिवार के देश बदलने की उस यात्रा में शामिल थे।
अछूत को लेकर तत्कालीन समाज की हालत पर शायद किसी बड़े सियासतदां को न सफलता की उम्मीद थी और न ही कोई इस बवंडर से टकराना चाह रहा था। आज़ादी के लिए संस्कृति को तलाश रहे महात्मा गांधी की नज़र पड़ चुकी थी। धीमंत के परदादा और उनके परिजनों को आश्रम में कई जिम्मेदारियां देकर पहले ही गांधी अपना इरादा जाहिर कर चुके थे। महात्मा ने इस यात्रा को हिंदुस्तान के भविष्य के सफर के लिए तैयारी माना था। आश्रम में छूआछूत और चुनाव को लेकर धीमंत भाई से बातचीत हुई। धीमंत भाई ने उस दौरान की कहानियों के बीच में बताया कि जिन पर जिम्मेदारी थी गांधी जी के विचारों को आगे बढ़ाने की, वो नाकाम रहे। आश्रम के सौ साल पूरे हुए तो एक प्रार्थना सभा कर छुट्टी पा ली गई।
अपने अनुभवों के साथ धीमंत भाई को लगता है कि मौजूदा सरकार ने गांधी की अहमियत तब पहचानी, जब राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन कर विदेशों में पहुंचे और वहां महात्मा गांधी की मान्यता देखी। एक रोष था कि नरेन्द्र मोदी ने अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में शायद साबरमती आश्रम का चार-पांच बार ही दौरा किया था।
सवाल— इस चुनाव में छूआछूत का सवाल फिर से बडा़ हो रहा है तो ये संकेत नहीं है कि दांडी की मूलभावना समझने में हिंदुस्तानी फेल रहे हैं। क्या 87 साल बाद हम कह सकते हैं कि छूआछूत कम नहीं हुआ है।
धीमंत भाई– सौ टका सही बात है क्योंकि साबरमती आश्रम गांधीजी की कर्मभूमि है। यहां 13 साल तक काम करके बिताए हैं। यहां हरिजन आश्रम ट्रस्ट में एक भी हरिजन नहीं, एक भी दलित नहीं। साबरमती ट्रस्ट, जो सारे आश्रम की देखभाल कर रहा है उसके अंदर भी एक भी हरिजन को नहीं लिया गया है। ये तो गांधीजी की सत्याग्रह की जगह है, यहां पर छुआछूत रखें तो पूरे भारत का क्या हाल होगा।
महात्मा गांधी के कमरे में चरखा रखा है। उनकी टेबल के चारों और लकड़ी का एक बाड़ा सा लगाया गया है। अचानक धीमंत उस तरफ मुड़े और बताने लगे कि इस डेस्क पर रखे हुए बंदर ही चोरी हो गए। वो बंदर जो महात्मा गांधी के तीन बंदरों के तौर पर देश की जनता की बोली में शामिल हो गए। वो एक बौद्ध साधु ने महात्मा गांधी को भेंट के तौर पर दिए थे। और बापू उनको हमेशा अपनी लिखने की टेबल पर रखते थे। अब कैमरे लग गए हैं। इसके बाद बा का कमरा है। बा के कमरे में नई खाट दिख रही है और दिख रहे हैं नए गद्दे। इस को लेकर भी आश्रम में काफी चर्चा हुई। धीमंत चार पीढ़ियों से आश्रमवासी है और उनका कहना है कि बापू तो चटाई पर सोते थे, क्या बा खाट और गद्दों पर सोती थी। आश्रम का कहना है कि वो एक रेप्लिका के तौर पर रखे गए हैं।
बापू को लेकर आने जाने वालों को आश्रम की रूपरेखा और दिनचर्या के बारे में जानकारी दे रही लता बेन से भी बात हुई। लता बेन चरखा चलाती हैं ताकि आने वाले लोग चरखे और खादी के बारे में कुछ जान सके। लता बेन को काफी दुख होता है जब वो इस नई पीढ़ी को गांधी की शिक्षा से दूर पाती हैं। लता बेन ने कहा – ” दांडी यात्रा जब गांधीजी ने निकाली 12 मार्च 1930 को तो उस वक्त गांधी जी की उम्र थी 61 साल थी, पैदल चले थे 241 मील। उनका मकसद था लोक जागृति। वो लोगों में एक जागृति लाना चाहते थे। दांडी जाना और नमक सत्याग्रह करना ये ही रीजन नहीं था गांधी जी का। अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी, कौमी एकता… उनकी यात्रा एक मकसद के साथ चली। हर एक गांव में ठहरने की कोशिश थी। हर सोमवार को उनका मौन व्रत रहता था। यात्रा स्थगित करते थे, गांव में गए और सभा न हो ऐसा भी वो नहीं चाहते थे। गांधीजी के पहुंचने से तीन दिन पहले गुजरात विद्यापीठ से एक टुकड़ी गांव में जाती थी। वो एक डाटा गांधी जी को देते थे। वो चाहते तो यहां खंभात का दरिया है वहां जाकर नमक बना सकते थे। तीन दिन में पहुंच सकते थे। 61 साल की आयु में इतना लंबा रास्ता क्यों चुना। बीच रास्ते में उन्होंने शपथ भी ले ली कि कव्वै-कुत्ते की मौत मरेंगे लेकिन स्वराज लिए बिना वापस आश्रम नहीं लौटेंगे। ”
लोग कह रहे थे कि गांधी जी इस यात्रा में गांव-गांव ठहरकर अपना वक्त जाया कर रहे हैं। अंग्रेजों ने और अंग्रेजी परस्त अखबारों ने इस पूरी यात्रा का बहुत मजाक बनाया। वो लोग सोच रहे थे कि जल्दी ही महात्मा का ये भूत उतर जाएगा। और कुछ दिन बाद ही महात्मा गांधी अपने ही बुने हुए जाल में उलझ जाएंगे। इस यात्रा का मकसद पूरा होने की बजाय अंग्रेजों का आंदोलनों को कुचलने का मकसद पूरा हो जाएगा, लेकिन गांधी ने सबको ग़लत साबित कर दिया। उस वक्त दांडी यात्रा ने बूढ़े देश में जवानी फूंक दी थी लेकिन आज उनकी यादों को हमने फूंक दिया है।
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र की अपनी विशिष्ट पहचान है।