ब्रह्मानंद ठाकुर
विनय तरुण स्मृति व्याख्यान 2018 का विषय है- अतिवादों के दौर में पत्रकारिता और गांधीवाद। मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि साहित्य, कला, संस्कृति, नीति-नैतिकता, चिंतन और विचारधारा अपने समय के अर्थव्यवस्था के आधार का सुपरस्ट्रक्चर ( ऊपरी ढांचा ) होते हैं जो अपने आधार ( अर्थव्यवस्था ) से संचालित और नियंत्रित होते हैं। इसमें अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यदि हम वर्तमान अर्थव्यवस्था की बात करें तो हमारी अर्थव्यवस्था एक पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था है और यही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था आज साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता, नीति – नैतिकता , विचारधारा, मूल्यबोध आदि को नियंत्रित और संचालित करती है। पत्रकारिता भी साहित्य की एक विधा है, वह भी इससे अलग नहीं है।
अब चूंकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था खुद ही जब मरनासन्न हो गई है तो इसका असर पत्रकारिता सहित दूसरे तमाम क्षेत्रों पर पड़ना लाजिमी है। पड़ भी रहा है। कुछ लोग पत्रकारिता के इस संकट को इसके मिशन से प्रोफेशन बन जाने का संकट मानते हैं। मै इससे इत्तेफाक नहीं रखता क्योंकि मिशन से प्रोफेशन बन जाना भी मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम है। सामंतवादी समाज व्यवस्था के बाद जब पूंजीवाद आया था तब उसका चरित्र प्रगतिशील था। इसने सामंती शोषण – उत्पीड़न से आम- आवाम को मुक्त करा कर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के धरातल पर ला खड़ा किया। औद्योगिक क्रांति ने गुलामी की प्रथा को जड़ मूल से मिटा कर एक स्वर्णिम युग की शुरुआत की। लोकतंत्र की स्थापना हुई।
अपने देश मे आज़ादी के आंदोलन के आरम्मिक दौर की पत्रकारिता में इसकी झलक देखी जा सकती है। जब पूरा देश आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था तो उस दौर में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबू विष्णु पराड़कर, प्रतापनाराण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त , मदनमोहन मालवीय, महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे सम्पादक राष्ट्र हित में हिन्दी पत्रकारिता को न केवल संस्कारित कर रहे थे बल्कि भारतीय राष्ट्रीय आज़ादी आंदोलन को दिशा भी दे रहे थे। तब राजनीति हमारी पत्रकारिता की एक विशिष्ट पहचान थ। तब इस पेशे में पैसा नहीं, जनहित महत्वपूर्ण था। लोग जनहित का उद्देश्य लेकर इस क्षेत्र मे आते थे।
कबीर ने कहा है- ‘ जो घर जारे आपना , चले हमारे साथ ‘। कुछ यही आलम पत्रकारिता का भी लंबे वक्त तक रहा। जनता के बीच पत्रकारों की साख थी, सम्मान था। कहा तो यह भी जाता है कि कभी माखनलाल चतुर्वेदीजी ने मुख्यमंत्री बनने का आफर भी ठुकरा दिया था। आज देखता हूं कि राज्यसभा की सदस्यता के लिए बड़े- बड़े सम्पादक पलक झपकते अपने ज़मीर का सौदा करने तक से परहेज नहीं करते। लेकिन इस स्थिति के लिए मैं केवल और केवल उस परिस्थिति को जिम्मेवार मानता हूं जिसे मुनाफे पर आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था ने पैदा किया है। आज जो दशा राजनीति की है ,वही पत्रकारिता की भी हो गई है। जनपक्षधरता पूरी तरह से गायब है। निर्भीक और निरपेक्ष पत्रकारिता का राग अलापा जा रहा है जो बेसुरा तो है ही , बेकार भी है। क्योंकि वर्गविभाजित समाज में निष्पक्ष और निरपेक्ष तो कुछ हो ही नहीं सकता। या तो वह शोषित-पीड़ित आम जनता का पक्षधर होगा या शोसक राजसत्ता का पक्षधर होगा। बीच का कोई रास्ता ही नहीं है।
जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था ऐतिहासिक नियमों से संकटग्रस्त होकर अपना प्रगतिशील चरित्र खो चुकी है , पत्रकारिता का भी वही हाल है। आज अखबार एक उत्पाद बन गया है और पाठक उसके उपभोक्ता हैं। प्रबंधन ने सम्पादक के पर कतर दिए हैं। आज मालिक की नजर में वही सम्पादक सफल हैं जो बाजार से अधिक से अधिक मुनाफा ला सके। यह परिवर्तन भी कोई आकस्मिक नहीं है। बढती प्रतिस्पर्धा और आधुनिक तकनीक के वर्तमान दौर में मीडिया के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत होती है और यहीं से पूंजीपतियों का दखल बढ़ जाता है। लिहाजा वे इस उद्योग में पूंजी लगाते हैं और मनचाहा मुनाफा बटोरते हैं। हाल ही मे कोबरा पोस्ट ने ऐसे अनेक मामलों का जो खुलासा किया है, उसे देख चिंतित होना लाजिमी है। यही तो है अतिवादों के दौर की पत्रकारिता जो कारपोरेट्स घरानों के हाथ की कठपुतली बन चुकी है।
गांधीवाद की चर्चा करें तो, सामाजिक विकास के ऐतिहासिक नियमों को नकार कर वर्ग विभाजित समाज में दोनो वर्गों (शोषक और शोषित ) का एक साथ कल्याण साधने की आकांक्षा से ओतप्रोत पूंजीवादी नैतिक मूल्यों की अपील ने महात्मागांधी के प्रति जनसाधारण में काफी सम्मान का भाव पैदा किया था। कुछ यही वजह रही कि निष्ठा और पूरी ईमानदारी के साथ जनता के कल्याण की बात सोचते हुए भी उन्होने जिस चिंतन और आदर्श ( गांधीवाद ) को जन्म दिया वह वास्तव मे पूंजीपतियों के हित रक्षा का कवच बन गया।
हम जानते हैं कि वर्ग विभाजित समाज में किसी भी व्यक्ति का चिंतन उसके चाहने अथवा न चाहने से भी किसी न किसी वर्ग विशेष का ही चिंतन होता है। इस तरह वह इस वास्तविकता को यदि नकार देता है तो वह किसी वर्ग विशेष के हित की इच्छा न रखते हुए भी उसी वर्ग का हित साधन कर बैठता है। महात्मागांधी अपनी व्यक्तिगत धारणाओं और विश्वास के आधार पर वर्गीय अवधारणा से अलग हट कर पूरे देश के जनता के कल्याण की जो बात सोच रहे थे उसे उस समय के पूंजीपतियों ने समझ लिया और उन्हें भरपूर समर्थन दिया। उन्नत नीति-नैतिकता , चरित्र और देश के दबे – कुचले लोगों के प्रति असीम ममता रखने के बावजूद महात्मागांधी अपने इसी वर्गीय अवधारणा के अभाव में उसका भला नहीं कर सके। देश उनके नेतृत्व मे आजाद हुआ और राजसत्ता पूंजीपतियों के कब्जे में आ गई, जिसका परिणाम आज सारा देश भुगत रहा है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी जी की चिंतनधारा जिन पूंजीवादी अंधविश्वासों से पैदा हुई, उनके प्रति सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण न रहने के कारण ही गांधी के मानवता के कथित आदर्शों से जन साधारण गुमराह होता रहा है। उनकी आध्यात्मिक शक्ति की धारणा अवैज्ञानिक और प्रतिक्रियावादी चिंतन का ही परिचायक है। उनका अहिंसा और वर्ग समन्वय का विचार भी वर्ग विभाजित समाज मे अवैज्ञानिक और भ्रामक है। गांधीजी ने बिना किसी प्रमाण के यह मान लिया था कि इंसान मूलत: भला है और यह भलाई शाश्वत और अनश्वर है। वे मानते थे कि शोषण, अत्याचार और मानव समाज की सभी बुराइयों की जड़ लोभ, नीचता, कायरता और मनुष्य के प्रति प्रेम का अभाव है। ऐसी मान्यता उनके चिंतन में मानवतावादी मूल्यों और आध्यात्मवाद केसम्मिश्रण से पैदा हुई थी जो नितांत अवैज्ञानिक है। सच्चाई यह है कि किसी भी तरह का चिंतन पैदा होने से पहले भौतिक परिस्थिति पैदा हो जाती है और महान से महान व्यक्ति का भी चिंतन अपनी उस भौतिक परिस्थिति से निरपेक्ष नही रह सकता।
महात्मा गांधी ने ईर्ष्या, लोभ आदि जिन तमाम कुमनोवृतियों को हर प्रकार के व्यभिचार, अत्याचार और शोषण का मूल कारण मान लिया था, वह और कुछ भी नहीं, इसी मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। इसी का प्रकटीकरण वर्तमान पत्रकारिता में भी हो रहा है, जिसे अतिवाद की संज्ञा दी जा रही है। इससे स्थाई मुक्ति पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति की सफलता मे ही सम्भव है।