ब्रह्मानंद ठाकुर

अब चूंकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था खुद ही जब मरनासन्न हो गई है तो इसका असर पत्रकारिता सहित दूसरे तमाम क्षेत्रों पर पड़ना लाजिमी है। पड़ भी रहा है। कुछ लोग पत्रकारिता के इस संकट को इसके मिशन से प्रोफेशन बन जाने का संकट मानते हैं। मै इससे इत्तेफाक नहीं रखता क्योंकि मिशन से प्रोफेशन बन जाना भी मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम है। सामंतवादी समाज व्यवस्था के बाद जब पूंजीवाद आया था तब उसका चरित्र प्रगतिशील था। इसने सामंती शोषण – उत्पीड़न से आम- आवाम को मुक्त करा कर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के धरातल पर ला खड़ा किया। औद्योगिक क्रांति ने गुलामी की प्रथा को जड़ मूल से मिटा कर एक स्वर्णिम युग की शुरुआत की। लोकतंत्र की स्थापना हुई।

कबीर ने कहा है- ‘ जो घर जारे आपना , चले हमारे साथ ‘। कुछ यही आलम पत्रकारिता का भी लंबे वक्त तक रहा। जनता के बीच पत्रकारों की साख थी, सम्मान था। कहा तो यह भी जाता है कि कभी माखनलाल चतुर्वेदीजी ने मुख्यमंत्री बनने का आफर भी ठुकरा दिया था। आज देखता हूं कि राज्यसभा की सदस्यता के लिए बड़े- बड़े सम्पादक पलक झपकते अपने ज़मीर का सौदा करने तक से परहेज नहीं करते। लेकिन इस स्थिति के लिए मैं केवल और केवल उस परिस्थिति को जिम्मेवार मानता हूं जिसे मुनाफे पर आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था ने पैदा किया है। आज जो दशा राजनीति की है ,वही पत्रकारिता की भी हो गई है। जनपक्षधरता पूरी तरह से गायब है। निर्भीक और निरपेक्ष पत्रकारिता का राग अलापा जा रहा है जो बेसुरा तो है ही , बेकार भी है। क्योंकि वर्गविभाजित समाज में निष्पक्ष और निरपेक्ष तो कुछ हो ही नहीं सकता। या तो वह शोषित-पीड़ित आम जनता का पक्षधर होगा या शोसक राजसत्ता का पक्षधर होगा। बीच का कोई रास्ता ही नहीं है।
जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था ऐतिहासिक नियमों से संकटग्रस्त होकर अपना प्रगतिशील चरित्र खो चुकी है , पत्रकारिता का भी वही हाल है। आज अखबार एक उत्पाद बन गया है और पाठक उसके उपभोक्ता हैं। प्रबंधन ने सम्पादक के पर कतर दिए हैं। आज मालिक की नजर में वही सम्पादक सफल हैं जो बाजार से अधिक से अधिक मुनाफा ला सके। यह परिवर्तन भी कोई आकस्मिक नहीं है। बढती प्रतिस्पर्धा और आधुनिक तकनीक के वर्तमान दौर में मीडिया के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत होती है और यहीं से पूंजीपतियों का दखल बढ़ जाता है। लिहाजा वे इस उद्योग में पूंजी लगाते हैं और मनचाहा मुनाफा बटोरते हैं। हाल ही मे कोबरा पोस्ट ने ऐसे अनेक मामलों का जो खुलासा किया है, उसे देख चिंतित होना लाजिमी है। यही तो है अतिवादों के दौर की पत्रकारिता जो कारपोरेट्स घरानों के हाथ की कठपुतली बन चुकी है।

हम जानते हैं कि वर्ग विभाजित समाज में किसी भी व्यक्ति का चिंतन उसके चाहने अथवा न चाहने से भी किसी न किसी वर्ग विशेष का ही चिंतन होता है। इस तरह वह इस वास्तविकता को यदि नकार देता है तो वह किसी वर्ग विशेष के हित की इच्छा न रखते हुए भी उसी वर्ग का हित साधन कर बैठता है। महात्मागांधी अपनी व्यक्तिगत धारणाओं और विश्वास के आधार पर वर्गीय अवधारणा से अलग हट कर पूरे देश के जनता के कल्याण की जो बात सोच रहे थे उसे उस समय के पूंजीपतियों ने समझ लिया और उन्हें भरपूर समर्थन दिया। उन्नत नीति-नैतिकता , चरित्र और देश के दबे – कुचले लोगों के प्रति असीम ममता रखने के बावजूद महात्मागांधी अपने इसी वर्गीय अवधारणा के अभाव में उसका भला नहीं कर सके। देश उनके नेतृत्व मे आजाद हुआ और राजसत्ता पूंजीपतियों के कब्जे में आ गई, जिसका परिणाम आज सारा देश भुगत रहा है।

महात्मा गांधी ने ईर्ष्या, लोभ आदि जिन तमाम कुमनोवृतियों को हर प्रकार के व्यभिचार, अत्याचार और शोषण का मूल कारण मान लिया था, वह और कुछ भी नहीं, इसी मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। इसी का प्रकटीकरण वर्तमान पत्रकारिता में भी हो रहा है, जिसे अतिवाद की संज्ञा दी जा रही है। इससे स्थाई मुक्ति पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति की सफलता मे ही सम्भव है।