भारत में 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून भले ही लागू हो चुका हो, किंतु 60 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं। हकीकत में पांचवीं तक पहुंचने वाले अधिकतर बच्चे भी दो-चार वाक्य लिख पाएं, ऐसा जरूरी नहीं है। शिक्षा रोजगार से जुड़ा मसला है, इसलिए बड़े होकर बहुत से बच्चे आजीविका की पंक्ति में सबसे पीछे खड़े मिलते हैं। इसके उलट दुनिया के अमीर देशों मसलन अमेरिका या इंग्लैण्ड में सरकारी स्कूल ही बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था की नींव माने जाते हैं। वहां की शिक्षा व्यवस्था पर आम जनता का शिकंजा होता है। इसके ठीक विपरीत पिछड़े देशों में प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा पर लोग ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। इसी धारणा का फायदा प्राइवेट स्कूल के प्रंबधन से जुड़े लोग उठा रहे हैं, जो मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ाते जा रहे हैं। हमारे देश में भी ऐसा ही चल रहा है।
कई शिक्षाविदों का मानना है कि पूरे देश के हर हिस्से में शिक्षा का एक जैसा ढांचा, एक जैसा पाठयक्रम, एक जैसी योजना और एक जैसी नियमावली बनायी जाए। इससे मापदंड, नीति और सुविधाओं में होने वाले भेदभाव बंद होंगे। शिक्षा के दायरे से सभी परतों को मिटाकर एक ही परत बनाई जाए। इससे हर बच्चे को अपनी भागीदारी निभाने का एक समान मौका मिलेगा।महज शिक्षा में ही समानता की बात करना ठीक नहीं होगा, बल्कि इस व्यवस्था को व्यापक अर्थ में देखने की जरूरत है।
गोपालकृष्ण गोखले ने 1911 में नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का जो विधेयक पेश किया था, उसे उस समय की सांमती ताकतों ने पारित नहीं होने दिया था। इसके पहले भी महात्मा ज्योतिराव फुले ने अंग्रेजों द्वारा बनाये गए भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को दिए अपने ज्ञापन में कहा था, “सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनत करने वाले मजदूरों से आता है, लेकिन इसके बदले दी जाने वाली शिक्षा का पूरा फायदा तो अमीर लोग उठाते हैं।” आज देश को आजाद हुए 62 साल से अधिक हो गए और उनके द्वारा कही इस बात को 128 साल। लेकिन, स्थिति जस की तस है।
निजीकरण के कारण पूरे देश में एक साथ एक समान स्कूल प्रणाली लागू करना मुश्किल होता जा रहा है। इसके सामानांतर यह और भी जरूरी होता जा रहा है कि एक जन कल्याणकारी राज्य में शिक्षा के हक को बहाल करने के लिए मौजूदा परिस्थितियों के खिलाफ अपनी आवाज बढ़ायी जाए। इस नजरिए से शिक्षा के अधिकारों के लिए चलाया जा रहा राष्ट्रीय आंदोलन एक बेहतर मंच साबित हो सकता है। इसके तहत राजनैतिक दलों को यह एहसास दिलाये जाने की जरुरत है कि समान स्कूल व्यवस्था अपनाना कितनी जरूरी है और शिक्षा के मौलिक हकों को लागू करने के लिए यही एकमात्र विकल्प बचा है।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।