जी हां ! हम शिक्षक नहीं, ड्राइवर हैं । मल्टीपर्पस, मल्टीटैलेंट । इसीलिए खिचड़ी से लेकर बत्तख गणना, पशुगणना, चुनाव कार्य, वोट गिनती, प्रातः काल में लोटाधारी निरीक्षण जैसे दर्जनों कार्यों को हम ही अंजाम देते हैं । बस पठन-पाठन नहीं । आखिर ड्राइवर कहीं पढ़ाने का काम करते हैं ? और जब पढ़ाने का कोई काम ही नहीं, तो मास्टर काहे का ? ड्राइवर ही फिट है और जब ड्राइवर हैं, तो ड्राइवर का वेतनमान से क्या संबंध ? वेतनमान का संबंध आदमी से होता है, न कि ड्राइवर से । वह तो कबीर धर्मा होता है -‘साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय। ‘उसे तो इतना ही मिलना चाहिए, जिससे उसकी क्षुधा किसी तरह शांत हो जाए, क्योंकि उसके बच्चे तो होते नहीं और न उन बच्चों का कोई भविष्य होता है ।
जहां तक रही उनकी साक्षरता की बात तो वह हम अपने ‘खटाल’ में मुहैया करा ही रहे हैं ! रहा ईलाज का प्रश्न तो उसे बीमार पड़ने की फुर्सत ही कहाँ मिलती है कि वह बीमार पड़ेगा । बीमार तो बस राजा जी पड़ते हैं, बाहर घोटाले की बीमारी और भीतर जाने के बाद बीमार पड़ने की बीमारी। यह बीमारी भी न अजीब चीज होती है ! नाना प्रकार की । किसी को लहू चूसने की बीमारी तो किसी को देश चूसने की । फिलहाल तो ‘बड़का’ राजा जी ‘ड्राइवर-इलर्जी’ से ग्रसित हो गए हैं । बचे ‘छोटका’ राजा तो उनकी बीमारी ‘कंडीशनल’ होती है। जब तक ‘बड़का’ राजा जी से उनकी गलबहियां रहती है तब तक इनका ‘एन्टीना’ उनकी बीमारी की ‘फ्रिक्वेंसी’ पकड़ता है और जैसे ही कुर्सी से धकिया दिए जाते हैं वैसे ही ‘ड्राइवरों’ के प्रति उनका प्रेम छलक पड़ता है । इसीलिए इन्हें सब ‘कंडीशनल’ ‘छोटका’ राजा जी कहते हैं ! यह राजा मौसम वैज्ञानिक से जरा ‘डिफरेंट’ हैं । यह सब कुर्सी का असर है ! यह कुर्सी भी न बड़ी मायावी होती है ! बड़े -बड़े सन्यासी इसके सामने नग्नावस्था की परमदशा को प्राप्त हो जाते हैं । बड़े-बड़े चिकित्सकों को यह बीमार कर देती है ।
मीरजाफर और जयचंद ने इसी के दल-दल में देश को दफन कर दिया। वैसे यह कोई खास बीमारी नहीं होती है, लेकिन होती भी है ! ठीक उसी प्रकार, जैसे शिक्षक शिक्षक होता भी है, नहीं भी होता ! जैसे कहीं लोकतंत्र होता भी है, नहीं भी होता, पप्पू पप्पू होता भी है, नहीं भी होता । शिक्षक ड्राइवर होता भी है, नहीं भी होता । जब वह शिक्षक नहीं होता तो ड्राइवर बन जाता है ! वेतनमानी परिधि में ड्राइवर, उसके बाहर शिक्षक ! ऐसा शिक्षक जो सबकी अपेक्षा पर खड़ा तो उतरे लेकिन वह किसी से कोई उम्मीद न करे । अपना काम ईमानदारी से करे । कोताही नहीं । बत्तख से लेकर सुबह-सुबह लोटाधारियों का पीछा करते-करते सोंटा खाने वाला और सोंटा खाने के बाद उन्हीं ‘सोंटाचंदो’ के नन्हें-मुन्ने लाडलों को खिचड़ी खिलाने वाला , लोकतंत्र की रक्षा से लेकर, वोटों की गिनती करने वाला ऐसा मल्टीपर्पस -मल्टीटैलेंट प्रेतात्मा मार्गी जीव आपको इस आर्यावर्त-जम्बूद्वीप पर दूसरा न मिलेगा जो सिर्फ खाता ही खाता है । कभी पुलिसिया डंडा तो कभी राजा जी की घोर उपेक्षा की मार ।
विधाता ने इसके रोम – रोम में ‘डाइवर्सिटी’ ठूंस-ठूंस कर भरी है ! राजा जी यह भली- भांति जानते हैं । खैर! बात चली थी इलर्जी नामक बीमारी की जिससे कई वर्षों से वह ग्रसित पाए जा रहे हैं । यह खास प्रकार की बीमारी खास प्रकार के मल्टीपर्पस – मल्टीटैलेंट शिक्षकनुमा ड्राइवरों से संक्रमित हुई है । इसी कारण इस बीमारी के समूल उन्मूलन का संकल्प राजा जी ने ले रखा है । इसी संकल्प को दुहराते हुए उन्होंने ‘महान्यायवादी’ से न्यायाधीश को कहलवाया है कि इस इलर्जी को कंट्रोल में रखा जाए । उन्हें उतनी ही खुराक मिले जिससे उनकी सांस बंद न हो । आप खुराक का अर्थ अन्यर्थ न लें ! क्योंकि ड्राइवर को खुराक ही दी जाती है, वेतनमान नहीं । वेतनमान तो ऊंची चीज है । ऊंची चीज के भोक्ता तो ऊंचे-ऊंचे मचान पर बैठे ऊंचे-ऊंचे मचानासीन ही हो सकते । भला ड्राइवरों को इसकी क्या जरूरत । जिसे 60-65 बरस तक रेत में एड़ियां रगड़नी हो उसे ऊंची चीज ? न !! ऊंची चीज के लिए जो भारतीय लोकतंत्र में अर्हता निर्धारित की गयी है , उसमें बी. ए. , एम. ए. , पीएच. डी. डिग्रीधारी का क्या काम ! उसमें तो एक दिवसीय ‘ओथधारी’, अंगूठा स्वामी, मान विमर्दक, पांचवीं- नौंवी फेल ही फिट हैं ! यही तो हमारे लोकतंत्र का अनिंद्य सौंदर्य है । इस सौंदर्य के आगे तो मेनका भी शर्म से पानी-पानी हो जाए !
चूंकि राजा जी देश के भविष्य होते हैं ! उन्हें बहुत कुछ झेलना पड़ता है । जनता के खून पसीने की कमाई , उसका असह्य भार वहन करना कोई सामान्य कार्य है ? सामान्य कार्य तो कुंभकारों का होता है । अनगढ़ माटी से मूरतें गढ़ना भी कोई काम है भला ! काम तो होता है उड़नखटोला से उड़ना, सत्तर – अस्सी बरस में भी तरुणाई कायम रखने की जद्दोजहद , नगरवधुओं की पाजेब की हृदयाघाती मधुर ध्वनि को सह लेना, फाइव स्टार में रह लेना, लोकतंत्र की दिशाहीन बंजर जमीन में जातीवाद , अगड़े-पिछड़े की ‘वोटबैंकी’ फसल निकाल ले जाना ! भला इतना कठिन कार्य ड्राइवर से होगा ? नहीं न ! तो वेतनमान काहे का ?
डॉ सुधांशु कुमार- लेखक सिमुलतला आवासीय विद्यालय में अध्यापक हैं। भदई, मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी। मोबाइल नंबर- 7979862250 पर आप इनसे संपर्क कर सकते हैं। आपका व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘नारद कमीशन’ प्रकाशन की अंतिम प्रक्रिया में है।
Achchaa vyang hai. Satik. [ekaadh zagah hizze main galatiyaan rah gayi hain, jingen aasaani se sudhara ja sakta hai. Sab milakar, bahut achchha laga.
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