पशुपति शर्मा की फेसबुक वॉल से साभार
सौम्यता, सरलता और सहजता… यूं तो ये व्यक्ति के बड़े गुण हैं लेकिन कुछ लोग इसे ही कमजोरी मानने की भूल कर बैठते हैं। इससे फर्क ‘व्यक्ति विशेष’ पर तो नहीं पड़ता लेकिन लोग तब जरूर ठगे से रह जाते हैं जब यही सौम्य, सरल और सहज व्यक्ति मिनटों में सख्त और बड़े फैसले लेता ही नहीं, उसे अमल भी कर दिखाता है। सौम्यता कभी दृढ़ता के आड़े नहीं आती, सरलता कभी संकल्प को डिगने नहीं देती, सहजता कभी आत्मविश्वास को कमजोर नहीं होने देती।
जी हां हुजूर, ये बातें बस यूं ही नहीं लिख रहा, इसकी मिसाल बनती शख्सियत हमारे आपके-बीच मौजूद है… अगर हम देखना चाहें तो?
पत्रकारिता जगत में ऐसे ही एक शख्स के साथ दिन-हफ़्ते नहीं बल्कि सालों गुजारे हैं मैंने। … और तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद इस शख्स ने बार-बार चौंकाया है मुझे। बार-बार इस शख्स को लेकर मेरी धारणाएं बदली हैं। हर बड़े मौके पर इस शख्सियत का एक अलग रंग देखा है और इसकी छवि कुछ और स्पष्ट होकर… कुछ और गाढ़ी होती गई है।
पिछले 36 से 40 घंटों में सोशल मीडिया पर छाया ये शख्स मेरे जेहन में भी कौंध रहा है। मैं भी सोच रहा हूं कि क्या वाकई ऐसे लोग अपने ईर्द-गिर्द मौजूद हैं, जिन्होंने ‘मीडिया की मंडी’ में अभी तक सिर्फ अपना हुनर बेचा है, अपना जमीर नहीं। क्या वाकई ऐसे लोग मौजूद हैं जो ‘मीडिया की मंदी’ में ‘छंटनी’ की शुरुआत खुद से करने का ‘जोखिम’ उठाने का माद्दा रखते हैं। क्या वाकई ऐसे लोग मौजूद हैं जो ‘मीडिया की पराली’ के धुएं में आपका ‘दम घोटने’ से पहले ‘उम्मीद की सांसें’ मुहैया कराने में यकीन रखते हैं।
साथियों ने न्यूज़ रूम के दायरे में उस शख्सियत को अपने-अपने चश्मे से देखा है, लेकिन मुझे वो इस चारदीवारी से बाहर कुछ और कद्दावर नज़र आता है। पिंजड़े में कैद परिंदे को खुले आसमान में देखो, तब कहीं उसकी उड़ान का अंदाजा होता है, तब कहीं ये एहसास पुख्ता होता है कि जिनको अपने पंखों पर यकीन होता है वो सात समंदर पार कर भी अपने लिए ‘पानी का सोता’ तलाश ही लेते हैं।
मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे से राजधानी तक के सफर में उसके पास खुद को बदलने के कई मौके आए, खुद को बदलने की कई वजहें मिलीं, खुद को ‘सुपर’ समझने वाले कई ‘ओहदे’ मिले… लेकिन उसने ‘न बदलने की अपनी जिद’ के आगे सबको बौना कर दिया और खुद-ब-खुद कद्दावर होता गया।
लंबाई की वजह से हलके झुके कंधे और हाथों में चकरी की तरह घूमता आई कार्ड … उसके बीच में एक रीढ़, खुदा की नेमत वो सीधी है… लोकतंत्र की उन तमाम पद्धतियों को चुनौती देती है ये रीढ़, जो आदमी को पेट के बल झुका देने का षड्यंत्र रचती हैं… ये कोई जरूरी नहीं कि हर बार ये रीढ़ इतनी ही तनी हुई नज़र आए… हर बार एक ही शख्स के कंधों पर हो तमाम सवालों का बोझ… लेकिन जब भी ‘रीढ़ का ये तनाव’ नज़र आएगा… आपकी ओर से पेश की गई चाय की प्याली की मिठास और बढ़ जाएगी…
तनी रीढ़ वाले साथी चंद्रभान सोलंकी, आपने एक उम्मीद जगाई है… भरोसा मजबूत किया है… संपादकों की नई और युवा फौज उतनी खोखली और लिजलिजी भी नहीं, जितना मीडिया की गली-गली में शोर है…
– पशुपति शर्मा (16 नवंबर 2019)