पशुपति शर्मा
23 जुलाई को ग्रेटर नोएडा में बंसी दा से एक और मुलाकात। कमरे में बिस्तर पर लेटी माताजी और बाहर सोफे पर बैठे बेचैन दादा। माताजी के बारे में पूछा तो कहा- “जाओ देख लो, मैं तो इस हालत में उनके पास जाने की हिम्मत नहीं करता।” बातचीत के दौरान एहसास हुआ कि दादा दिल्ली में बैठे-बैठे ही मानो ‘संजय’ की तरह एलबीटी में चल रही रोजाना की रिहर्सल भी देख रहे हों। नाटक क्या शक्ल ले रहा है, इसका अंदाजा भी उनको बखूबी था। नाटक के इस आखिरी दौर में कुछ नए एक्टर्स शामिल हो रहे थे। अमित रिछारिया लंबी बीमारी के बाद ग्रुप में लौटे थे। दादा ने कुछ और सुधार के निर्देश दिए। सूत्रधारों और नेमिजी के संवाद जोड़ने को कहा। कोरस की भूमिका सीमित करने की जरूरत बताई। मंच पर चल रही गतिविधियों से ज्यादा जोर कथन पर देने को कहा। कुछ सोलोलॉकी का खाका भी बताया।
नाटक के संगीत की तैयारी भी साथ-साथ चल रही थी। इसी मुलाकात में अंजना दीदी ने कुछ कविताओं के लयबद्ध किए जाने की सूचना भी दी। माताजी की तबीयत थोड़ी स्थिर हुई तो अंजना दीदी दो-तीन दिनों के लिए भोपाल गईं। संगीत के जुड़ते ही नाटक में नई जान आ गई। अतुकांत और मुश्किल कविताओं को अंजना दीदी ने न केवल गेय बनाया बल्कि दर्शकों के जेहन में कौंधने वाला प्रभाव भी पैदा कर दिया। जब गीत रिकॉर्ड होकर आए तो दीदी की खुशी मेरे मोबाइल फोन में भी झनझना रही थी। वो भी दादा की तारीफ़ वाले लफ़्ज़ों को सुन कर चहक उठीं थीं- “अरे खुलकर बोलो न दादा ने क्या कहा?” मेरा जवाब- ” कुछ नहीं दीदी- दादा ने कहा कि कुछ गीत अच्छे बन गए हैं, सुन लो। “
इस बीच नटरंग प्रतिष्ठान की ओर से नाटक के नाम को लेकर फोन आया। दादा को मैंने एक दो नाम सुझाए- ‘अधूरा साक्षात्कार’ उसमें से एक था। दादा ने इसे बदल कर ‘साक्षात्कार अधूरा है’ कर दिया। रश्मिजी और कीर्तिजी ये मान रहीं थीं कि नाटक का निर्देशन बंसी दा ही कर रहे हैं। दादा ने दो टूक मना कर दिया- “भोपाल में नाटक फरीद बज़मी तैयार कर रहे हैं तो उन्हीं का नाम जाना चाहिए।” इस पूरे प्रकरण में संस्था के बाकी साथियों को उनका श्रेय देने की उनकी दिली ख्वाहिश थी। काफी मान-मनौव्वल के बाद उन्होंने ‘मार्गदर्शक’ के तौर पर अपना नाम देने पर सहमति जताई। जबकि सच तो ये है कि अगर ‘पथ-निर्माण और पथ-दर्शन’ टाइप कोई चलन रंगकर्म में होता तो ये ‘उपमा’ इस संदर्भ में दादा के लिए सटीक होती। इस पूरे नाटक में वो ‘मार्गदर्शक’ भर नहीं थे, वो हमारे लिए ‘रचनात्मक मार्ग’ का निर्माण कर रहे थे और फिर पूछ रहे थे कि कैसी बनी है सड़क और सफ़र में कैसा आनंद आ रहा है ?
प्रस्तुति की तारीख नजदीक आई तो दादा ने भोपाल का कार्यक्रम बना लिया। तारीख ठीक से याद नहीं, 7 या 8 अगस्त को दादा भोपाल पहुंचे। इससे पहले मैं तमाम करेक्शन के साथ नाटक का चौथा ड्राफ्ट फरीद भाई को भेज चुका था। पहली रिहर्सल के बाद ही दादा का संदेश आया कि ‘चिट्ठी-पत्री’ वाला सीन जम नहीं रहा। इसे ‘चिट्ठियों के भावनात्मक इतिहास’ की तरह बुनो। एक लंबी सोलोलॉकी लिखो। उन्होंने जो सूत्र वाक्य दिए, इस पर जो सोलोलॉकी लिखी गई, उसे दर्शकों ने सराहा। इन दो-तीन दिनों में दादा और फरीद भाई में नाटक के तमाम पक्षों पर चर्चा हुई। सेट, संगीत, एक्शन आदि-आदि। चूंकि मैं वहां मौजूद नहीं था, इसका बखान कर पाना भी मुमकिन नहीं। हां, इतना तय है कि इस दौरान तमाम कांट-छांट के बाद नाटक का वह ‘पांचवां ड्राफ्ट’ तैयार हो चुका था, जिसको मांजा जाना था। अब गेंद रंग-विदूषकों के एक्टर्स के पाले में जा चुकी थी।
नाटक में एक संवाद है कि “आखिरी वक्त में ऐसा लगता है मानो सब कुछ जल्दी-जल्दी समेटना चाहिए”। कुछ इसी भाव के साथ मैं भी रचना प्रक्रिया की आखिरी किस्त में कुछ सूचनाएं साझा करता चलूं। नाट्य-आलेख के लिए संदर्भ सामग्री रेखा जैन की पुस्तक ‘यादघर’, ज्योतिष जोशी की पुस्तक ‘नेमिचंद्र जैन’, मुद्राराक्षस की पुस्तक ‘नेमिचंद्र जैन’, महेश आनंद की पुस्तक ‘रेखा जैन’ से ली गई। इसके अलावा नेमिचंद्र जैन की पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कार’, नटरंग के विशेषांक, नटरंग प्रतिष्ठान की शोध सामग्री और अप्रकाशित इंटरव्यू से भी संदर्भ जोड़े गए। किशन कालजयी की फिल्म ने भी एक समझ बनाई। आदरणीय कीर्ति जैन, रश्मि जैन, अशोक वाजपेयी, और राजेश जोशी से बातचीत का जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं।
17 अगस्त को दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ‘अभिमंच सभागार’ में मंचन के साथ ही नाटक की रचना प्रक्रिया का पहला पड़ाव आ गया। इस दौरान हॉल में मौजूद दर्शकों के हाथ में एक ब्रोशर भी था। कुछ ने पढ़ा, कुछ ने समेट कर रख दिया। इसमें ही वो तमाम नाम दर्ज होते हैं, जो प्रस्तुति को साकार करते हैं। बताता चलूं मंच पर थे-अम्बर गुप्ता, अमित रिछारिया, अपू्र्व मिश्रा, अतुल द्विवेदी. आयुषी पटेल, हर्ष पटेल, कीर्ति सिन्हा, नीति श्रीवास्तव, नितिन पांडेय, संजय श्रीवास्तव, संकित सेजवार, शशि रंजन, उपेंद्र मोहंता, वाणी श्रीवास्तव, वारुणी शर्मा और विमलेश पटेल। संगीत निर्देशन और मुख्य गायन अंजना पुरी का। पार्श्व संगीत संयोजन एवं संचालन की जिम्मेदारी आदर्श शर्मा ने निभाई। कुछ कविताओं का पाठ किया- उदय शहाणे और आलोक चटर्जी ने। प्रकाश और मंच परिकल्पना अशोक सागर भगत की, मंच निर्माण वेद पाहुजा का। रंग-विदूषक में सालों से प्रस्तुति व्यवस्थापक के तौर पर जो नाम जुड़ा रहा है, वो नारायण शर्मा यहां भी मौजूद थे।
दोस्तो, कोई भी ‘साक्षात्कार’ पूरा कहां हो पाता है, अधूरा ही रह जाता है। ‘साक्षात्कार अधूरा है’ की निर्माण प्रक्रिया पर ये बातचीत भी कई मायनों में ‘अधूरी’ ही है। जो कुछ कह पाया हूं, उससे बहुत-बहुत ज्यादा ‘अनकहा’ रह गया है। और ये भी कि रचना प्रक्रिया का ये सच तो बस मेरी नज़र से देखा गया हिस्सा भर है। इस सृजन यात्रा में शामिल तमाम साथियों का अपना-अपना सच है, जो वो खुद ही साझा कर सकते हैं। देखने वाले की नज़र से शख्सियत ही नहीं बदलती, ‘रचना संसार’ भी बदल जाता है।
और आखिर में अपने गुरु (बंसी कौल) को लख-लख नमन, जिन्होंने अपने गुरु (नेमिचंद्र जैन) से नाता जोड़ने का ये अवसर मुहैया कराया।