गाय ‘माता’ के नाम पर बंद करो लड़ाई

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कुमार सर्वेश

गाय इस धरती पर सबसे प्यारा और पवित्र पशु है। भारतीय समाज में गाय को परिवार का एक हिस्सा माना जाता रहा है। गाय को हिंदू परंपरा में मां का दर्जा हासिल है। यह दर्जा किसी दूसरे पशु को नहीं हासिल। इसके पीछे गाय का सामाजिक, सार्वभौमिक, बहुउपयोगी और आपातकालीन महत्व है। पुराने समय में जब किसी बच्चे की मां गुजर जाती थी तो घर वाले कहते थे कि कोई बात नहीं, घर की दूसरी ‘मां’ (गाय) है ना, वह बच्चे को जिंदा रखेगी और उसे पाल-पोसकर बड़ा कर देगी। इसलिए भी गाय का जिंदा रहना जरूरी है। आज के इंटरनेटी जमाने में गाय के जिंदा रहने का प्रश्न इतना बड़ा नहीं रह गया है। जब इस सवाल पर चर्चा भी होती है तो खट्टर की तरह कट्टर अंदाज में शुरू होकर संकीर्णता के दलदल में गिर कर मजहब के दायरे में बंधकर रह जाती है। इस मसले पर कभी सामाजिक दायरे में चर्चा नहीं होती।

प्राचीन समय से लेकर हाल तक तक गाय हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में काफी अहम रही है। इसीलिए सदियों से गाय हमारे यहां पूजनीय रही है। दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी समाज के लिए गाय से ज्यादा उपयोगी पशु कोई दूसरा नहीं है। गाय एक ऐसा प्राणी है जो जितना खाता है, उससे कई गुना अधिक वापस लौटाता है। यही वजह है कि गोवंश की सेवा और रक्षा सदियों से भारतीय समाज का कर्तव्य और आदर्श रहा है।

भारत में अनेक मतों को मानने वाले लोग रहते हैं। हिंदू बहुसंख्यक हैं। देश का बहुसंख्यक समाज अपनी भावनाओं के सम्मान की अपील कर रहा है, दुहाई दे रहा है। भारत सहिष्णु और सेकुलर परंपराओं में यकीन करने वाला देश रहा है। यहां अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक हिंदू समाज पूरी उदारता और खुले मन से स्वीकार करता है। जरूरी है कि जिस तरह बहुसंख्यक हिंदू समाज दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों की भावनाओं का सम्मान करता है उसी तरह अल्पसंख्यक समुदाय भी उनकी भावनाओं का सम्मान करे। किसी हिंदू ने कभी किसी मुसलमान से आज तक यह तो कहा नहीं कि मांस खाओ ही मत। जो मर्जी वो खाओ, लेकिन यदि इतने बड़े समाज की एक भावना है कि गाय को मत मारो तो उसमें जिद क्यों? इस जिद को हिंदुओं के लिए न सही, देश के हित में छोड़ा जा सकता है। क्या बात-बात पर टकराव बढ़ाना और तलवार भांजना देश के लिए अच्छा होगा? इसमें तो दोनों का नुकसान ही है। जैन समाज तो चींटी भी नहीं मारता, तो क्या उसने कभी किसी से यह कहा कि किसी भी जीव को मारोगे तो वह हमारे धर्म के खिलाफ होगा और हम तुम्हारे खिलाफ मुकदमा करेंगे?

हिंदुत्व के झंडाबरदारों को भी यह गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए कि जो मुसलमान बीफ खाएंगे, उन्हें देश में रहने का हक नहीं है। यह देश जितना हिंदुओं का है, उतना ही मुसलमानों का भी। दुखद यह है कि कुछ लोगों के लिए मजहब या धर्म देश और संविधान से भी बड़ा होता है। बीफ खाने को लेकर मुसलमानों को देश छोड़ देने जैसे बयान निहायत राजनीतिक बेवकूफियां और बचकानी बातें है। जाहिर है, हिंदुओं को खुश करने के लिए ही ऐसे बयान दिए जाते हैं। गाय मूल रूप से गरीबों का जानवर है लेकिन इसके बारे में सबसे ज्यादा शोर वो लोग मचाते हैं जिनका गाय से कोई लेना-देना नहीं होता है। अब तो गाय बचाने के नाम पर कुछ लोग गोरखधंधा भी शुरू कर चुके हैं।

गाय भारतीय ग्रामीण समाज की धरोहर और आपातकालीन पूंजी है। भारत में रहने वाले दूसरे समुदायों को भी समझना होगा कि गाय सिर्फ हिंदुओं की नहीं है, हम सबकी है, पूरे देश की है। गोरक्षा के काम में मुसलमानों को भी बढ़-चढ़कर सहयोग करना चाहिए। गाय का सिर्फ महिमामंडन करने से न तो गाय का भला होने वाला है, न समाज का। गाय को राष्ट्रीय पशु बनाने की मांग करने वालों को समझना होगा कि हमारे राष्ट्रीय पशु शेर और राष्ट्रीय पक्षी मोर की आज क्या हालत है? तो मैं इस मांग को भी महज एक बेवकूफी और सियासी शाबाशी बटोरने का जरिया समझता हूं। हमें पहले समझना होगा कि गाय का भारतीय समाज और पूरी सामाजिक व्यवस्था में क्या स्थान और योगदान रहा है। यह भी एक गलत बात फैलाई गई है कि मुसलमानों के आने के बाद गायों की हत्या शुरू की गई। मुगलों के शासन में भी गोहत्या की छूट नहीं थी। बाबर ने अफगानी लोगों को सलाह दी थी कि गाय का मांस न खाएं। गोहत्या निषेध को लेकर अकबर ने जो नीति बनाई वह मुगल शासन में कायम रही। औरंगजेब ने भी उसे नहीं बदला। यह भी एक भ्रम है कि इस्लाम में गोमांस खाना अनिवार्य बताया गया है। कुरान-शरीफ में गोहत्या का आदेश नहीं है। यदि ऐसा होता तो मुगल-शासन में गोहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं होता।

आज जरूरत है इस मसले को संविधान के दायरे में सभी समुदाय मिल-जुलकर सुलझाएं, गाय पर बेवजह गदर न मचाएं क्योंकि सबसे अहिंसक और सीधी-साधी पशु गाय को यह कभी अच्छा नहीं लगेगा। वैसे भी कोई ‘माता’ अपने बच्चों को खुद के नाम पर लड़ते देखना कभी पसंद नहीं करेगी। मेरा इरादा गाय को लेकर कुछ सच्चाई से रूबरू कराना भर है, किसी की भावना को ठेस पहुंचाना कतई नहीं। किसी को ठेस पहुंचे तो मुझे बेहद अफसोस होगा।


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वरिष्ठ टीवी पत्रकार कुमार सर्वेश का अपनी भूमि चकिया से कसक भरा नाता है। राजधानी में लंबे अरसे से पत्रकारिता कर रहे सर्वेश ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। साहित्य से गहरा लगाव उनकी पत्रकारिता को खुद-ब-खुद संवेदना का नया धरातल दे जाता है।


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