दयाशंकर जी के फेसबुक वॉल से साभार
‘डियर जिंदगी’ को देशभर से पाठकों का स्नेह मिल रहा है. हमें हर दिन नए अनुभव, प्रतिक्रिया मिल रही है। जितना संभव हो हम इन पर संवाद की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा ही एक अनुभव हमें अहमदाबाद से अनामिका शाह का मिला हैष अनामिका लिखती हैं कि उन्हें तीन बुजुर्गों का प्रेम हासिल है। इनमें नानी, दादा और शिक्षिका शामिल हैं। तीनों की उम्र पचहत्तर पार है। तीनों स्वस्थ, सुखी,आनंद में हैं। तीनों में से किसी को बीपी की शिकायत नहीं। डायबिटीज नहीं, तनाव नहीं, चिंता नहीं। तीनों खूब मिलनसार हैं।
अनामिका लिखती हैं कि इन तीनों जैसा परिवार में कोई नहीं।स्वयं उनके पिता, मामा और दूसरे परिजन आए दिन ऐसी चीजों का तनाव लेते रहते हैं, जिन पर अगले दिन हंसने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता।हर दिन चिंता में डूबते-उतराते रहते हैं। इसलिए, सबकी सोच में आज नहीं, कल और परसों के ख्वाब मंडराते रहते हैं, जबकि हमारी बुजुर्ग मंडली सबसे यही कहती है कि ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय और पूत सपूत तो क्यों धन संचय’!
अब थोड़ा ठहरकर अनामिका की बुजुर्ग मंडली के जीवन दर्शन, उसके परिणाम को समझने की कोशिश करते हैं। यह तीनों बुजुर्ग सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से हैं। उनको भी उतनी ही चिंताएं रहीं होंगी, जितनी आज हैं। आजकल अक्सर लोग कहते हैं, जिंदगी पहले जैसी आसान नहीं है! अब बड़ी तगड़ी प्रतिस्पर्धा है।कुछ भी पाना आसान नहीं। यह एक किस्म का धोखा है, भ्रम है, खुद को असलियत से दूर रखने की कोशिश है। समय हमेशा एक जैसा रहता है। पहले जितना मुश्किल, आसान था, अब भी उतना ही मुश्किल, आसान है। तब की गवाही देने के लिए आज का कोई नहीं है, आज की गवाही देने के लिए कल ‘आप’ नहीं रहेंगे। जब आप नहीं होंगे तो उस समय के लोग कहेंगे, अरे! आज जिंदगी कितनी मुश्किल है, पहले का जमाना ही ठीक था!
जिंदगी को सारा अंतर इससे पड़ता है कि आपका चीजों के प्रति नजरिया कैसा है। आपका दृष्टिकोण ही सब कुछ है। इसलिए, उसे सहेजिए, संभालिए। पहले भी जिंदगी आसान नहीं थीं। सुविधाएं कम थीं, संघर्ष कहीं अधिक था। उसके बाद भी क्या कारण था कि हमारी सेहत, जिंदगी में अवसाद, तनाव कम था।यह तो कुछ ऐसा है कि दवा नहीं थी तो दर्द भी नहीं था। दवा घर में आते ही हम बीमार पड़ गए। हमें बुजुर्गों से समझने, सीखने की जरूरत है कि कैसे वह अपने मुश्किल वक्त का सामना करते थे।कैसे वह कोई निर्णय तब करते थे, जब कोई रास्ता नहीं दिखता था। कैसे वह तनाव, रिश्तों की जटिलता से निपटते थे। कैसे कम बजट में हमारी जरूरतें पूरी होती थीं। कैसे वह इच्छा, जरूरत और लालच के अंतर को समझते थे।
यह सब इसलिए भी समझना जरूरी है, क्योंकि हम इनका अंतर भूलकर, जिंदगी के रास्ते से उतरे ही नहीं, बहुत दूर चले गए हैं। हालात यह हो गए हैं कि हमने पैसे कमाना तो सीख लिया, लेकिन जिंदगी जीने के सारे तरीके भुला बैठे हैं! इसीलिए हम खुशहाली के ख्वाब बुनने के फेर में ऐसे लिपटे कि जिंदगी को ‘फूलों की नगरी’ से ‘रेगिस्तान’ बना बैठे।हमें जिंदगी को उसके होने के असली अर्थ तब पहुंचने के लिए खुद के पास जाने की जरूरत है।उनके पास जाने की जरूरत है, जिनसे इसको अर्थ मिलता है।
दयाशंकर। वरिष्ठ पत्रकार। एनडीटीवी ऑनलाइन और जी ऑनलाइन में वरिष्ठ पदों पर संपादकीय भूमिका का निर्वहन। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। आप उनसे ईमेल : [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं। आपने अवसाद के विरुद्ध डियर जिंदगी के नाम से एक अभियान छेड़ रखा है। संपर्क- डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र), वास्मे हाउस, प्लाट नं. 4, सेक्टर 16 A, फिल्म सिटी, नोएडा (यूपी