पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार
जीवन संवाद। दयाशंकर मिश्र की पुस्तक। 5 जनवरी, 2020 की शाम इस पुस्तक के विमोचन समारोह में शरीक होने के लिए घर से निकला, तो कई आकर्षण मेरे जेहन में थे। विमोचन समारोह के आमंत्रण पत्र में दर्ज दो गुरुओं से मिलने की इच्छा बलवती थी। बेटी रिद्धिमा गाड़ी में सवार हुई तो उसने अपने मित्र से संवाद की इच्छा जाहिर की और वो बीच रास्ते ही रूक गई। मेरी अपने मित्र से संवाद की इच्छा हुई तो मैंने फोन मिलाया और भाई संदीप शर्मा को साथ ले लिया। रास्ते में मैंने उन्हें हाल में ही एक रिश्तेदार की ओर से भेजा गया वो ऑडियो/वीडियो सुनाया, जो हमें अपने ‘फुर्सत के पल’ तलाशने और उनके बेहतरीन इस्तेमाल की नसीहत देता है। अपने अजीजों और प्यारों से आमने-सामने की मुलाकातों की अहमियत बताता है। इस बीच मोहन जोशी ने फोन कर देरी के लिए प्यारा सा उलाहना भी दे दिया।
संदीप शर्मा और मैं जीवन के ऐसे ही कुछ संवादों के साथ इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तक पहुंचे। शाम 6.45 बजे जब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के हॉल में दाखिल हुआ तो पोडियम पर दयाशंकर मिश्र का शुरुआती वक्तव्य चल रहा था। इत्मीनान हुआ। खचाखच भरा हॉल और चारों तरफ खड़े लोग। उनमें कई आत्मीय चेहरे। ‘जीवन संवाद’- आयोजन की सार्थकता और गर्मजोशी का एहसास तत्क्षण हो गया।
कार्यक्रम के संचालन का जिम्मा संभाल रहीं वर्तिका नंदा ने इसके बाद शील सैनी को मंच पर बुलाया। शील सैनी यहां एक जीती-जागती ‘केस स्टडी’ के तौर पर मौजूद थीं। बताता चलूं कि पुस्तक ‘जीवन संवाद’ जिस ‘संवाद प्रकाशन’ से प्रकाशित हुई- उसका स्लोगन है- ‘किताबें जिनसे झांक रहा है एक सपना’। शील सैनी को मंच पर देखा तो लगा सपना कुछ यूं ‘हक़ीकत’ में बदल जाता है, जब हाथ में होती है ऐसी किताब- ‘जिनसे झांकती है ज़िंदगी’। दयाशंकर में मैंने टटोला वो लेखक- ‘जो है एक झरोखा, जिनसे देख सकते हैं आप जिंदगी भी और सपने भी।’
कैंसर पीड़िता शील सैनी ने बताया कि कैसे ‘जीवन संवाद’ ने उन्हें जीने का हौसला दिया, खुशियां दीं और एक जज्बा पैदा किया। पोडियम पर जितने देर वो रहीं, उनके चेहरे के भाव बताते रहे कि जो कह रही हूं, उतने पर मत अटकना साथियों। इस खुशी और खिलखिलाहट के पीछे एक पूरा ‘उपन्यास’ है, ‘जीवन संवाद’ तो बस झलक भर है।
‘डियर ज़िंदगी’। एक उपमा भर नहीं है। सूत्र है जोड़ने का। दयाशंकर ने पुष्पेंद्र पाल सिंह को अपनी ‘डियर ज़िंदगी’ कहा तो पुष्पेंद्र पाल सिंह ने उसको नया विस्तार दे दिया- “मेरी डियर ज़िंदगी मेरे वो तमाम छात्र हैं, जो वक्त के साथ मेरे मित्र बन गए हैं। कभी मैं उनसे प्रेरणा लेता हूं, कभी सलाह लेता हूं और कभी उनसे जीवन की समझ।” पुष्पेंद्र पाल सिंह ने कहा कि ‘स्वानत: सुखाय’ की बजाय परिवर्तन की आकांक्षा के साथ लिखी गई पुस्तक है ‘जीवन संवाद’। समुद्र किनारे खड़े व्यक्ति की तरह जल धारा से रेत पर छूटी मछलियों को वापस जीवन देने की ‘अपने हिस्से की तड़प’ है पुस्तक।
‘ऑपरेशन स्माइल’ के जरिए अपनी पहचान बना चुके आईपीएस अधिकारी धर्मेंद्र सिंह का मंच पर होना एक और सुखद पहलू रहा। उन्होंने भारतीय और पश्चिमी साहित्य से तमाम उदाहरण पेश किए और ‘आत्महंता’ प्रवृत्ति की शाश्वत प्रकृति की ओर संकेत किया। धर्मेंद्र सिंह ने बताया कि ‘दुख’ जीवन में जरूरी है। उन्होंने विषाद और अवसाद का फर्क समझाया। उन्होंने कहा कि जब दूसरों की पीड़ा से आप पीड़ित हों, तो ये दुख अच्छा है। ऐसी अवस्था में ही मनुष्य बदलाव की कोशिशें करता हैं।
कार्यक्रम कुछ यूं बुना गया कि जीवन का संवाद चलता रहा। इसी दौरान कुछ ऐसे लोगों के नाम की उद्घोषणा की गई, जो ‘जीवन संवाद’ पुस्तक के विमोचन में शरीक होने मात्र के लिए अलग-अलग शहरों से आए थे। वो उन घनिष्ठ मित्रों की सूची से इतर थे, जिन्हें लेखक के ‘निजी न्योते’ पर आना ही था। आंकड़ों की जुबानी पुष्पेंद्र पाल सिंह ने जिन कुछ पाठकों का जिक्र किया था, ये लेखक के लिए विशेष सुख का विषय होना चाहिए कि उनमें से कुछ हॉल में मौजूद थे।
सवाल-जवाब के आखिरी दौर से पहले हिन्दी के प्रख्यात आलोचक, कवि और साहित्यकार डॉ विजय बहादुर सिंह की अध्यक्षीय टिप्पणी। करीब दो दशक बाद ऐसा लगा मानो फिर से विजय बहादुर सिंह की क्लास में पहुंच गया मैं। वही शैली, वही चुटीला अंदाज और वही हंसी-ठहाकों के बीच गूढ से गूढतम टिप्पणी। उन्होंने संतोष जताया कि शिक्षण के पेशे के दौरान ‘उजा़ड़ रेगिस्तान’ में उनकी क्लास में ‘किसी’ टाइप के छात्रों की बजाय ऐसे छात्र नसीब हुए, जिन्हें देख उनका मन प्रसन्न हो उठता है। उन्होंने सवाल किया कि आखिर पूरी ‘बीमार चेतना’ का बखान करने वाले लेखन पर ‘चिंता’ की जरूरत है या फिर ‘जरूरत से ज्यादा प्रशंसा’ की।
विजय बहादुर सिंह ने कहा कि जो ‘अन-प्रोडक्टिव’ लोग हैं, उन्हीं में सबसे ज्यादा निराशा और अवसाद नजर आता है। फुटपाथ पर मेहनत करने वाला, खेतों में जान झोंकने वाला किसान उतने अवसाद में नहीं होता, जितना आप और हम। महाभारत में अर्जुन अवसाद में आए तो कृष्ण उनके चिकित्सक बनकर खड़े हो गए। चेतना के इलाज का कोई शास्त्र हो तो पुस्तक को उस श्रेणी या खांचे में डाला जाना चाहिए। एक गुरु की भांति दयाशंकर मिश्र को उन्होंने ताकीद भी की- किसी ‘मुगालते’ का शिकार होने की बजाय वो अपनी ‘साधना’ को जारी रखें। दयाशंकर ने जो जिंदगी देखी है, उससे कहीं ज्यादा जिंदगी देखनी बाकी है। इसलिए वो जिंदगी को समझने की कोशिश करते रहें। इस समाज को एक नहीं हजार-हजार ‘दयाशंकर’ की जरूरत है।
‘जीवन संवाद’ की दो प्रतियां खरीदीं। एक मित्र को गिफ्ट की। दूसरी प्रति पर गुरु विजय बहादुर सिंह ने आशीर्वाद के दो लफ़्ज़ लिखे। उन्होंने कहा- आज लेखक से लिखवाओ… पर मैंने कहा- गुरु जब मौजूद हैं तो वो ही ज्यादा मुफीद हैं। ‘जीवन-संवाद’ की ये शाम कुछ यूं बहुत सी यादों के साथ मेरी स्मृतियों में दर्ज हो गई।