दरमा घाटी के वाशिंदों का जीवन बेहद संघर्ष भरा होता है । जिस तरह जम्मू-कश्मीर में ठंड के दिनों में राजधानी श्रीनगर से जम्मू शिफ्ट हो जाती है उसी तरह दरमा घाटी के लोग भी ठंड के मौसम में नवंबर से अप्रैल तक अपना घरबार छोड़कर धारचूला, जौलजीवी जैसे मैदानी गांवों में अपना बसेरा बनाते हैं । यानी जब तापमान में गर्माहट आने लगती है तो ये लोग एक बार फिर अपने घर की ओर लौटते हैं । लेकिन गांव छोड़ने से पहले अपना सामान ये लोग कैसे समेटते और उसको संरक्षित करने का इनका तरीका भी काफी अनोखा होता है । विनोद कापड़ी और अशोक पांडे जब मई के पहले हफ्ते में दरमा घाटी पहुंचे तो एक्का-दुक्का परिवार घर वापसी कर रहा था । बदलाव पर पढ़िए अशोक पांडे की जुबानी दरमा घाटी की कहानी ।
दरमा घाटी की सैर पार्ट-3
अगले साल वापस आने की मंशा ले कर जो भी परिवार दरमा घाटी से नीचे उतरते हैं, वे जाने से पहले आलू, मूली और अन्य खाद्य पदार्थों को गड्ढों में दबा कर जाते हैं ताकि घर लौटने पर तब तक पर्याप्त खाना उपलब्ध रहे जब तक कि खेत तैयार ना हो जाएं और उनमें नई फसल उगे। व्यांस, चौंदास और दरमा घाटियों में लोगों के ग्रीष्मकालीन घर होते हैं। अक्टूबर-नवम्बर के आने पर इन्हें धारचूला और उसके आसपास के अपने शीतकालीन घरों की तरफ जाना होता है क्योंकि उन सर्द महीनों में घाटियों में नहीं रहा जा सकता। तकनीकी रूप से रँग समाज को अर्ध-घुमंतू कहा जा सकता है। गर्मियों में यानी मई-जून में वापस अपने गांव जाने वाले लोगों की संख्या पिछले दशकों में बहुत कम हुई है।
दरमा घाटी के बालिंग गांव में पहुंचे तो धारचूला से एक दिन पहले वापस लौटा एक परिवार ऐसे ही एक गड्ढे से आलू-मूली खोद रहा था। घर की माता काफ़ी सारा काम कर चुकी थी। दो-एक बच्चे लगातार मदद कर रहे थे। एक बहुत छोटी बच्ची टुकुर-टुकुर सब कुछ निहारे रही थी, दो खिलौना कुत्ते अपनी ड्यूटी निभाने का भरसक जतन कर रहे थे, याक प्रजाति के झुप्पू बैलों की जोड़ी हल में जुती हुई थी, दूर आसमान की नीली रंगत से बर्फदार पहाड़ झाँक रहे थे। काम निबटने को आया तो बच्चों ने खेलना भी शुरू कर दिया। यहाँ सदियों के परिश्रम से साधे गए जीवन की मदद से उगाई हुई निखालिस मानवीय खुशबू थी। आसमान से सूरज देखता था। मनुष्य की विजय की गवाही देता। ये उसी जिद्दी कलाकार के चहेते रंग और जन थे । वान गॉग होता तो हमेशा के लिए बालिंग गांव में बस जाता।
दरमा घाटी से लौटते हुए केसरसिंह जी के गाँव जाने का कार्यक्रम पहले से तय था। उनसे पहली मुलाक़ात इसी साल मार्च में हुई थी । मुन्स्यारी के ऐन सामने पंचचूली के उत्तुंग शिखरों की तलहटी में बसे गोरीपार के दुर्गम इलाक़े में स्थित है केसरसिंह बोथियाल का बोथी गांव ।सड़क इसी साल गांव तक पहुंची है। अलबत्ता उसका हाल बहुत ख़राब है। गाड़ी चलाकर वहां पहुंचना बहुत मुश्किल है और जान लगातार जोखिम में बनी रहती है। घाटी के पहले ही गांव बसन्तकोट तक पहुँचते-पहुँचते समझ में आ जाता है कि उसके आगे नहीं जाया जा सकता।
बसन्तकोट के पूर्व प्रधान प्रयागसिंह पालीवाल जी और उनके चाचा सुन्दरसिंह पालीवाल जी आगे की यात्रा के हमारे गाइड बन जाते हैं। ख़राब मौसम में एक बेहद तीखी और मुश्किल पहाड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। केसरसिंह जी हमसे मिलने गांव के नन्दादेवी मन्दिर परिसर के नीचे सड़क पर प्रतीक्षारत दिखे । उन तक हमारे आने का संदेशा पहले ही पहुंच चुका था । उनके पास हमारे लिए एक सरप्राइज़ भी है। वे अपनी अस्सी साल की दुल्हन को भी साथ ले कर आए हैं।
बेहद भावुक कर देने वाली मुलाक़ात । आत्मा को भिगो देने वाला मिलन । वे बार बार मेरा हाथ थामते हैं और आख़िर में अपनी गीली और सच्ची आवाज़ से रुला देते हैं – “मेरा सबसे बड़ा बेटा मर गया रहा कई बरस पहले। मुझे क्या मालूम था वो इस शक्ल में वापस लौट कर आएगा!” जीवन अपने मायनों के निशान जहां-तहां छोड़ता चलता है। अपने अस्तित्व की पहचान और जीवन के प्रति अपनी जवाबदेही साबित करने के लिए हमें बार-बार उन निशानों तक वापस लौटना होता है।