चमकी की मार से उबर चुके बच्चों को जीवनभर सता सकता है ये बुखार

चमकी की मार से उबर चुके बच्चों को जीवनभर सता सकता है ये बुखार

फाइल फोटो

पुष्यमित्र

मानसून की पहली बारिश होते ही बिहार में पिछले 20 दिनों से जारी चमकी बुखार का प्रकोप कुछ कम हुआ है। बीते चौबीस घंटे में मुजफ्फरपुर के एसकेएमसीएच अस्पताल में सिर्फ छह नये मरीज भर्ती हुए हैं।मरने वाले बच्चों की संख्या में भी कमी दर्ज हुई है। इस वर्ष मानसून सीजन से पहले चमकी बुखार के प्रकोप ने मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, पूर्वी चंपारण, शिवहर, समस्तीपुर और वैशाली जिले के गरीब और कुपोषित बच्चों पर जानलेवा कहर बरपाया है। अब तक 525 बच्चे चमकी बुखार से पीड़ित हुए हैं, जिनमें 175 की मौत हो चुकी है। जिन बच्चों की मौत हो गयी, वो तो दुर्भाग्यशाली थे ही, लेकिन जो 350 बच्चे बच गये उनमें से भी कुछ बच्चे ऐसे हो सकते हैं जिन्हें ताउम्र विपरीत परिस्थितियों में जीना पड़ सकता है। इस बात का संकेत एक शोध के जरिए मिलता है। पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल (पीएमसीएच) में चमकी बुखार के प्रकोप वाले 104 बच्चों पर 2017 में अध्ययन और शोध किया गया था। भर्ती करने से लेकर डिस्चार्ज किए जाने तक इन बच्चों के विविध चिकित्सकीय परीक्षण और परिणाम पर अधारित यह शोध बताता है कि चमकी बुखार में ठीक हो जाने वाले कुछ बच्चों को भी तंत्रिका तंत्र संबंधी बीमारी का सामना करना पड़ सकता है।

साल 2017 में पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल (पीएमसीएच) के डॉक्टर कौशलेंद्र कुमार सिंह और डॉक्टर विनोद कुमार सिंह ने इस संबंध में चिकित्सकीय शोध किया था। यह शोध 2018 में इंटरनेशनल जरनल ऑफ मेडिकल एंड हेल्थ रिसर्च में प्रकाशित हुआ। इस शोध का नतीजा बताता है कि 104 बच्चों में कुल 8 बच्चों को उनके अभिभावक चिकित्सकीय सलाह के विपरीत इलाज के दौरान ही अस्पताल से ले गए। वहीं, कुल 96 बच्चों में 55 बच्चे यानी 57.29 फीसदी बच्चे पूरी तरह रिकवर हुए। जबकि 18 बच्चे यानी 18.75 फीसदी बच्चों की मौत हो गई। वहीं, 23 बच्चे यानी 23.95 फीसदी बच्चे ऐसे थे जिन्हें इलाज के दौरान बचा लिया गया लेकिन उनमें तंत्रिका तंत्र संबंधी बीमारी के प्रभावित होने या चमकी बुखार के दुष्परिणाम बाद में दिखाई पड़ सकते हैं। शोध के मुताबिक कुल 104 बच्चों में 10 (9.61 फीसदी) बच्चों में जापानी इंसेफ्लाइटिस का विषाणु पाया गया। जबकि 8 बच्चों (7.6 फीसदी) में एंट्रोवायरस और 6 बच्चों (5.67 फीसदी) बच्चों में हर्पस सिंप्लेक्स व 3.8 फीसदी मामलों में स्क्रब टाइफस भी पाया गया था।

जिन 104 बच्चों का पीएमसीएच में भर्ती होने के दौरान स्वास्थ्य परीक्षण किया गया उनमें कुछ विशिष्ट तो कुछ सामान्य लक्षण सभी में पाए गए। 104 बच्चों में (100 फीसदी) तपेदिक और 38.46 फीसदी बच्चे सिर दर्द, 28.84 फीसदी बच्चे भ्रम व 14.42 फीसदी बच्चे कोमा और 28.84 फीसदी बच्चों को उल्टी और 53.84 फीसदी बच्चे सीजर व 38.46 फीसदी बच्चे फोकल सीजर साथ ही 14.42 फीसदी बच्चों में छोटी सांस या दम फूलने जैसे लक्षण मिले। इस बार एसकेएमसीएच से 350 बच्चे अस्पताल से इलाज करा कर अपने घर लौटे हैं। इनमें भी ज्यादातर बच्चों में यह समस्या थी। बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की भी है, जो पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं और इनमें से कई बच्चों को तंत्रिका-तंत्र संबंधी बीमारी से जूझना पड़ सकता है। यूनिसेफ के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ हुबे अली कहते हैं कि इलाज के बाद भी किसी बीमारी से जूझते रहने वाले बच्चों को लक्ष्य कर उन्हें मदद देने की अभी कोई योजना हमारे पास नहीं है। राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के नाम से केंद्र सरकार की एक योजना है जिसके तहत तंत्रिका-तंत्र या दिमागी रूप से पीड़ित बच्चों को सहायता दी जाती है।

राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरकेएसके) के बारे में पता करने पर मालूम होता है कि इसके तहत उन तमाम किशोरों को स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही गयी है, जो कुपोषण, एनीमिया समेत दूसरी परेशानियों के शिकार होते हैं, उनमें मानसिक विकार भी एक हिस्सा है। राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 2011 से अब तक बिहार में 5047 बच्चे मस्तिष्क ज्वर के शिकार हो चुके हैं। साभार- downtoearth.org.in

पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। प्रभात खबर की संपादकीय टीम से इस्तीफा देकर इन दिनों बिहार में स्वतंत्र पत्रकारिता  करने में मशगुल