
बुलडोज़र आया था,
हुक्म की मोहर थी,
ईंटों से बिछी यादों पर
सरकारी लकीर खिंच गई थी।
धूल थी, शोर था,
टूटते घर की चीख़ थी,
पर उसके अंदर
कुछ नहीं टूटा था।
वो भागी—
टूटती छत के नीचे से,
बिखरती दीवारों के पार,
सीने से चिपटाए कुछ किताबें…
ये सिर्फ़ पन्ने नहीं थे,
इनमें उसकी आँखों के सपने थे,
जो मलबे में दबने नहीं वाले थे,
जो किसी हुक्म के मोहताज नहीं थे।
बुलडोज़र उसकी दुनिया
तोड़ सकता था,
पर उसके सपनों को नहीं—
क्योंकि सपने किसी
ज़मीन के नहीं होते,
वे उड़ते हैं…
और उड़ना…..
“हुक्मरानों की क़ैद”से
बाहर होता है।
“राणा अमर”
