पीयूष बबेले
90 के दशक का वह दौर जब एक बच्चे ने दलितों की जिजीविषा को राजनैतिक आंदोलन का रूप लेते देखा। घर से दफ्तर के लिए निकला तो सड़क पर तने होर्डिंगों पर फिर निगाह गई। कुछ में मोदी अमित-शाह परिवर्तन का नारा लगा रहे थे तो बाकी में राहुल-अखिलेश ’यूपी को ये साथ पसंद है’ का दावा कर रहे थे, लेकिन बहुजन समाज पार्टी का वो हाथी कहीं नजर नहीं आ रहा था, जिसका नुमाइंदा पिछले दो बार से गाजियाबाद जिले की इस साहिबाबाद विधानसभा सीट से चुना जाता रहा है। होर्डिंगों के साथ यह हाथी टीवी के विज्ञापनों और मोबाइल पर जबरन आने वाले फोन कॉल्स से भी गायब था। वो कहीं से आप तक आता हुआ नहीं दिखता, जबकि सब जानते हैं कि वह यूपी की हर सीट पर पिछले 10 साल में बहुत तगड़े ढंग से चलता आ रहा है। इस बार भी गली-गली में उसके चर्चे हैं, इस अदृश्य हाथी की धमक हर सियासी पार्टी का ब्लड प्रेशर बढ़ाती रहती है।
कहानी बसपा की (भाग-1)
हाथी की यह लीला दिमाग को बचपन के उन दिनों में ले गई जब 1990 के दशक में पहली-पहली बार समथर के कच्चे-पक्के घरों पर नीले रंग से बना हाथी चुनाव-चिन्ह देखते थे। 10-12 साल की उम्र में मैं यह तो नहीं जानता था कि इस पार्टी को कौन चला रहा है और वाकई यह पार्टी कैसी होगी। बस इतना अंदाजा लगता था कि समाज के कमजोर तबके के लोग अब अपनी कोई पार्टी बनाने में जुटे हैं। इस तबके से जुड़े लोगों से सुना करता था कि अंबेडकर जी ने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन देश में दलितों की पार्टी उभरेगी और राज करेगी। मैले-कुचैले कपड़ों वाले ये मेहनतकश लोग बताते थे कि अब उस भविष्यवाणी के सच होने का समय आ गया है। मुझे आज तक नहीं पता कि डॉ अंबेडकर ने वाकई इस तरह की भविष्यवाणी की थी या नहीं। या कहा भी था तो उसका अंदाज क्या था? बहरहाल जल्द ही शेल्फ में रखा अंबेडकर वांग्मय इस बारे में तथ्य सामने रख देगा।
कुछ तथ्य बहुत साफ और मोटे अक्षरों में उन दिनों समथर के कच्चे-घरों की दीवारों पर दिखते थे। मोटी इबारत में मान्यवर कांशीराम का नाम लिखा होता था। नारा था- ‘कांशीराम तेरी नेक कमाई, तूने सोती कौम जगाई।’ कुछ दीवारों पर नारा होता था, “आरक्षण से लेंगे एसपी-डीएम, वोट से लेंगे सीएम-पीएम।” तब का तो नहीं पता लेकिन अब लगता है कि यह महज नारा नहीं था।
अब वे सारी कवायदें किसी इतिहास या खामोश आंदोलन की तरह नजर आती हैं, जो छुटपन में कुछ-कुछ रहस्यमयी लगती थीं। कुशवाहा डॉक्टर, प्रजापति मास्साब, स्कूल के कुछ चपरासी, कारीगर मुहल्ले के लोग, गधा और भेड़ पालने वाली जातियों के कितने ही पड़ोसी दिन भर अपने-अपने काम में लगे रहते थे। उनकी दिन की जिंदगी एकदम सामान्य दिखती थी लेकिन रात को ये लोग अक्सर छोटी-छोटी बैठकें करते थे। इन मुलाकातों में वे एकजुट और बदले हुए होते होंगे और उन्हें भविष्य की संभावनाएं दिखती होंगी। ये लोग अपने समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक एकजुटता का संदेश भेजते। अपनी थोड़ी सी लेकिन मेहनत की कमाई का कुछ हिस्सा चंदे के रूप में जमा करते। वे इस बनती हुई पार्टी से कुछ मांग नहीं रहे थे, उसे देने के लिए संघर्ष कर रहे थे।
बाकी लोग सुबह खुसर-फुसर करते कि देखो अब ये लोग अलग से अपनी पार्टी बनाएंगे। दो चार लोगों के सरकारी नौकरी में पहुंच जाने से इनके मन बढ़ गए हैं। ये अकेले दम पर राज करने की सोचने लगे हैं, लेकिन रात की सभा के लोग मुंह अंधेरे फिर अपने-अपने काम में लग जाते थे। ऐसे मौके भी आए जब रात की मीटिंग वाले लोग सुबह हममें से किसी से बात करते-करते, एकदम से दूर चले जाते और आपस में कुछ कानाफुसी करके वापस आ जाते। जब वे वापस आ रहे होते तो उनके चेहरे पर कुछ छिपाने से पैदा होने वाली मुस्कान तैर जाती।
इन बैठकों में क्या होता था, वह ठीक-ठीक तो मुझे आज तक नहीं पता, लेकिन शायद जल्द ही समाज में जो बदलाव दिखे, उनके पीछे इनका भी हाथ रहा हो। कुशवाहा समाज ने फैसला किया कि अब उनके लोग सिर पर डलिया रखकर सब्जी बेचने नहीं जाएंगे। मरे पशु का चमड़ा उतारने वाले जाटव/अहिरवार समाज ने चमड़ा उतारने से मना कर दिया और भी कई जातियों ने अपने पारंपरिक रोजगार पारंपरिक ढंग से करने से मना कर दिया, लेकिन इस मनाही की सूचना किसी अखबार में नहीं छपी। बस, वह तो बातों ही बातों में सामने आने लगी। सरकारी नौकरियों में मौजूद इस वंचित वर्ग के छोटे-छोटे मुलाजिम देखते ही देखते, इस वर्ग के स्थानीय अगुवा बन गए। कुछ और तरह की खबरें भी सुनने में आने लगीं। पहली यह कि कुछ जातियों ने पंडितों से शादियां पढ़वानी बंद कर दीं। पंडित की जगह समाज का ही कोई पढ़ा-लिखा लडक़ा ये काम करने लगा। एक किस्सा और सुनने में आया। पता नहीं वह सच था या जानबूझकर गढ़ा गया था, लेकिन उन दिनों उस छोटे से कस्बे में उसकी चर्चा थी। कहा यह जा रहा था कि इसी तरह की एक शादी में पंडित को बुलाया तो गया लेकिन शादी के बाद उससे कहा गया कि वह वर-वधु के पांव छुए। कुछ लोग कहते थे कि पंडित को पांव छूने के लिए मजबूर किया गया, तो कुछ कहते थे कि वह किसी तरह जान छुड़ाकर भागा, लेकिन इस तरह के किस्से समाजिक चेतना पर अपनी-अपनी तरह असर तो डाल ही रहे थे।
धीरे-धीरे थोड़ी बड़ी कक्षाओं में हमारे सरकारी स्कूल में भी इसका असर दिखने लगा। दलित समुदाय के बच्चे तो हाईस्कूल तक कम ही पहुंच पाते थे, कम आबादी वाली पिछड़ी जातियों के दोस्त ही यहां तक पहुंच पाते थे। यहां बहुजन की नुमाइंदगी यही लोग करते थे। हमारे लिए राजनैतिक पार्टियां राजनैतिक विकल्प थे, लेकिन उनके लिए बीएसपी इज्जत से जीने का सपना थी। गांधी और अंबेडकर की चर्चा पर वे अक्सर उग्र हो जाते थे। वो तो मैं अब जाकर जाना कि दोनों ही नेताओं के बारे में दोनों पक्षों को कुछ खास पता नहीं था, बस वे तो अपने-अपने मिथकों की लड़ाई कराते थे। यहां आते-आते बसपा सपा के साथ मिलकर एक चुनाव लड़ चुकी थी और पहली बार राजनैतिक ताकत के रूप में नजर आने लगी थी। इस मोड़ पर बसपा आगे की राह देख रही थी, जबकि उसके विरोधियों को भरोसा था कि सफर बहुत लंबा नहीं होगा। लेकिन असली चाबी उन लोगों के हाथ में थी जो दिन में मेहनत और रात में बैठकें करते थे और जो अपने खून-पसीने की कमाई से एक रक्तहीन क्रांति पैदा कर रहे थे। यहां तक के सफर का सबसे बड़ा हासिल यह था कि अब दलितों के लिए सार्वजनिक रूप से जातिसूचतक शब्दों की हिम्मत कम ही लोगों की पड़ती थी। सार्वजनिक जीवन में उठने-बैठने के तरीकों में भी बदलाव साफ नजर आने लगा था। कांशीराम की नेक कमाई असर दिखा रही थी। एक बड़ा वर्ग उससे चेतना पा रहा था और दूसरा बड़ा वर्ग उसे बड़े कौतुहल से देख रहा था।
पीयुष बवेले। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। संप्रति इंडिया टुडे में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी।
पीयुष बवेले जी , तस्वीर का यह एक पहलू हैः काश !किसी दलितबहुल वस्ती में देखते कि एक गरीब दलित अपनी ही स्वजातीय अमीर दलित से किसतरह पीडित और प्रताडित हो रहा है।