पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार
पूर्णिया जब भी जाता, भोला नाथ आलोक से मिलने जाता, नहीं मिल पाता तो अफ़सोस रहता, जैसे कुछ छूट गया हो. अब ये आस हमेशा के लिए ख़त्म हो गई. बैठने-उठने और कुछ वक़्त सकारात्मक ऊर्जा के साथ गुज़ारने का एक ठिया ख़त्म हो गया. भोलानाथ आलोक, जिन्हें मैं दादा कहा करता था, अब कभी उनका फ़ोन नहीं आएगा. महीने -दो महीने में एक बार तो उनका फ़ोन आ ही जाता था. कैसे हो- पोता मैं दादा बोल रहा हूँ. अनमोल को वो अपना दादा कहते. बोलते मेरा दादा कैसा है.
भोलानाथ आलोक साहित्यकार, समाजसेवी, एक्टिविस्ट, बुजुर्ग समाज के नेता, मज़दूरों-किसानों के नेता कई सारी उपमाओं का बोझ अपने कंधे पर लिए चलते. परिवार, समाज और निजी रचनात्मकता का अद्भुत तालमेल बैठाने की कोशिश में जुटे रहते. ज़िंदगी के नौ दशक का अनुभव समेटे एक शख़्सियत ऐसी थी, जिसके पास आप होते तो अच्छा लगता. केवल वैचारिकी के बूते रिश्ते नहीं बनाते थे, एक आत्मीयता से सराबोर गर्मजोशी दिखाते. आईने में आलोक की परिकल्पना गोविंद जी ने बनाई तो एक आलेख मैंने भी लिखा. तब भी बड़ी मुश्किल आई थी, क्या लिखें? आज जब दादा साथ नहीं है तो भी एक मुश्किल है, उनके बारे में क्या लिखें, क्या बोलें?
कॉलेज के दिनों से भोलानाथ आलोक के घर जाने का सिलसिला शुरू हुआ. ऐसी कई मुलाक़ातों में पूर्णिया कॉलेज के प्रोफ़ेसर डॉ. शंभु कुशाग्र साथ रहते. कई बार मोना, राजीव राज, गोविंदजी के साथ उनके यहाँ जाना हुआ. घर और आँगन में एक गाँव बसा नज़र आता. कोई दरवाज़े पर आता तो दादा उतावले हो जाते. चाय-नाश्ता करा कर ही वापस भेजने की ज़िद करते. कई बार उनके घर गाछ के पके आमों का स्वाद लिया. जो आज फिर से ज़ुबान तक आ रहा है.
भोलानाथ आलोक के साथ विनय तरुण स्मृति आयोजन का भी एक नाता रहा है. अगस्त 2010 में जब हमने ये सिलसिला शुरू किया तो भोलानाथ आलोक ने आयोजन में शिरकत की. तब उनकी उम्र अस्सी के क़रीब थी. ज़िद कर ली और 2011 में पूर्णिया में विनय स्मृति आयोजन का पूरा ज़िम्मा उठा लिया. उन्होंने हमें सिखाया कि जो आप सोचते हैं, उसे ज़मीन पर उतारने का संकल्प भी होना चाहिए.
ऐसे ही कई बार वो बढ़ती उम्र के बावजूद साहित्यिक आयोजनों में शिरकत करने कोसी के अलग-अलग गाँवों में पहुँच जाते. कभी श्रवण कुमार का पट्टा लिये युवाओं को बुजुर्गों की सेवा का संदेश देते, कभी पत्रकारों के बीच पहुँच जाया करते. छोटी-छोटी ऐसी कई सारी कल्पनाएँ उनके ज़ेहन में चलती. बुजुर्ग समाज का संगठन चलाते. कचहरी के पास एक झोपड़ीनुमा दफ़्तर में शाम होते-होते रिक्शे पर बैठे भोलानाथ आलोक आ धमकते. कई बार कचहरी के बाहर धरनास्थल पर उनको देखा. ऐसी ही कई तस्वीरें हैं, जो आँखों के सामने आ जा रही हैं.
कुछ दिनों से सेहत ठीक नहीं थी. कई बार अस्पताल में गए और लौट आए. जब भी फ़ोन पर बात होती कहते- पूरा ज़िंदादिली के साथ जी रहा हूँ पोता. मौत से पहले मरने का तो सवाल ही नहीं. गोविंद जी ने जब हाल में तस्वीर शेयर की तो दादा की हालत देखकर कष्ट हुआ. लगा इस पंछी की आज़ादी से ही ज़िंदादिली का नया दौर शुरू होगा. वो पंछी उड़ चला है, आसमान की ओर. शायद जिंदादिलों की एक और बस्ती बसाने किसी और जहां में. नमन. शत-शत नमन.
– पशुपति शर्मा (25 जून 2022, उदयपुर, राजस्थान से)