ब्रह्मानंद ठाकुर
जहां तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सिरे से नकारते हुए अंधविश्वास, कूपमंडूकता और अतार्किक मानसिकता को बढावा देकर आर्थिक और सामाजिक विषमता की खाई चौड़ी करने में ही शासक पूंजीपति वर्ग का स्वार्थ निहित हो तो वहां धर्मनिरपेक्ष , वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में बड़ी बाधा उत्पन्न हो ही जाती है। मैं यहां महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव की घटना की पृष्ठभूमि में बात कर रहा हूं। महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में अछूत माने जाने वाले दलितों की पेशवा बाजीराव द्वितीय पर विजय की द्विशताब्दी वर्ष पर समारोह मनाने के लिए एकत्र हुए थे। इन पर कट्टर हिन्दुत्ववादी ताकतों ने बर्बर हमला कर दिया। इस घटना में एक युवक मारा गया। वह मराठी था।
आज से दो सौ साल पहले महाराष्ट्र के दलितों ने उच्च जाति वालों पर अपनी जीत दर्ज की थी। वह तारीख 1 जनवरी 1818 थी। अछूत माने जाने वाले 834 महार जाति के लड़ाकों ने पेशवा की 20 हजार घुडसवार और 5 हजार पैदल सेना को धूल चटाते हुए विजय हासिल की थी। इस युद्ध मे जो 49 लोग मारे गये थे , उसमें 27 महार जाति के थे। तब से हर साल ये लोग इस तिथि को भीमा नदी के किनारे कोरेगांव मे शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित कर विजय दिवस मनाते आ रहे हैं। इस बार महाराष्ट्र के दलितों की पेशवा पर जीत का यह दो सो साला जश्न था। इसमें दलित, अल्पसंख्यक समेत अन्य जाति के करीब चार लाख लोग जमा हुए थे।
कट्टर हिन्दुत्ववादी ताकतों को उनका यह एका बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्हें लगा कि इस नाम पर महाराष्ट्र के किसान मजदूर यदि एक हो गये तो उनका वर्गस्वार्थ खतरे में पड़ जाएगा। ऐसा इसलिए भी कि वहां के बहुसंख्यक किसान, मजदूर और दलित देवेन्द्र फडनवीस सरकार का विरोध करते रहे हैं। यही कारण था कि कट्टर हिन्दुत्वादी ताकतों ने सुनियोजित तरीके से उनपर हमला कर दिया। यह कोई नई घटना नहीं है। महाराष्ट्र में अछूतों पर अत्याचार काफी पहले से जारी है। पेशवाओं के कार्यकाल में महाराष्ट्र पूरी तरह जात-पात , छुआ- छूत, वर्णभेद और अंधविश्वास और अशिक्षा की गिरफ्त में था। अछूतों को सार्वजनिक स्थान से पानी भरने और पीने तक का अधिकार नहीं था। जब वे सड़क पर चलते तो उनको कमर में झाडू बांध कर और गले में मिट्टी का वर्तन टांग कर चलना होता था। ऐसा इसलिए कि सड़क पर चलने के दौरान उनके पैरों के निशान वहां दिखाई नहीं दें। चलने का निशान उन्हें उसी झाडू से मिटाना पड़ता था और जब वे थूकते तो गले में बंधे उसी मिट्टी के बर्तन में।
अछूतों की बस्तियां गांव के बाहर हुआ करतीं थी। सवर्णों से प्रताड़ित इन अछूतों मे पहली बार शिक्षा का अलख जगाने का काम सावित्रीबाई फूले ने किया , पहली जनवरी 1848 को पूना शहर के भिडेवाड़ा में लड़कियों का स्कूल खोल कर। इस कार्य में भी उन्हे कम बाधाएं नहीं झेलनी पड़ीं। ऊंची जाति वालों द्वारा उन्हें समाज से बहिष्कृत करने की धमकी दी गई। लोग उन्हें गालियां देते, धर्म भ्रष्ट करने वाली कहते। और तो और स्कूल जाते समय उनपर कीचड़, गोबर और पत्थर फेंके जाते। साबित्रीबाई यह सब कुछ सहते हुए अपना काम करती रहीं। वे अपने साथ अतिरिक्त साड़ी रखती थीं। जब उनकी साड़ी पर गोबर और कीचड़ फेंक कर खराब कर दिया जाता तो स्कूल पहुंचने पर वे उसे बदल लिया करतीं और बच्चियों को पढाने में लग जातीं। वे यह सब सहती रहीं । अंतिम जीत उनकी ही हुई। अछूतों के प्रति सवर्णों का यह व्यवहार मध्यकालीन सामंती सोच का नतीजा था जो धीरे- धीरे उग्ररुप धारण कर चुका था।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।
Shirish Khare- अव्वल तो 1 जनवरी को कोरेगांव में सिर्फ दलित ही नहीं मराठा सहित कई जातियों के लोग वर्षों से पेशवाओं यानी चितपावन ब्राह्मणों की सत्ता के खिलाफ लड़े और जीते महार सैनिकों का अभिवादन करते जाते रहे हैं। लेकिन, दलितों को अलग-थलग दिखाने के लिए बार-बार दलित जाति शब्द को टारगेट किया जा रहा है। पेशवाई से शोषित जातियों के लिए इससे मुक्ति एक आजादी की तरह है। फिर भी ब्राह्मणवादी और इसके प्रभाव में आने वाली सवर्ण जातियों के लेखक-पत्रकार बेवजह मराठा बनाम दलित की लड़ाई बता रहे हैं। इन्हें नहीं पता की शिवाजी के वंशजों को किसने मारा। मराठा राजाओं को छल से किसने बंधक बनाया था। आखिर वंचित जातियों को न इतिहास में और न ही हकीकत में कोई जमीन नहीं दी गई है तो इनकी अस्मिता, स्वाभिमान और पहचान से जुड़े प्रतीक को सकारात्मक तरीके से लेने में ब्राह्मणवादियों और इन्हीं के प्रभाव के लिए पैदा किये गए सामंतवादियों को दिक्कत क्या है!
Vijay Prakash- इंसानियत लुप्त होती जा रही है
200 साल पहले यह युद्ध अंग्रेज जीते थे और जिन लोगों ने अंग्रेजो का साथ दिया वो देशद्रोही थे।
इस दिन पर उत्सव मनाने का पाप अम्बेडर ने शुरु करवाया था, न कि 200 साल पहले।