पुष्यमित्र
सुबह से मन अनुपम मिश्र जी की यादों में अटका है। एक पल के लिये भी खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा। वैसे तो कभी उनसे मिलना नहीं हो पाया, मगर कभी ऐसा नहीं लगा कि उनसे परिचित नहीं हूँ। 15-16 साल पहले ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ी थी। तभी से उनका होकर रह गया हूँ। जब भी पानी, पर्यावरण, स्वच्छता और नदियों का जिक्र आता है मन उनकी शरण में चला जाता है। हर दुविधा का जवाब उनके विचारों में तलाशता रहा हूँ। क्योंकि पर्यावरण को लेकर भारतीय नजरिये की जो समझ उनके पास थी वह अन्यत्र कहीं नहीं मिली। उन्होंने देश की सादगी पसन्द जनता के देसज पर्यावरण प्रबंधन के तरीकों को समझा और उसे अपनी किताबों में जगह दी। फिर वे उदाहरण देश ही नहीं दुनिया भर के कई पर्यावरण संबंधी आंदोलनों की प्रेरणा बने।
उनकी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की कथा ही इस विराट पुरुष को समझने के लिये पर्याप्त है। जिन्होंने इस किताब को पढ़ा है वे जानते हैं कि यह एक ऐसी किताब है जिसे गांव की चौपाल में भी पढ़ा जाये तो लोग भरपूर दिलचस्पी लेकर इसे सुनते हैं और बौद्धिकों के हाथ भी लग जाये तो वह इससे चमत्कृत हुए बिना रह नहीं सकता। यह संभवतः पिछले 15-20 सालों में भारत में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली किताब है। इस किताब के बारे में सबसे रोचक जानकारी यह है कि इस किताब को जितना इसके मूल प्रकाशन ने छापा उससे कई गुना अधिक दूसरे प्रकाशनों ने छापा है। क्योंकि इस किताब पर कोई कॉपी राईट नहीं था। एक वक़्त तो प्रकाशकों ने ही कह दिया था कि हम और प्रतियां छापने में असमर्थ हैं।
मध्य प्रदेश के भारत ज्ञान विज्ञान सोसाइटी ने 2008 तक इसकी 25 हजार कॉपियां छापीं। मध्य प्रदेश के जन संपर्क विभाग ने भी इतनी ही प्रतियों का प्रकाशन किया। देश भर की संस्थाओं ने इसकी कितनी प्रतियां छापीं उसका कोई हिसाब किताब नहीं। और यह भी पता नहीं कि कितनी प्रतियां फ़ोटो कॉपी करके वितरित की गयीं। देश और विदेश की संभवतः 18 भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और इतने ही रेडियो स्टेशनों में इस किताब का धारावाहिक प्रसारण हुआ। दो टीवी डॉक्यूमेंट्री बने। और यह सब भी 2009 तक की ही जानकारी है। उसके बाद क्या हुआ इसका ठीक से आकलन नहीं किया गया है।
यह पुस्तक छपी भी उतनी ही खूबसूरत थी। इसके साथ जो स्केच बने थे वे भी उतने ही रोचक थे। इसके बाद उन्होंने ‘राजस्थान की रजत बूंदे’ नामक किताब लिखी, वह भी उतनी ही दिलचस्प है। कोसी में जब 2008 में भीषण बाढ़ आई तो उनका निबंध सामने आया ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ यह निबंध हम बिहार वालों के लिये प्रेरणा स्रोत बना। हम हैरत में पड़ गये कि बिहार के पारंपरिक जल प्रबंधन के बारे में आपकी जानकारी हम सबों से कई गुना बेहतर थी। धीरे-धीरे समझ आया कि अनुपम जी सिर्फ पानी पर्यावरण के देसज जानकार नहीं हैं, वे भारतीय समाज की खूबसूरती को पहचाने वाले दुर्लभ अध्येता भी हैं। उन्होंने हमें खुद अपने आप पर गर्व करना सिखाया। उन्होंने बताया कि इस देश के पारंपरिक ज्ञान को समझ कर अगर आज भी कोशिश करें तो बड़ा बदलाव मुमकिन है। राजस्थान समेत देश के कई राज्यों में उनकी किताब पढ़ कर कई बड़े सफल अभियान चले। आख़िरकार तालाब की खुदाई सरकार के एजेंडे में शामिल हो गया।
इतनी बड़ी उपलब्धि के बावजूद अनुपम भाई उतने ही सहज थे और हर किसी के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में सहजता से उपलब्ध थे। कभी भी देश का कोई पत्रकार उनसे किसी भी विषय पर राय ले सकता था। उन्होंने जो कुछ किया वह समाज को दे दिया और रिटर्न में कभी कुछ नहीं चाहा। अगर सिर्फ आज भी खरे हैं तालाब की रायल्टी ली होती तो उनके पास बड़ी रकम होती। मगर पैसा संभवतः उनकी प्राथमिकता कभी रहा ही नहीं। संयोग से कल भी मैं उनके बारे में सोच रहा था। जनवरी में विश्व पुस्तक मेला में अपने नये उपन्यास ‘रेडियो कोसी’ के विमोचन के मौके पर उन्हें बुलाने का मन में ख्याल आया था। फिर सोचने लगा कि नदियों को लेकर विराट सोच के मालिक इस इंसान को अपनी यह किताब पढ़ाना शायद धृष्टता होगी। पता नहीं उन्हें यह किताब कैसी लगे। खैर अब वे नहीं हैं। उनसे मिल पाने की कोई संभावना भी नहीं है। मगर मेरे अंदर वे जितने बचे हुए हैं, वह मेरे लिए हमेशा प्रेरणास्रोत की तरह रहेंगे। मेरे लिए मेरे अनुपम मिश्र आज भी जिन्दा हैं।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।