सजल कुमार
अनारकली ऑफ आरा! मैं सुन रहा हूँ, कई लोगों को कहते हुए कि आरा एक मनगढ़ंत जगह का नाम है, जो फिल्म में इस्तेमाल हुआ है। ऐसा नहीं है, आरा बेशक एक जगह है। बिहार में है। जो लोग वाकिफ ना हों, उनके लिए एक रोचक “रिफरेन्स” है इसका हमारे पास। “लगावेलु जब लिपिस्टीक” गाना तो लगभग सबने सुना ही है, उसमें लिपस्टिक लगाने पे जो डिस्ट्रिक्ट हिलता है, वो आरा ही है (हिलेला आरा डिस्ट्रिक्ट), बाकी आगे तो आप जानते ही हो।
कहानी इसी आरा वाली अनारकली की है। फिल्म क्या है, समझ लीजिये एक उदाहरण है। अगर आपको कभी किसी को समझाना हो कि सिनेमा क्यों, और कैसा होना चाहिए, तो हाल फिलहाल के फिल्मों में जो कुछ नाम सबसे सटीक तौर पे मिसाल बन सकते हैं- उन में ये फिल्म भी है। फिल्म में अपनी मिट्टी है, मिट्टी की ज़बान है, ज़बान की खुशबू है, खुशबू बहती है, और अपनी बात क्या खूब कहती है! फिल्म में सच्चे किरदार हैं, कुछ ग़लत- कुछ अच्छे किरदार हैं, अपनी आबोहवा में सांस लेता लहजा है इनका, इनका ढंग है, गीत है, संगीत है, उदासी है, रंग है!
अनारकली की दो बातें ख़ास है, एक कि वो कलाकार है। और उससे बढ़कर, कि वो एक बहुत बहादुर लड़की है। कुछ हालातों से रूबरू होने पर वो जो हिम्मत और सोच दिखाती है, उससे ये कहानी आरा की एक मामूली सी लड़की की कहानी से फिल्म जगत की अहम कहानियों में से एक, में तब्दील हो जाती है। शुक्र है स्वरा भास्कर जैसी अभिनेत्रियाँ अपने पास हैं, जो इस तरह के किरदार को इस कमाल के साथ जी सकती हैं।
ये फिल्म कुछ लोगों को अश्लील लग सकती है। पर ये वो ही लोग होंगे जिनको मंटो की कहानियाँ अश्लील लगेंगी। मंटो की कहानियाँ भी उनको अश्लील लगती थी, जिनको साहित्य की समझ नहीं थी। फिल्म में उतना ही भद्दापन है, जितना हमारे गली-मोहल्ले, सड़कों पर, इधर-उधर, सोच में, बातों में हरकतों में, बिखरा पड़ा हुआ है। दरअसल फिल्म तो मासूमियत को बयान करती है। पर उस मासूमियत को ज़रूरी इज्ज़त नहीं मिलती तो उसका ग़ुस्सा, और उसकी बहादुरी भी तो उभर के आएगी। सो आती है। फिल्म में बुरे मर्द हैं। पर बहुत अच्छे, और प्यारे मर्द भी हैं। हिरामन को गले लगाने का आपका जी करेगा, और वीसी साहब को चप्पल मारने का भी।
स्वरा के अभिनय के साथ-साथ, फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है इसकी बोली, और इसका संगीत। लगभग पिछले पांच सालों में ‘मसान’ जैसी इक्का-दुक्का फिल्मों के अलावा इस दर्जे का संगीत अपने सिनेमा में कम ही रहा है। कला, संस्कृति और लोक व्यवहार की तमाम बातों को घोल-घाल के फिल्म का म्यूजिक एल्बम तैयार हुआ है, और ऐसा हुआ है कि कई मायनों में ऐतिहासिक है। अगर इसके सारे गानों के विडियो एक के बाद एक थिएटर में चला दिए जाएं, तो वो भी एक देखने लायक फिल्म होगी| वो ही घोल, वो मिश्रन इसकी बोली में, बातों में भर-भर के झलकता है। मजेदार है बहुत।
घूम फिरके बात वो ही है सीधी सी। अनारकली ऑफ आरा, वो है ही एक उदाहरण। जैसे फिल्म की अनारकली एक उदाहरण है, हमारे समाज के लिए, ये फिल्म उदाहरण है हमारे फिल्म जगत के लिए। अरे, वो ही उदाहरण, की सिनेमा क्यों, और कैसा होना चाहिए – ऐसा होना चाहिए!!
अगर आप फ़िल्में देखते ही नही, तो कोई बात नहीं। देखते हैं, तो कम से कम ये फिल्म तो ज़रूर देखनी चाहिए। बस इंटरवल के बाद फिल्म ज़रा धीमी होती है, पर वहाँ मामला हिरामनजी की शर्मीली मुस्कान संभाल लेती है। बाकी तो गर्दा है एकदम। जैसा हिरामन जी फिल्म में कहती है – अरे अपने लिए नहीं, तो देश के लिए फिल्म देख लीजिये।
सजल कुमार। रांची के निवासी। इन दिनों मुंबई है ठिकाना। रंगमंच और रचनात्मक लेखन में गहरी अभिरुचि।