पशुपति शर्मा
जैग़म इमाम की फिल्म अलिफ़ अब सिनेमाघरों में लग चुकी है। करीब 6 महीने पहले जैग़म ने फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग दिल्ली में रखी थी। उनके बुलावे पर उस दिन दिल्ली के महादेव रोड स्थित फिल्म्स डिवीजन के ऑडिटोरियम में पहली बार जाना हुआ। तब से फिल्म को लेकर कई सवाल मन में उठते रहे। कई बार फिल्म के बारे में लिखने को जी चाहा लेकिन किसी न किसी कारण से ये मुमकिन न हो पाया। हालांकि फिल्म के प्रमोशन से जुड़ी हर ख़बर पर नज़र रही। फिल्म के प्रोमो के रिलीज से लेकर अवाम के सिनेमा में स्क्रीनिंग तक हर जानकारी मिलती रही। अलग-अलग यूनिवर्सिटीज में जैग़म ने छात्रों के बीच जाकर फिल्म दिखाई और उनका फीडबैक लिया। ये अपने आप में एक बेहतर शुरुआत रही।
जैग़म पत्रकारिता के बाद फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में हुनर आजमा रहे हैं। उनके अंदर एक कथावाचक भी है। उन्होंने उपन्यास और कहानियां भी लिखी हैं। इसलिए उनकी फिल्मों में किस्सागोई के साथ एक पत्रकार के सवाल करने की एक प्रवृत्ति भी सहजता से दिखती है। अलिफ़ का पूरा ताना-बाना मुस्लिम समाज की नई पीढ़ी में तालीम की ललक और मदरसे की परंपरा के पैरोकारों के बीच की कशमकश साफ दिखती है। जैग़म इमाम जिस मुस्लिम तबके से आते हैं, उसी मुस्लिम तबके की खामियों की नुक्ताचीनी में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। वो विरोध की तमाम आशंकाओं के बावजूद अपनी बात पूरी मजबूती और तर्कों के साथ रखते हैं।
फिल्म का नैरेशन जया बच्चन का है। कहानी मदरसे में बच्चों की शैतानियों से शुरू होती है। बच्चे कैसे मदरसे के बीच पतंगबाजी से लेकर नदी किनारे तक शैतानियां करते हैं, ये फिल्म को सहजता का आवरण देता है। दो बच्चों के बीच की बातचीत काफी रोचक बन पड़ी है। एक जहां खाने-पीने का शौकीन है, वहीं दूसरा धीरे-धीरे अंग्रेजी स्कूल की तालीम की ओर बढ़ता है। पिता के जबरन दाखिले के बाद दोनों बच्चे शुरुआत में तो इसका विरोध करते हैं लेकिन बाद में वो भी इसकी अहमियत समझने लगते हैं। मदरसे से पहली बार अंग्रेजी स्कूल पहुंचे बच्चे की दुविधा और संकोच को भी फिल्मकार ने बखूबी चित्रित किया है। स्कूल मास्टर साब का दोहरा रवैया बाल मन पर बेहद गहरा असर छोड़ते हैं। तिरंगे को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा करना महज एक स्कूल मास्टर की कल्पना तक सीमित नहीं है, इसके जरिए उस सोच पर चोट की गई है जो ऐसे मामलों को अपने निजी हितों के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं।
फिल्म एक साथ कई परतों में संवाद करती है। जहां एक ओर मुंडेर पर नैना मोहब्बत के पेच लड़ाती हैं तो वहीं दूसरी तरफ एक कट्टर सोच के बीज भी पनपते दिखाई देते हैं। फिल्म का एक संवाद इस कट्टरपंथ पर करारी चोट करता है, जिसका आशय कुछ यूं है- जो खुदा के बनाए हाड़-मांस के जीते-जागते इंसान से इश्क नहीं कर सकता वो खुदा से क्या खाक इश्क करेगा। पर्दे में रहने वाली मोहतरमा बेहद शख्त फ़ैसला लेकर खुद ही मोहब्बत की कड़ियां तोड़ देती है। ये उस मुस्लिम समाज की युवा महिला है, जो फिलवक़्त तीन तलाक जैसे मुद्दों में उलझा हुआ दिखाई पड़ता है।
इसी तरह फिल्म में बंटवारे का दर्द बयां करती हैं खाला जान, जिसकी भूमिका नीलिमा अजीम ने निभाई हैं। नीलिमा अजीम सालों बाद अपने भाई के घर आती हैं। अपने बीमार पिता को देख वो ठिठक और सहम जाती हैं। एक बेटी की घर वापसी के साथ ज़िंदगी फिर ढर्रे पर लौटने लगती है। पिता की सेहत में सुधार एक तरह से पूरे परिवार की जिंदगी में आ रहे बदलाव की ओर इशारा करता है। बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने लगता है। अपनी बहन को घर में रोकने के लिए फिल्म के नायक को भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ता है। एक झूठी कब्र और बेबस इंसान। फिल्म का क्लाइमेक्स कब्रिस्तान पर पहुंच कर दिखता है। आख़िर किन मसलों को कब्र में दफ्न हो जाना चाहिए और किन जिंदा सवालों से हमें रूबरू होना चाहिए… ये फिल्म के निर्देशक जैग़म इमाम को बखूबी मालूम है और वो इसे बड़ी खूबसूरती से दर्शकों के जेहन में भी डाल देते हैं। जैग़म इमाम ने बड़ी दिलेरी से अपने ही समाज को आईना दिखाने की कोशिश की है। ये फिल्म समाज को एक कदम आगे बढ़ने की नसीहत देती है। फिल्म का पैगाम है- लड़ना नहीं पढ़ना जरूरी है।
फिल्म के किरदारों में भावना, आदित्य ओम, सिमाला प्रसाद और गौरीशंकर सिंह प्रभावित करते हैं। बाल कलाकारों में सउद मंसूरी और इशान कौरव का काम बेहद उम्दा है। छोटी सी भूमिका में आहना भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हैं।
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।