मैं जेल जाना चाहता हूं !

मैं जेल जाना चाहता हूं !

सांकेतिक

जी हां ! मैं जेल जाना चाहता हूं !! इसमें कौतूहल वाली कोई बात नहीं, क्योंकि जेल तो हमारी मानव सभ्यता के विकास की चिर संगिनी है । बड़ी बड़ी उपलब्धियों की दाल में जब तक जेल की छौंक नहीं लगती, तब तक वह पूर्ण नहीं होती । इंदिरा, लालू, कोरा, सल्लू, आदि सबके विकास में जेल की छौंक लग चुकी है, इसलिए उन सबका विकास सत्यापित हो चुका है । जो जेल विहीन हैं, उनका विकास ‘विधवा विलाप’ से अधिक नहीं । अब नीरव, माल्या, ललितादि को ही देख लीजिए, जेल के बिना उनका विकास बिल्कुल ही अर्थहीन सा है । हमें तो कई बाबाओं का विकास भी जेल के बिना सूना- सूना लगता है । जो बाबा ‘बाबी’ के साथ उसकी श्रीवृद्धि कर रहे हैं, वह ऐतिहासिक है । हालांकि जो जेल के प्रासेस से गुजर रहे हैं वो तो आश्वस्त हैं, किंतु जो नहीं गुजर सके, वो सलवार की डोरी अपने कटिप्रदेश में बांधकर तांत्रिक क्रियाओं के साथ इसका उपाय कर चुके हैं ।

आदमी की तरह जेल की भी कई प्रजातियां होती हैं । किंतु उन्हें मुख्यतः दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं – गोचर जेल, अगोचर जेल ! वैसे अगोचर जेल ही नहीं होती, विकास भी अगोचर होता है ! इस पर हमारे प्रधान सेवक ‘एक्सपेरिमेंट’ कर रहे हैं ! उनका मानना है कि जब पिछली बार का प्रधानमंत्री तक अगोचर हो सकता है, तो इस बार मेरा विकास क्यों नहीं ? वैसे समय के साथ गोचर अगोचर का संदर्भ परिवर्तित होता रहता है । कभी समय था कि जो प्रधानमंत्री होता था, वो दिखता नहीं था और जो दिखता था, वो होता नहीं था ! आज संदर्भ जरा बदल गया है । आज विकास के साथ यह मामला फिट बैठने लगा है । जिसका विकास हुआ है, वह भारत में दिखाई नहीं देता और जो दिखता है, उसका विकास तो…!

यह सब मामला रामराज्य का है , जो जेल से ही आ सकता है । लाया जा सकता है ! जिसे साम्यवाद का प्रस्थान बिंदु भी माना जा सकता है ! लंदन के ‘हाईगेट श्मशान’ पर समाधिस्थ ‘कार्ल मार्क्स’ के सपने को साकार करने का एकमात्र मार्ग जेल ही तो है, क्योंकि यही वो घाट है, जहां बाघ और ‘बिलाई’ एक साथ पानी पीते हैं ! यहां तरह-तरह के कंज्यूमर आपको दिख जाएंगे ! अब इसका क्रेज फिर आकाश छूने लगा है । बाबा , नेता, राजनेता, समाजसेवी सब के सब इसके कंज्यूमर बनने लगे हैं । कंज्यूमर से याद आया कि व्यक्ति जन्म से मृत्यु पर्यंत तक कंज्यूमर ही रहता है । यह मैं नहीं, अर्थशास्त्र के मेरे एक मित्र कहते हैं । पैदा होते ही हगीज के साथ जो उसके कंज्यूम करने का दौर शुरू होता है, वह दूध, चारा, कोयला, बालू, सत्यम, स्टांप, व्यापम, टू जी, थ्री जी, फोर जी, जीजा जी, जेल आदि आदि इत्यादि से होते हुए कफन पर आकर विराम लगता है । कफन से याद आया -“क्या खूब कमाया यारों, क्या हीरे क्या मोती/ अफसोस है कि कफन में जेब नहीं होती !” हगीज़ और कफ़न के मध्य का सफर समय, संदर्भ और व्यक्ति के सोशल स्टेटस के अनुसार बदलता रहता है । हिरण को यदि किसी सेलिब्रिटी ने कंज्यूम कर लिया, तो दो दिन में बेल ! वहीं कोई बारह साल की बच्ची यदि बे टिकट रेलवे प्लेटफार्म पर पकड़ी गई, तो वर्षों तक जेल । यही नहीं, दिन-रात के अनुसार भी स्टेटस चेंज होता रहता है, दिन में सिलिया चमारिन से आग लेने से इनकार करने वाला पंडित मातादीन रात को अपने बिस्तर पर उसे संपूर्ण कंज्यूम कर जाने की हसरत रखता है । इसमें वह चुकता भी नहीं ! इस तरह जन्म से मरण तक पृथ्वी लोक पर पाए जाने वाली यह महामानव जाति तरह -तरह की चीजों को तरह- तरह से कंज्यूम कर जाता है और जो चीजें वह कंज्यूम नहीं कर पाता, -जैसा कि कुत्ता घी नहीं कंज्यूम कर पाता – तो जेल की अनंत यात्रा पर निकल पड़ता हैं । वह जेल यात्रा कंज्यूमर के ऊपर निर्भर करता है ।

बिहार के लालू ने चारा, एंडरशन ने भोपाल, क्वात्रोचि ने तोप, माल्या ने बैंक कंज्यूम कर लिया तो पप्पू एंड टीम सुप्रीम कोर्ट कंज्यूम करने की फिराक में है । दरसल उनकी दृष्टि व्यापक है । जहां तक सबकी नजर नहीं जाती, वहां वह बाजू समेटता कूद जाता है । यह तो किसी क्रिएटिव माइंड का महामानव ही कर सकता है, क्योंकि आलू की फैक्ट्री लगाना ऐसे- वैसे के वश की बात नहीं ! दरसल उनकी स्थिति ‘कहानी के प्लाट’ के मुंशीजी की तरह हो चुकी है जिनके लिए शिवपूजन सहाय लिखते हैं ‘अमीरी की कब्र पर पनपी हुई गरीबी की दूब बड़ी जहरीली होती है ‘। उसकी आदत ही कंज्यूमर वाली हो गयी है । वो सोचने लगा हैं कि जब यह सब कंज्यूम किया जा सकता है, तो देश क्या चीज है, थोड़ी सी बड़ी चीज है । इसलिए इसे मिलजुलकर कंज्यूम करना पड़ेगा । समूह में । इसीलिए इन दिनों सियार, बिच्छू, सांप आदि सभी विपरीत स्वभाव वाले विचित्र जीव -जंतु एक ही घाट पर आ गए हैं ! योजना बन रही है कि देश को कंज्यूम करने से पूर्व सभी जीव-जंतु सन्यास धारण करेंगे, तिलक लगाएंगे, श्वेतांबर धारी बनेंगे, जनेऊ भी पहनेंगे, जहां आजतक नहीं गए, उन मंदिरों में भी जाएंगे ! अब तक जिनकी गर्दन मरोड़ते आए हैं, उनके चरण चाटेंगे, पलकों से उनकी राह बुहारेंगे, क्योंकि फाइनल मैच खेलने से पूर्व नेट प्रैक्टिस आवश्यक होती है । इससे जीतने के प्रतिशत का ग्राफ चढ़ता है !

इन सब का ‘मेक इन इंडिया’ में भी बड़ा रोल साबित हो सकता है । मोदी जी के इस प्रोग्राम में जेल की सर्वोच्च भूमिका बन सकती है । इसके लिए थोड़ी सी और मार्केटिंग करनी पड़ेगी । बाबा रामदेव को भी इस तरफ ध्यान देना होगा । ‘पतंजलि राइस सबसे नाइस’ की तर्ज पर उन्हें ‘पतंजलि जेल, पहले बेल’ के नारे के साथ ‘पतंजलि जेल’ लॉन्च करना चाहिए ! साथ ही उस जेल का उद्घाटन कपालभांति , अनुलोम विलोम कार्यक्रम के साथ करें । इससे उसके प्रति लोगों का विश्वास बढ़ेगा । खूब मार्केटिंग होगी । जो नीरव, ललित, माल्या कभी बैंकॉक, लंदन मारे- मारे फिर रहे हैं, वह सब वापस आ जाएंगे ! बाहर जा चुका पैसा पतंजलि जेल के कारण वापस लौटेगा ! पूंजी निवेश होगा और रोजगार सृजन होगा । साथ ही उन लोगों की खोज में जो पैसा डीजल की तरह खर्च हो रहा है, वह भी बचेगा ! पतंजलि जेल के साथ-साथ ‘पतंजलि बैंक’ भी ‘मेक इन इंडिया’ में सहायक हो सकता है क्योंकि ‘मेक इन इंडिया’ का एक अंग स्वच्छता अभियान भी है । सामान्य बैंक जिस प्रकार लो बैलेंस चार्ज आदि के माध्यम से जिस गति से लोगों की जेब साफ कर रहे हैं, उसकी रफ्तार अत्यंत ही धीमी है । गंगा सफाई अभियान की तरह यह भी फ्लाप न हो, इसलिए पतंजलि बैंक का लांच होना ‘ मेक इन इंडिया ‘प्रोग्राम में मील का पहाड़ साबित होगा । विश्वास मानिए ! जिन जेबों की सफाई सभी बैंक और सरकार मिलकर चार वर्षों में नहीं कर पाए, वह एक वर्ष में सुनिश्चित हो सकता है । इस शुद्ध स्वदेशी सफाई अभियान से गांधी का सपना साकार होगा । वह प्रसन्न होंगे ! किंतु एक लघु शंका उत्पन्न होती है !! पतंजलि बैंक के साथ- साथ पतंजलि जेल का उद्घाटन कौन करेगा ? क्योंकि यह परंपरा सी बन गई है कि उद्घाटनकर्ता जाने अनजाने उसका कंज्यूमर बन ही जाता है । सुना है कि लालू ने जिस जेल का उद्घाटन किया उसी को वह इन दिनों कंज्यूम कर रहे हैं ।

खैर ! चाहे जो हो ! जेल है तो बड़े काम और नाम की चीज । अन्यथा बड़े बड़े सूरमा भोंपाली इसका वरण क्यों करते । आपको विश्वास नहीं, तो आंखें बंद कर अस्सी साल पूर्व फ्लैशबैक में जाएं और बिना किसी प्रयास के किसी का नाम लें । जिस आदमी का नाम आपकी जेहन में आएगा, वह अवश्य ही जेल यात्री होगा । भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, तिलक, बेनीपुरी, अज्ञेय ए सब के सब जेल यात्री थे । इसका एक ही कारण हो सकता है कि चिंतकों के लिए जेल सेफ जोन है । न रोकने वाला, न टोकने वाला ! निर्बाध चिंतन क्रिया चलती है ! मेरा मानना है कि ‘तिलक’ यदि जेल न जाते तो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ प्रकाश में नहीं आ पाता ! बेनीपुरी नहीं जाते तो आम्रपाली, माटी की मूरतें जैसी कालजयी कृतियों से हिंदी जगत महरूम रह जाता । इन दिनों सुना है लालू भी जेल में ‘चारा कंज्यूम करने के सौ तरीके’ नामक महाग्रंथ रचने में लगे हुए हैं । यह गौर करने वाली बात है कि जेल में इनसान विशेष तौर से ‘क्रिएटिव’ हो जाता है । जेल इंसान तो क्या, भगवान के लिए भी विशेष सेफ जोन रहा है । विष्णु जी ने भी अपने अवतार के लिए इसे ही चुना । इसलिए मेरा सभी सरकारों को बिन मांगा सुझाव यह है कि सभी शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों को बंद करके उसे जेल में रुपांतरित कर देना चाहिए । इसके कई फायदे होंगे, यह उन्हें सैकड़ों वर्षो तक सेफ कर देगी और शिक्षकों को वेतनमान भी नहीं देना होगा । साथ ही उनके दिमाग पर परमानेंट ताला भी लग जाएगा । कोई उनसे सवाल भी नहीं पूछ पाएगा । एक ही झटके में सारी समस्याओं का समाधान । भारत में दो ही तरह की दुनिया होगी -एक जेल के अंदर ,दूसरी जेल के बाहर ! ट्रैफिक की समस्या भी एक झटके में खत्म । साहित्य की शून्यता भी जाती रहेगी । मेक इन इंडिया पिक प्वाइंट पर पहुंचेगा । इसलिए निर्बाध चिंतन और मेक इन इंडिया के लिए मैं जेल जाना चाहता हूं ।


डॉ सुधांशु कुमार- लेखक सिमुलतला आवासीय विद्यालय में अध्यापक हैं। भदई, मुजफ्फरपुर, बिहार। मोबाइल नंबर- 7979862250

One thought on “मैं जेल जाना चाहता हूं !

  1. जरा बच के सुधांशु जी ,जमाना खराब है। असहिष्णुता का दौर हे। नंगे को नंगा मत कहा करिए। वैसे काटी है चुटकी बडी तीखी। लम्बे समय तक बिसबिसाएगा।

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