राकेश कायस्थ
सरकारी तंत्र यानी नकारापन। प्राइवेट सेक्टर यानी अच्छी सर्विस और एकांउटिबिलिटी। यह एक आम धारणा है, जो लगभग हर भारतीय के मन में बैठी हुई है या यूं कहे बैठा दी गई है। लेकिन यह धारणा हर दिन खंडित होती है। किस तरह उसकी एक छोटी केस स्टडी आपके सामने रख रहा हूं।
मेरे पड़ोसी ने एक ऐसे प्राइवेट बैंक से होम लोन लिया था, जो आज के जमाने में खुद को सबसे बड़ा बैंक बताता है। रेट और इंट्रेस्ट ज्यादा है। दूसरे प्राइवेट बैंक ने उन्हे कम ब्याज पर लोन ऑफर किया। ज़ाहिर है, उन्होने लोन शिफ्ट करने का मन बना लिया। नये बैक के साथ औपचारिकताएं पूरी हो गई और लोन स्वीकृत हो गया।
पड़ोसी जब लोन Repay करने पुराने बैंक पहुंचे तो कर्मचारियों ने टालमटोल किया। पंद्रह दिन तक दौड़ाते रहे। फिर आखिरकार में उनसे खुलकर बात की और कहा कि आप पुराने ग्राहक हैं, आपको इस तरह जाने नहीं देंगे। उन्होंने पूछा- जाने नहीं देंगे क्या मतलब? बैंक मैनेजर बोले- गलत मत समझिये लेकिन हमारी इमेज खराब हो जाएगी। जिस रेट पर आपको दूसरा बैंक लोन दे रहा है, वही रेट हम आपको दे देंगे। मेरे पड़ोसी ने कहा- जब आप वही रेट दे सकते थे, तो पहले क्यों नहीं दिया? जवाब आया- हम भी तो बिजनेस करने बैठे हैं। मेरे पड़ोसी अड़े रहे कि मुझे आपके यहां से लोन बंद करवाना है। मैनेजर साम-दाम दंड भेद करता रहा। वे तैयार नहीं हुए तो बोला- जो ऑफिसर होम लोन देखता है, अभी छुट्टी पर चल रहा है, अगले हफ्ते आकर बात कर लीजियेगा, काम हो जाएगा।
अगले हफ्ते से फिर नया चक्कर शुरू हुआ लेकिन काम नहीं हुआ। दूसरी तरफ जिस नये बैंक लोन मंजूर किया था, उसने रोजाना के हिसाब से ब्याज लगाना शुरू कर दिया। झक मारकर मेरे पड़ोसी ने पुराने बैंक मैनेजर की बात पर अमल करते हुए इंट्रेस्ट रिवाइज़ करवाया और नये बैंक का जो ब्याज बनता था, वह देकर बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई। मैंने पूछा कंज्यूमर कोर्ट क्यों नहीं गये तो मेरे पायलट पड़ोसी ने जवाब दया- महीने में आधे से ज्यादा वक्त तो इंटरनेशनल फ्लाइट पर रहता हूं, वक्त कहां है।
ये एक बानगी है, एक व्यवस्थित और संगठित लूट की जो इस देश में कॉरपोरेट सेक्टर मचा रहा है। मुझे यकीन है कि बैकिंग और टेलीकॉम सेक्टर से जुड़े ऐसे एकाध अनुभव आपमें से हरेक के होंगे। प्राइवेट अस्पताल से लेकर निजी शिक्षा संस्थाओं तक कदम-कदम पर लूटने वाले बैठे हैं। आप कुछ भी कर ले बच नहीं सकते।
पूरा राजनीतिक तंत्र इस संगठित लूट के खेल में बराबर का भागीदार है। जिसे सुंदर शब्दों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनशिप कहते हैं, उससे बड़ा छलावा कुछ नहीं है। गंदगी के अंबार और डॉक्टरों की कमी के बावजूद इलाज के मामले में सरकारी अस्पतालों से जुड़ा मेरा अनुभव हमेशा प्राइवेट हॉस्पिटल के मुकाबले बेहतर रहा है। एसबीआई के काउंटर पर बैठी 55 साल की विधवा या तोंदवाले गंजे क्लर्क के मुकाबले टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले प्राइवेट बैंक के ऑफिसर ज्यादा बेहतर काम करते हों, यह मानने के लिए मैं कतई तैयार नहीं हूं। अलग-अलग दौर की सरकारों ने व्यवस्थित ढंग से पब्लिक इंटरप्राइज को खत्म किया है, ताकि उन्हें बेचने के अलावा कोई और रास्ता ना बचे। निजीकरण का मतलब है, ज्यादा कमीशनखोरी और शून्य जवाबदेही। सरकारों के पास पल्ला झाड़ने का रास्ता हमेशा खुला रहेगा। अगर घटिया सर्विस को लेकर ज्यादा शोर उठा तो सरकार कहे- चलो जी बदल देते हैं या रेगुलेट कर देते हैं। दोनों का मतलब है, कमीशनखोरी के और नये रास्ते। सरकार के दोनों हाथ में लड्डू और जनता हमेशा की तरह हैरान-परेशान।
सबकुछ बेचने पर आमादा सरकारों से ये पूछा जाना चाहिए कि अगर वो सार्वजनिक संस्थाओं को बेहतर नहीं बना सकते तो फिर आखिर हैं किसलिए, सिर्फ दलाली खाने के लिए? एयर इंडिया का काम हो गया, रेलवे को बेचने की तैयारी है। फर्ज कीजिये अगले 20 साल में स्थिति क्या होगी। तीस परसेंट इनकम टैक्स और 28 फीसदी जीएसटी देने वाले अपने ही देश में किरायेदार होंगे, उनके हिस्से में कोई सार्वजनिक संपत्ति नहीं होगी। मैं एक ऐसा आनेवाला कल देख रहा हूं जहां मेरा बेटा बैकिंग सेक्टर में काम करेगा और आपका बेटा टेलीकॉम में। दोनों के पास अपने टारगेट होंगे। दोनों ग्राहकों को चूना लगाएंगे या यूं कहे कि एक -दूसरे को ठगेंगे। ईएमआई पर महंगी गाड़ियां खरीदेंगे और मानेंगे देश विकास की पटरी पर बुलेट ट्रेन की रफ्तार से दौड़ रहा है।
राकेश कायस्थ। झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ। टीवी टुडे, बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आपने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों स्टार स्पोर्ट्स से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।