बदलाव प्रतिनिधि, पटना
भारत युवा आबादी के मामले में अग्रणी देशों की कतार में आता है। यहाँ 44 करोड़ से अधिक जनसंख्या 18 साल से कम उम्र की है और इसमें से भी करीब 40 प्रतिशत जनसंख्या छोटे बच्चों (0-5 साल) की है। बिहार में यह संख्या 4 करोड़ 75 लाख है, जो भारत के कुल बच्चों की संख्या का 11 फीसदी है। अगर हम इन बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति पर एक नजर डालें तो हालात भयावह दिखते हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 के आंकड़ों के अनुसार बिहार के पांच साल से कम उम्र तक के 48 प्रतिशत बच्चे तमाम विकासशील योजनाओं के क्रियान्वयन के बावजूद गंभीर रूप से कुपोषित हैं। 2005 में 56 प्रतिशत की तुलना में वर्तमान में राज्य के 48 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। मतलब 10 सालों में कुपोषण के कम होने की दर लगभग एक प्रतिशत प्रति वर्ष से भी कम रही है। वहीं हमारे पड़ोसी राज्य झारखंड में यह आंकड़ा वर्तमान में 45 प्रतिशत है। बिहार की 15 से 49 साल की 60 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं। अगर महिलाओं के RSOC 2014 के स्वास्थ्य के आंकड़ों को देखें तो 30 प्रतिशत महिलायें और 15 से 18 साल की 45 प्रतिशत किशोरियां शरीर भार सूचकांक के संदर्भ में कुपोषित हैं।
समेकित बाल विकास सेवाओं के अंतर्गत बच्चों के कुपोषण को कम करने हेतु काफी प्रयास किए जा रहे हैं पर कुपोषण के ये आंकड़े दर्शाते हैं कि सरकार द्वारा किए गए प्रयास और जमीनी हकीकत का फासला लंबा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने 2016 की रैंकिंग जारी की थी, जिसके अनुसार 118 देशों में भुखमरी और कुपोषण को ध्यान में रखकर तैयार की जाने वाली इस सूची में भारत 97वें पायदान पर था, जो चिंताजनक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 39 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं जबकी आबादी का 15 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है। इस बार रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित 2030 के एजेंडे से भी जोड़ा गया है, जिसमें ‘जीरो हंगर’ का लक्ष्य रखा गया है। यह रिपोर्ट हमारे उन दावों को आईना दिखाती हैं, जिसमें हम एक युवा देश और आने वाले समय में पूरे विश्व के मार्गदर्शक बनने की बातें करते हैं परन्तु बच्चों के समेकित विकास के बिना हमारी महाशक्ति बनने की बातें निश्चित ही बेमानी हैं।
समेकित बाल विकास योजना अपनी तरह की दुनिया की सबसे बड़ी योजनाओं में से एक है, जिसमें छह साल तक के भारत के तकरीबन आठ करोड़ बच्चे आते हैं। इसके अंतर्गत तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए उनकी माताओं को आंगनवाड़ियों के माध्यम से घर के लिए राशन, तीन से छह साल के बच्चों को आंगनवाड़ियों में ही पकाया हुआ पौष्टिक आहार, टीकाकरण, बच्चों और गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य जांच, छोटे बच्चों की स्कूल पूर्व शिक्षा जैसी सेवाएँ इस योजना का हिस्सा हैं। साल 2015 -16 के बजट में केंद्र सरकार ने योजना का बजट कम कर दिया था। पिछले दो वर्षों में, आईसीडीएस के लिए बजट आवंटन में तेजी से कमी आई है। वित्तीय वर्ष 2015 -16 में इसे घटाकर 14,000 करोड़ रुपये कर दिया गया था। जाहिर है इस प्रकार के निर्णय बच्चों और माताओं के पोषण के मामलों में हमारी घटती प्राथमिकता को दर्शाते हैं ।
कुपोषण को लेकर हो एक खास नीति
कुपोषण को कम करने के लिए राज्य सरकार अपने स्तर से कई प्रयास कर रही है। बिहार में ‘बाल कुपोषण मुक्त बिहार’ जैसे पहल की गई थी। वर्तमान में कुपोषण को लेकर एक नीति बनाने और खास कर पोषण संबंधी कार्यक्रमों में व्यापक बदवाव किये जाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही बाल विकास संबंधी योजनाओं को सही दिशा में गति, एएनएम, आशा और ममता के साथ मिलकर हमें एक रणनीति बनाने की जरूरत है ताकि जमीनी स्तर पर हम अपनी गतिविधियों को और सशक्त कर बिहार के बच्चों और माताओंको एक स्वस्थ और बेहतर भविष्य दे सकें।
कुपोषण की समस्या को कम करने के लिए बहुआयामी गतिविधियों की आवश्यकता है। ये कार्य केवल एक विभाग का नहीं बल्कि स्वास्थ्य विभाग, आईसीडीएस , कृषि, लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण और खाद्य एवं नागरिक सुरक्षा विभाग के मिले-जुले प्रयासों से ही संभव हो सकता है। इन विभागों के आपसी समन्वय और उनका अनुश्रवण करने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट की तर्ज पर पोषण मिशन बनाएं जाने की आवश्यकता है ।
राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार के 2009 के आदेश के अनुसार सभी राज्यों को आईसीडीएस योजना का सर्वव्यापीकरण करना था, जिसके फलस्वरूप आंगनवाड़ी केंद्र के अंतर्गत आने वाले सभी लक्षित लाभार्थियों को पूरक पोषाहार कार्यक्रम का लाभ मिलना है। परन्तु अन्य पड़ोसी राज्यों की तुलना में बिहार में अभी तक आईसीडीएस योजना का सर्वव्यापीकरण नहीं किया गया है। इसके तहत अभी भी प्रत्येक आंगनवाड़ी केंद्र पर तीन से छह वर्ष के केवल 40 बच्चों, छ: माह से तीन साल के 40 बच्चों (जिसमें 28 कुपोषित और 12 गंभीर रूप से कुपोषित होते हैं), 8 गर्भवती महिलाएं, 8 छह माह तक के बच्चों को स्तनपान कराने वाली धात्री माताएँ एवं 3 किशोरियों को ही आईसीडीएस के पूरक पोषण कार्यक्रम का लाभ दिया जाता है।
जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान की शुरूआत, छह माह तक केवल स्तनपान, छह माह के बाद ऊपरी आहार के साथ साथ स्तनपान कुपोषण को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन यह पाया गया है कि संस्थागत प्रसव में बढ़ोतरी होने के बाद भी जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान की शुरूआत के आंकड़े कम है। बिहार में संस्थागत प्रसव का आंकड़ा 64 प्रतिशत है, इनमें से केवल 35 प्रतिशत मामलों में ही एक घंटे के अंदर स्तनपान की शुरुआत हो पाती है। 6 माह के बाद बच्चों को पूरक आहार दिया जाता है। इसके अलावा कई समुदायों और समाजों में प्रचलित अन्न्प्राशन संस्कार या मुहजुटठी को मनाये जाने की परंपरा हैं। कुपोषण को कम करने के लिए इस प्रकार के उत्सवों को सामूहिक और वृहत रूप से मनाये जाने की भी जरूरत है।
कम उम्र में विवाह और प्रजनन दर का ज्यादा होना भी कुपोषण को बढ़ाने के महत्वपूर्ण कारक हैं। परिवार नियोजन और कम बच्चे होने पर बच्चों के कुपोषित होने की दर कम होगी। खराब स्वच्छता आदतों का सबसे अधिक दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं व नवजात शिशुओं पर पड़ता है। बच्चों के खराब स्वास्थ्य का कारण खुले में शौच एवं उचित तरीके से हाथ न धोना पाया गया है। बच्चों के अक्सर बीमार रहने से वे कुपोषित हो जाते हैं। ऐसे में खुले में शौच मुक्त होना हमारे बच्चों को कुपोषण से बचाने का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए।
जब हम अपने चारों ओर देखते हैं, तो हमारा सामना एक असहज लेकिन निर्विवादित सत्य से होता है, जिससे लाखों बच्चों का जीवन अभिशप्त हो गया है और इस की वजह कुछ और नहीं बल्कि वो परिस्थितियां हैं, जिनमे वो जन्म लेते हैं। मुख्यधारा से पीछे छूट गए कुपोषित बच्चों और माताओं तक पहुँचना तकनीकी रूप से मुश्किल नहीं है। यह संसाधनों की बात है, सामूहिक इच्छाशक्ति की बात है और उससे कहीं ज्यादा यह राजनैतिक प्रतिबद्धता की बात है। बच्चों और माताओं पर ध्यान केंद्रित करके उनके साथ हो रहे असमान और पक्षपातपूर्ण रवैये से निपटने के प्रयासों पर बल देना ही होगा।