पशुपति शर्मा
आर्ट सर राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के साथ मेरी 4 जून 2017 को हुई बातचीत की पहली किस्त 25 जून को बदलाव पर साझा की गई थी। बातचीत को महीने भर से ज्यादा वक्त गुजर गया है। ‘होमवर्क’ समय पर पूरा न कर पाने के लिए क्षमा। इस दौरान सर कुछ दिनों के लिए बेगुसराय लौट गए हैं। अभी फेसबुक के जरिए उनसे हाल-चाल लिया। सेहत पहले से बेहतर है। पूर्व छात्रों की ओर से लगातार की जा रही आर्ट एग्जीबिशन की मांग को उन्होंने श्रुति की शादी तक टाल दिया है। बहरहाल, हम राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कला यात्रा पर बात तो जारी रख ही सकते हैं।
4 जून की उस सुबह बातचीत के बीच में कई बार आर्ट सर खो से जाते। लंबी खामोशी छा जाती। आंखें अनंत में कहीं टिकीं रहतीं और मैं उनके विचार प्रवाह के लौट आने का इंतज़ार करता। वो 1979 का वक़्त था, जब दरभंगा में ब्रह्मानंद कला महाविद्यालय की शुरुआत हुई। लाल बाबू का कलाकार जाग उठा। दाखिले के लिए पिता के इंकार से घर में एक लड़ाई ठन गई। बेटे ने भूख हड़ताल शुरू कर दी। एक दिन, दो दिन करते हफ्ता गुजर गया। पिता तो पिता थे आखिर, दिल कैसे न पसीजता। राजेंद्र प्रसाद को ब्रह्मानंद कला महाविद्यालय में दाखिले की इजाजत मिल गई।
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कला यात्रा-दो
कला महाविद्यालय पहुंचकर राजेंद्र प्रसाद गुप्ता को सुकून मिला। कला के जिस सफ़र पर वो आगे बढ़ना चाहते थे, उसका रास्ता बन गया था। जीवन में थोड़ी स्थिरता आई और मनोनुकूल काम की शुरुआत हुई। शुरुआती गुरुओं को याद करते हुए कुछ नाम राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की जुबान पर आते हैं- जेके महासेठ, वीरेंद्र नारायण सिंह, बलराम, रतीन्द्र रंजन दत्ता। इन्हीं गुरुओं की देखरेख में कला का अभ्यास शुरू हुआ।
संगीत और चित्रकारी, एक साथ दोनों का मोह छूटे नहीं छूट रहा था। दरभंगा, उस वक्त संगीत का भी बड़ा केंद्र हुआ करता था। यहां ध्रुपद घराने और अमता घराने के गुरू संगीत की शिक्षा दे रहे थे। राजेंद्र गुप्ता ने गुरुओं के सान्निध्य का लाभ लिया और बांसुरी की शास्त्रीय शिक्षा मिलने लगी। ये भी अजब संयोग रहा कि आपको चित्रकला से पहले संगीत में पहचान मिली और आप दरभंगा रेडियो स्टेशन से जुड़ गए। इस दौरान पद्मश्री रामचतुर मलिक, सियाराम तिवारी, अभय मलिक, विदुर मलिक को सुनने का मौका मिला और संगीत की बारीकियों को समझने लगे।
79-80 के दौर को याद करते हुए राजेंद्र प्रसाद गुप्ता कहते हैं- ” इस दौरान कला पटल पर कई प्रयोग हो रहे थे। भारत की कला परंपरा एक ओर अपनी गरिमा खो रही थी, तो दूसरी ओर पाश्चात्य कला परंपरा उस पर हावी होने का प्रयास कर रही थी। एम एफ हुसैन की कला शैली अकादमीय रूप से छात्र-छात्राओं को प्रभावित कर रही थी। पूर्ण या आंशिक रूप से छात्र उसे अपना रहे थे, जो घातक था।”
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता इसके साथ ही कला गुरू अवनीन्द्र नाथ ठाकुर की वॉश तकनीक को याद करते हैं। वो कहते हैं- ” ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में वॉश तकनीक की भारतीय कला परंपरा पूरी तरह से नहीं भी तो, अधिकांशत: दम तोड़ चुकी थी। सौभाग्य था कि मुझे दो शिक्षक ऐसे मिले जो वॉश तकनीक की कला परंपरा में सिद्धहस्त थे। प्रोफेसर जे के महासेठ की निकटता मुझे मिली और मैंने उनसे वॉश पेंटिंग के गुर सीखे। इस तकनीक को अपनाकर चित्र रचना करने लगा।”
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने पूरी शिद्दत से भारतीय कला परंपरा की गरिमा को बरकरार रखने के लिए काम किया। कई नए प्रयोग भी उन्होंने इस शैली में किए। 1982 आते-आते आपके चित्र राज्य और राष्ट्र स्तरीय कला प्रदर्शनी में शामिल होने लगे, उनकी सराहना होने लगी। उस समय देश के मूर्धन्य चित्रकार एमएफ हुसैन, के एच रज़ा, एफएन सूजा, एनएस बेंद्रे, मंजीत बाबा, जी एम शेख जहां एक तरफ युवा कलाकारों के आदर्श बने हुए थे, वहीं कतिपय नए प्रयोगों की भी चर्चा हो रही थी।
1985 तक राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने कला प्रेमियों और समीक्षकों के बीच अपनी छोटी ही सही किंतु अलग पहचान बना ली थी। शिल्प कला परिषद (पटना), बिहार राज्य ललित कला अकादमी (पटना), बिरला एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट एंड कल्चर (कलकत्ता), साहित्य कला अकादमी, ललित कला अकादमी (दिल्ली), उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी (लखनऊ), ऑल इंडिया ड्राइंग एग्जीबिशन (चंडीगढ़), द क्रिएटर (अंबाला) जैसी प्रमुख कला दीर्घाओं में आपके चित्रों को प्रदर्शित किया गया, पुरस्कृत किया गया। साहेबगंज के मिर्जापुर चौकी के लाल बाबू के लिए बतौर कलाकार मिल रही ये पहचान एक सपने के सच होने सरीखी थी।
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने अपनी कला यात्रा में इस बात का खास खयाल रखा कि चित्रों में भारतीय आयाम स्पष्ट रूप से दिखें। उनके सारे चित्र भारतीय चित्रकला परंपरा में ही रहे, ऐसा नहीं है, लेकिन इसका विस्तार उनके यहां जरूर दिखने लगा था। राजेंद्र प्रसाद गुप्ता कहते हैं- ” 1985-86 तक आते ट्रिनाले हो या कला मेला (नई दिल्ली) बड़ी प्रदर्शनियों में चित्रों के साथ अपना नाम भी दिखने लगा। देश के नामचीन चित्रकारों के साथ अपने चित्रों को देखकर जहां एक और गर्व का अनुभव होता तो वहीं दूसरी ओर बहुत सारे चित्रों को एक साथ देखकर उनकी खूबी और खामी समझने की कोशिश भी करता।”
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता आगे कहते हैं-” आदि काल से कला निर्माण के दो कारण रहे हैं- आस-पास के जगत की स्मृतियों को कायम रखना और दूसरा अपनी अमूर्त भावनाओं को मूर्त रूप प्रदान करना। अस्सी के दशक में दूसरा कारण अपना प्रभुत्व जमाता जा रहा था और अमूर्त कला जोर पकड़ती जा रही थी। ऐसी बात नहीं थी कि सब्जेक्टिव और मूर्त चित्र नहीं बन रहे थे लेकिन अमूर्त कला के प्रति रूझान काफी बढ़ चुका था। चित्रों पर विदेशी छाप स्पष्ट देखी जा सकती थी।” राजेंद्र प्रसाद गुप्ता एक गहरी सांस के साथ भारतीय चित्रकला में अध्यात्म की कमी को लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हैं। उनकी माने तो कला का एक काम लोगों को शांति की ओर ले जाना भी है, जिसका नितांत अभाव दिखने लगा था।
ब्रह्मानंद कला महाविद्यालय में चित्रकला में मास्टर की डिग्री पूरी की। अवैतनिक लेक्चरर के तौर पर 4 साल का वक़्त दरभंगा में ही गुजरा। राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की उंगलियां होठों पर फिरने लगी। कुछ देर के लिए मानो किसी सोच में पड़ गए हों। कहा- “आर्थिक परेशानी की वजह से 1989 में एक और फ़ैसला करना पड़ा।” इसके बाद के दिनों पर फिलहाल उनकी बात करने की इच्छा नहीं रह गई थी। मैंने भी अपनी नोटबुक बंद कर ली। बातों के बीच में मालदा आम की मिठास भी घुली और लस्सी से गला भी तर किया। किंतु सारा ध्यान एक कलाकार के संघर्ष पर ही टिका था, और इस दौरान कामयाबी से चेहरे के बदलते भाव भी सुखद थे।
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।