घनघोर व्यस्तता के बीच वक्त निकालकर तेंदुलकर पर बनी फिल्म सचिन: ए बिलियन ड्रीम्स देख आया। इस फिल्म पर करोड़ों भारतवासियों की उम्मीदों का वैसा ही बोझ था, जैसा सचिन पर हुआ करता था। ईमानदारी से कहूं तो फिल्म ने मुझे उसी तरह निराश किया जिस तरह कई बार सचिन करते थे । सचिन भारत के क्रिकेट प्रेमियों के भगवान हैं। लिहाजा उनसे जुड़ी हर चीज़ भक्तों के लिए पवित्र है। मैं भी सचिन का डाई हार्ट फैन रहा हूं। भावनाएं अपनी जगह हैं, फिलहाल चर्चा इस बात की हो रही है कि इस फिल्म में मुझे क्या अच्छा नहीं लगा।
दरअसल लार्जर दैन लाइफ इमेज वाली किसी भी शख्सियत की कहानी कहने वाले की सबसे बड़ी दुविधा यह होती है कि क्या बताया जाये और क्या छोड़ा जाये। फिल्म शुरू से आखिर तक इसी दुविधा का शिकार नज़र आई। सबकुछ शामिल करने की कोशिश में फिल्म क्रियेटिव स्टोरी टेलिंग से बहुत दूर निकलती चली गई और घटनाओं का दस्तावेज़ भर बनकर रह गई। इतना होने के बावजूद बहुत सारी वैसी स्मृतियां और कहानियां छूट गईं जो सचिन फैंस के दिलो-दिमाग़ में आज भी ताजा हैं। उदाहरण कई हैं। मैं यहां सिर्फ दो बता रहा हूं। 2003 का वर्ल्ड कप सचिन के करियर का एक हाई प्वाइंट था, जिसे डॉक्युमेंट्री में भरपूर जगह दी गई है, लेकिन उसके साथ एक बड़ा नाटकीय पहलू जुड़ा हुआ था। ऑस्ट्रेलिया के हाथों लीग मुकाबले में हार के बाद सचिन और सौरव गांगुली जैसे खिलाड़ियों के घर के बाहर प्रदर्शन हुए थे। इस घटना के बाद सचिन ने मीडिया के सामने आकर देश से वादा किया था कि हम जब तक आखिरी गेंद नहीं फेंकी जाएगी संघर्ष करते रहें और फिर यहीं से टीम इंडिया ने रफ्तार पकड़ी थी और जादुई सफर फाइनल तक जारी रहा। जबकि ये कहानी फिल्म से पूरी तरह गायब है।
दूसरा वाकया उनके रिटायरमेंट से जुड़ा है। सचिन जब बैटिंग के लिए आये तो वेस्टइंडीज़ के खिलाड़ियों ने उनके स्वागत के लिए पिच पर घेरा बनाया। बहुत कम खिलाड़ियों को यह सम्मान नसीब हुआ है। सचिन की पारी शुरू हुई तो ऐसा लगने लगा कि करियर की अपनी आखिरी इनिंग में मास्टर ब्लास्टर पुराने अवतार में वापस लौट आये हैं। कौन भूल सकता है, वीआईपी लाउंज में बैठकर लगातार माला जपती सचिन की मां को। ऐसा लग रहा था कि जिंदगी की आखिरी पारी में सचिन सेंचुरी बनाकर वापस लौटेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। करोड़ों दर्शकों की स्मृतियों पर हमेशा के लिए अंकित उनकी इस पारी का कहीं कोई जिक्र इस फिल्म में नहीं है। विश्व विजय की कहानी का ट्रीटमेंट भी न्यायसंगत नहीं है। ठीक है कि धोनी पर फिल्म पहले आ चुकी थी लेकिन सचिन का नायकत्व पीछे ना चला जाये, इस डर से धोनी के फाइनल की पारी को अंडर प्ले करना और उनसे ज्यादा युवराज सिंह को दिखाना किसी भी लिहाज से सही नहीं था।
मैं समझ सकता हूं कि सचिन तेंदुलकर जैसे किसी व्यक्ति पर फिल्म बनाना गाय पर निबंध लिखने जैसा दुरूह काम है। जो बात पहले लाखों बार कही जा चुकी हो, उसे मौलिक ढंग से किस तरह कहा जाये। फिल्म देखने के बाद ऐसा लगा कि मौलिकता और रचानात्मकता फिल्मकार का प्रयोजन था भी नहीं। उसका काम सचिन के महान जीवन की सभी घटनाओं को तस्वीरों के ज़रिये संकलित करने जैसा था। ठीक उसी तरह जैसे किसी बड़े साहित्यकार का संचयन छपवाया जाता है। ज़ाहिर है, यह सचिन की इच्छा और पूर्ण सहमित से ही हुआ होगा। कई ऐसे हाई प्वाइंट थे, जहां फिल्म खत्म हो सकती थी। वर्ल्ड कप जीतने के बाद तिरंगा थामे अपने साथियों के कंधे पर वानखड़े स्टेडियम के चक्कर लगाते सचिन, या फिर क्रिकेट को अलविदा कहते सचिन। लेकिन फिल्म आगे भी गई और वहां जाकर खत्म हुई जब मास्टर ब्लास्टर ने राष्ट्रपति के हाथों भारत रत्न ग्रहण किया। आप कह सकते हैं कि ये कोई फीचर फिल्म नहीं डॉक्युमेंट्री थी।
ऐसे में सवाल है कि क्या डॉक्युमेंट्री का कोई सौंदर्यशास्त्र नहीं होता? अगर हार्ड कोर डॉक्युमेंट्री भी मानें तब भी दर्शकों को जानकारी देने के मामले में फिल्म कई जगह चूक गई। कई जगहों पर आधी-अधूरी जानकारी दी गई। मार्क मैस्करहेंस नज़र आये लेकिन वर्ल्ड टेल के साथ सचिन के डील की कहानी दर्शकों को समझ में नहीं आई जिसने भारत में खिलाड़ियों की दुनिया बदल दी। कमियों के बावजूद फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है, जो क्रिकेट में रुचि रखने वालों को पसंद आएगा। भारतीय टीम की अंदरूनी खींचतान से लेकर करियर के उतार-चढ़ाव तक की कहानी मास्टर ब्लास्टर ने खुद अपनी जुबानी पहली बार दुनिया को बताई है। सचिन से ज्यादा अहम है, अंजलि तेंदुलकर का पैरेलल नैरेटिव जो इस महान क्रिकेटर की जिंदगी जुड़े कई अनजाने पहलुओं पर रौशनी डालता है।
क्रिकेट की दुनिया से नाता रखने वाले ढेर सारे लोगो के इंटरव्यू उस कालखंड में हुए बड़े सामाजिक और राजनीतिक बदलावों की कहानी कहते हैं, जिसमें मुंबई का एक मिडिल क्लास बच्चा हज़ारों करोड़ की अकूत दौलत का मालिक बना। बहुत से पैरेलल ट्रैक थे, कुछ का जिक्र आया कुछ छूट गये। विनोद कांबली की कहानी इन्ही में एक थी। सचिन ने अपने कई इंटरव्यू में कांबली से अपनी दोस्ती और उनके करियर का जिक्र किया था। लेकिन पासिंग रेफरेंस के तौर पर एक लाइन में कांबली का जिक्र होना मेरे लिए थोड़ा निराशाजनक था। कांबली का उभरना एक अलग तरह का कथानथक था, जिसे नज़रअंदाज़ करना किसी भी बड़े फिल्मकार के लिए मुनासिब नहीं था। खैर जो भी हो, मेरी राय अपनी जगह, लेकिन फिल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए। आपको क्रिकेट के भगवान के बहुत सारे ऐसे दुर्लभ वीडियो मिलेंगे जो आपने पहले कभी नहीं देखी होगी ।
राकेश कायस्थ। झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय । खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ, टीवी टुडे, बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आपने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों स्टार स्पोर्ट्स से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।