“बाधाएं आती हैं आएं, घिरे प्रलय की घोर घटाएं
पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसे यदि ज्वालाएं ।
निज हाथो में हंसते–हंसते, आग लगा कर जलना होगा
कदम मिला कर चलना होगा, कदम मिला कर चलना होगा ।।”
अटल बिहारी वाजपेयी की ये पंक्तियां देश के अन्नदाता पर सटीक बैठती हैं । जो सरकार, मौसम और प्रकृति की मार झेलने के बाद भी हार नहीं मानता और गिरने के बाद फिर उठ खड़ा होता है । खेत में उसका चाहे जितना भी नुकसान हो जाए उसकी परवाह नहीं। उसे पीछे छोड़ किसान अगली फसल की तैयारियों में जुट जाता है । इसको उदाहरण के रूप में समझने के लिए हम आपको ले चलते हैं बिहार के कन्हारा गांव । जो मुजफ्फरपुर जिले के बोचहा प्रखंड में पड़ता है। शहर से 17 किमी दूर कन्हारा गांव में बांस और रस्सी की जाली से घिरा हुआ एक प्लॉट बरबस ही हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है । जब मैं भी वहां पहुंचा तो उसे देख खुद को रोक नहीं पाया । थोड़ा और करीब गया तो हरभरे पौधों के बीच गोल-मटोल लाल टमाटर दिखाई दिये । ये तो समझ आ गया कि ये टमाटर की तैयार फसल है, लेकिन मन किया कि उसके भीतर चला जाये और देखा जाये कि आखिर किसी किसान ने कैसे इतना सघन जाल बुना होगा । आसपास नजर दौड़ाई लेकिन अंदर जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आया । ऐसा इसलिए था ताकि कोई जानवर फसल को नुकसान ना पहुंचा सके । पास में एक दुकानदार से पूछने पर पता चला कि ये अरविंद सिंह नाम के किसान की फसल है और वो बगल में ही रहते हैं । अरविंद के खेत में टमाटर पूरे पके हुए थे, लिहाजा मेरे मन में सवाल कौंधने लगा कि जिस वक्त इन टमाटरों को बाजार में होना चाहिए उस समय ये खेत में क्यों है लिहाजा फसल को देखने की बजाय मैंने किसान अरविंद से मिलने का फैसला किया ।
चार एकड़ में फैले टमाटर के प्लाट के पास में अरविंद सिंह बड़े से हॉल नुमा बथान में दिखाई दिये । शायद वो अपने भाई और दोस्तों के साथ अपनी फसल को लेकर कुछ मंत्रणा में जुटे थे । मैं पहुंचा और अपना परिचय देते हुए उनके बीच बैठ गया । बातचीत शुरू हुई तो पता चला कि अरविंद सिंह ग्रेजुएट हैं। तीन भाईयों का संयुक्त परिवार है। बच्चे उच्च तालीम ले चुके हैं। बेटी भी एमए कर चुकी है। खेती उन्हें विरासत के रूप में मिली है। उनके पास काफी जमीन है जिसपर वो खुद खेती करते हैं । गेहूं, मक्का, तिलहन और दलहनी फसलों की खेती तो करते ही हैं साथ ही जमीन के एक बड़े हिस्से पर सब्जियां भी उगाते हैं । जिसमें मुख्य रूप से टमाटर और कददू का फसल चक्र बनाये हुए हैं। जून से सितम्बर तक कददू और नवम्बर से मई तक टमाटर का सीजन होता है। खास बात ये कि वो अपनी फसल के लिए हाईब्रिड बीज का इस्तेमाल करते हैं ।
इसबार अरविंद ने टमाटर की खेती के लिए सिजेन्टा कम्पनी का हाईब्रिड ‘हिम शिखर’ प्रभेद लगाया है। जो 75 हजार रूपये प्रतिकिलो के भाव से बाजार में मिलता है । अरविंद ने 100 ग्राम बीज लेकर नर्सरी तैयार कर नवंबर महीने में टमाटर की रोपाई की । अपने प्लाट को अनेक भागों में बांट कर एक निश्चित अंतराल पर रोपाई की ताकि फलन का भी अंतराल बना रहे जिससे तोड़ने में कोई परेशानी न हो। कतार से कतार की दूरी तीन फीट और पौधे से पौधे की दूरी दो फीट रखी गई है । तीन दिन के अंतराल पर जैव और कीटनाशक रसायन का नियमित छिड़काव अरविन्द खुद करते हैं । यानी टमाटर की अच्छी फसल के लिए जो भी जरूरी होता है अरविंद ने वो सभी विधि अपनी फसले के लिए अपनाई है ।
खैर मेरी दिलचस्पी इस बात को जानने में ज्यादी थी कि आखिर ये टमाटर अभी तक खेत में क्यों है जबकि सीजन खत्म होने में बस डेढ़ महीने ही बचे हैं। लिहाजा मैंने अरविंद से इसकी वजह जाननी चाही तो उनका कहना था कि “क्या करें, क्या औने-पौने भाव में बेच दें, जितनी लागत लगी है वो निकलना तो दूर टमाटर तोड़ने में जो लगात लगेगी वो भी नहीं मिल पा रहा है।” चार एकड़ में टमाटर तोड़ने की लागत प्रति किलो करीब एक रुपये पड़ती है जबकि बाजार में इस वक्त कोई दो रुपये किलो भी टमाटर लेने को तैयार नहीं । अरविंद टमाटर की खेती तो करते हैं लेकिन वो स्थानीय बाजार और आढ़तियों के भरोसे ही रहते हैं ऐसे में अरविंद को इंतजार है तो बाजार भाव चढ़ने का । अरविंद का कहना है कि अगर मई के आखिर तक मौसम ने साथ दिया और बाजार भाव चढ़ा तो कम से कम लागत तो निकल ही जाएगी । अरविंद के मुताबिक उन्होंने इस बार करीब 9.5 लाख रुपये टमाटर की खेती पर खर्च किया है ऐसे में अगर उनकी फसल की लागत नहीं निकली तो मुनाफा तो छोड़ दीजिये लागत भी डूब जाएगी फिर भी जो जोखिम ना उठाये वो किसान कैसा ये कहते हुए अरविंद हल्का सा मुस्कुराते हैं और अपनी अगली फसल यानी कद्दू की तैयारियों की बात करने लगेत हैं ।
मौसम और मंदी की मार झेल रहे जिस किसान ने हर हाल में खेती से मुंह न मोडने का संकल्प कर लिया हो, उसके जज्बे को सलाम करने का मन करता है। खेती से जुड़ाव ऐसा कि नफा-नुकसान की परवाह किए वगैर हर नये मौसम की सब्जी की खेती में जी जान से जुट जाता है। अरविंद के पास काफी जमीन है इसलिए किसी एक फसल से नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई वो दूसरी फसल से कर लेते हैं लेकिन आम किसान जिनके पास छोटी जमा पूंजी होती है उनके लिए तो हर फसल जीने और मरने के समान होती है । ऐसे में हमारी सरकारों को कुछ ऐसा इंतजाम करना चाहिए जिससे कम से कम किसान की उत्पादन लागत डूबने ना पाये ।
ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।