आज कल खेती को हर कोई घाटे का सौदा मानने लगा है। किसान खेतों में दिन रात खून पसीना बहाता है लेकिन आखिर में उसके पास कुछ नहीं बचता और किसान कर्ज में डूबता चला जाता है। आलम ये है कि किसान खुदकुशी जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। लेकिन कुछ ऐसे भी किसान हैं जो खेती को मुनाफे का सौदा मानते हैं। यही नहीं वो ऐसे किसान हैं, जिन्होंने नौकरी छोड़कर खेती का काम शुरू किया और आज अपने आसपास के किसानों को भी प्रशिक्षित कर रहे हैं। पिछले साल हमने एमबीए पास रवि पाल की कहानी आपको सुनाई थी आज बात दो ऐसे पंजाबी मुंडों की जिनकी फसल की महक पहाड़ों में ही नहीं कई दूसरे देशों तक फैल रही है। जिन्होंने पढ़ाई तो कनाडा में की लेकिन मिट्टी की महक उन्हें अपनी ओर खींच लाई और आज वो पहाड़ का सीना चीरकर गुलाब की खेती कर रहे हैं।
हम बात कर रहे हैं पंजाब के रहने वाले मनिंदर पाल सिंह रियार और मनजीत सिंह तूर की। जिन्होंने पारंपरिक खेती को छोड़ व्यावसायिक खेती का रास्ता अपनाया और आज गुलाब की कई किस्में उगाते हैं साथ ही अपना प्लांट लगाकर गुलाब का रस निकालकर बाजार में बेचते हैं यानी पैदावार से लेकर उसके बाजार में बेचने तक सारा इंतजाम कर रखा है और यही वजह है कि आज वो मुनाफे में हैं । हिमाचल से सटे पंजाब के होशियारपुर के कांगर गांव में गुलाब से रस निकालने का उनका प्लांट है । उनके फार्म में निकले गुलाब को तेल और गुलाब जल के व्यावसायिक उत्पादन के लिए भेजा जाता है साथ ही उनके खेत के गुलाब हिमाचल प्रदेश के चिंतपूर्णी और ज्वालामुखी के मंदिर में देवी-देवताओं को चढ़ाए जाते हैं। दरअसल मनिंदर और मनजीत ने 90 के दशक में न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली पारंपरिक खेती में आने वाली दुष्वारियों को भांप लिया था । शायद यही वजह रही कि उन्होंने विदेश में पढ़ाई करने के बावजूद खेती की जमीन हिंदुस्तान में खरीदी । दोनों ने हिमाचल की सीमा पर शिवालिक की तलहटी में कुछ पथरीली जमीन खरीदी । मनिंदर और मनजीत बताते हैं कि- हमने जो जमीन खरीदी थी वो काफी पथरीली और कंकड़ भरी थी, लेकिन वो काफी उपजाऊ थी जो फूलों की खेती के लिए काफी मुफीद थी । आप सोच रहे होंगे कि मनिंदर और मनजीत दोनों भाई होंगे लेकिन ऐसा नहीं है । मनिंदर जालंधर के रहने वाले हैं जबकि मनजीत पटियाला के भवानीगढ़ के मूल निवासी है । उनके परिजन आज भी गांवों में पारंपरिक खेती करते हैं लेकिन ये दोनों दोस्त पहाड़ की गोंद में गुलाब की खेती कर रहे हैं ।
मनिंदर बताते हैं कि ”शुरुआत में हमने अचार और सॉस बनाने के लिए आंवला के उत्पादन किया, लेकिन ज्यादा मुनाफा नहीं दिखा और महज दो साल के भीतर ही गुलाब की खेती का रुख कर लिया । आज इनके पास 25 एकड़ खेत है जिसमें ये गुलाब की अलग-अलग किस्में उगाते हैं । हालांकि इसके लिए इन्होंने बाकायदा प्रशिक्षण भी लिया है । हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोटेक्टनोलॉजी (IHBT) से तीन महीने के प्रशिक्षण के बाद ही इन्होंने गुलाब की खेती शुरू की । IHBT में गुलाब की खेती, गुलाब तेल, गुलाब जल के लिए रस निकालने का हुनर सीखा और फिर शुरू कर दी गुलाब की महक बिखेरनी । मनिंदर के मुताबिक ‘आईएचबीटी की संकर किस्म बुल्गारिया रोजा डेमसेना हमारी मिट्टी और जलवायु दोनों के लिए अनुकूल थी’ लिहाजा हमने जो कुछ भी किया उसे बागवानी के विशेषज्ञ भी काफी पसंद करते हैं।’
मनिंदर कनाडा में टोरंटो स्थित रोटमैन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट से स्नातक हैं । लिहाजा वो खेती में हर दिन नये नये प्रयोग के जरिए लोगों को चौंका रहे हैं । ये लोग कुछ और भी नया करने वाले हैं जिसका खुलासा अभी वो नहीं करना चाहते लेकिन वो कहते हैं कि हम जो करने वाले हैं वो कृषि के क्षेत्र के लिए बिल्कुल नया होगा और खेती करने वालों को बड़े पैमाने पर फायदा पहुंचाएगा।’
ऐसा नहीं है कि इस काम में उनके सामने कोई मुश्किल नहीं आई । जिस तरह कांटों के बीच गुलाब अपनी महक बिखेरता है उसकी तरह आज भले ही सबको ये लगता है कि ये दोनों इतने बड़े किसान बन चुके हैं लेकिन इसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है । मनिंदर बताते हैं कि बाजार के हिसाब से भारतीय गुलाब को विकसित करने में उन्हें करीब चार साल (1996-2000) लगे । भारत में गुलाब उद्योग के लिए गुलाब और उसका सत बुल्गारिया से मंगाया जाता था लेकिन हमने लोगों को यह समझाया कि हम लोग जो गुलाब उगाते हैं वो किसी भी मायने में बुल्गारिया से कम नहीं है । यही नहीं करीब 3 साल तक इनके खेतों में पैदा किया गया गुलाब न्यूयॉर्क स्थित फ्रेंच कंपनी के लिए भेजा गया हालांकि उनकी मांग के मुताबिक उत्पादन नहीं हो सका जिस वजह से बाद में बंद करना पड़ा । लिहाजा हमने ज्यादा मुनाफे के बिना ही इसे भारतीय बाजार में ही बेचने का फैसला किया ।
मनिंदर और मनजीत एक टीम की तरह काम करते हैं। इसलिए दोनों ने एक किस्म की बजाय अलग-अलग किस्म की फसल उगाने का फैसला किया । एक रेड रोजा बोरबोनियाना उगाता है तो दूसरा पिंक रोजा दमासेना । जो मार्च-अप्रैल के महीने में छह हफ्ते के लिए खिलती है। 4 एकड़ में फैले रोजा बोरबोनियाना से प्रतिदिन फूल तोड़े जाते हैं और उसे कांगड़ा जिले में स्थित ज्वालाजी मंदिर और उना के चिंतपूर्णी मंदिर में भेजा जाता है जहां भक्त खरीद कर उसे चढ़ाते हैं। जून-जुलाई महीने में फूल की मांग बढ़कर 80 किलोग्राम प्रतिदिन पहुंच जाती है और साल के बाकी महीने में इसकी मांग 40 से 60 किलोग्राम प्रति दिन रहती है। इन फूलों को एक बस के जरिए पहले होशियारपुर भेजा जाता है और उसके बाद इन्हें दोनों मंदिरों में भेज दिया जाता है।
रोजा दमासेना के रस या सत का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन के मकसद से गुलाब तेल और गुलाब जल बनाने में होता है। इस किस्म के गुलाब का उत्पादन ये लोग 18 एकड़ में करते हैं। इनके गुलाब तेल और गुलाब जल दिल्ली के खुले बाजार में बेचे जाते हैं साथ ही विदेशी परफ्यूम निर्माताओं को निर्यात भी करते हैं। मनिंदर बताते हैं कि ‘एक समय इस इलाके में 60 एकड़ की खेती के साथ ये लोग सबसे बड़े गुलाब उत्पादक थे लेकिन अब ये सिमट कर 25 एकड़ हो गई है । क्योंकि परिवार की जरूरत के हिसाब से बीच में गुलाब की खेती के साथ ऑर्गेनिक गेहूं और बासमती चावल भी उगाया जाता है ।
मनिंदर और मनजीत आज गुलाब के मास्टर हो चुके हैं । इसलिए इन्हें अच्छी तरह पता है कि गुलाब को कब और कैसे उगाना है और कैसे तोड़ना है । गुलाब को तोड़ने का सबसे अच्छा वक्त सूर्योदय या फिर सूर्यास्त का होता है । ये वो वक्त है जब फूल सबसे ज्यादा सुगंध देता है । ये लोग गुलाब के रस या सत की जांच बेंगलुरु स्थित काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) के फ्रेगरेंस एंड फ्लेवर डेवलपमेंट सेंटर (एफएफडीसी) की प्रयोगशाला में कराते हैं ।
कम लागत, ज्यादा मुनाफा
रोजा बोरबोनियाना की किस्म की खास गुलाब के लिए प्रतिदिन तोड़ाई की जरूरत होती है।
होशियारपुर फार्म पर इसके लिए करीब 35 मजदूर दिन-रात काम करते हैं।
यहां प्रत्येक मजदूर 250 रुपये प्रतिदिन कमाता है।
10 से 12 साल में एक बार में करीब एक एकड़ में 40 हजार रुपये का खर्च आता है।
इसमे सालाना लागत, हरी खाद, डीएपी और कटाई-छंटाई का खर्च भी शामिल है।
रोजा बोरबोनियाना–(गुलाब की किस्म)
लाल गुलाब की सालभर की किस्म नवंबर से जनवरी तक होती है ।
हर रोज प्रति एकड़ करीब 20 किलो गुलाब तोड़ा जात है ।
बाजार में इसकी कीमत सामान्य दिनों में करीब 60 रुपये प्रति किलो होती है ।
रोजा डेमासेना
गुलाब की किस्म साल भर की बजाय मार्च-अप्रैल यानी छह सप्ताह की फसल होती है ।
साल भर में प्रति एकड़ करीब 800 से 1000 किलो पैदावार होती है ।
पांच हजार किलो गुलाब से एक किलो गुलाब तेल तैयार किया जाता है
एक किलो गुलाब तेल की कीमत करीब 5-6 लाख रुपये होती है ।
यानी प्रति एकड़ 80 हजार से एक लाख की कमाई साभार- इफको लाइव
मनिन्दर और मंजीत रोल माडल हो सकते हैं , व्यावसायिक खेती के लिए। उनके जज्बे को सराहा जाना चाहिए , अर्थोपार्जन की दृष्टि से। लेकिन , भाई गुलाब गेहूं नहीं हो सकता । हां गेहूं जिसे खा कर गुलाब की कमनीयता महसूस की जा सकती है। खाली पेट तो संत भगवत् भजन भी नहीं करते। जरूरत है पहले गेहूं (भौतिक समृद्धि)की फिर गुलाब (सांस्कृतिक समृद्धि तो आ ही जाएगी। गेहूं , मतलब वैसा अनाज जो पेट भर सके ,उगाने वाले की हालत तो जगजाहिर है। गेहूं का स्थानापन्न गुलाब नहीं हो सकता। अगर हुआ तो हमें फिर 60के दशक वाली 480पीएल ए जैसे अमानवीय समझौता विकसित राष्ट्रों से करने पर सकते हैं ।