कश्मीर- किसके लिए कर्फ़्यू, तलाशियां, कष्ट और बलिदान

कश्मीर- किसके लिए कर्फ़्यू, तलाशियां, कष्ट और बलिदान

धीरेंद्र पुंडीर

वो जवान किसके लिए वहां है। वो किस देश के वासी थे जो बहु-बेटियों की इज्जत और अपनी जान बचाकर भागे थे। सभी अपहरणों, हत्याओं, संकटों, विनाश और अव्यवस्था के लिए दोषी कौन है ? इसके लिए दोषी केवल आतंकवादी ही नहीं, दोषी वे भी है जो वास्तविकता से मुंह मोड़ लेते हैं, आंखें मूंद लेते हैं। हत्याओं के लिए क्लानिशकोव रायफलें दोषी नहीं, इसके लिए उपेक्षा, सामान्य समझने की वृत्ति और लापरवाही आदि बातें उत्तरदायी हैं, जिनसे होने वाला विनाश दिखाई भी नहीं देता।

किसके लिए हम ये असाधारण लड़ाई लड़ रहे थे ? किसके लिए हम अपने आपको और अपने परिवारों को खतरे में डाल रहे थे ? किसके लिए सीमा सुरक्षा बल और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान सीली-गलियों में सारी-सारी रात बरफ के तूफान में खड़े रहते हैं ? किसके लिए अरबों रूपये खर्च किए जा रहे हैं? किसले लिए कर्फ्यू, तलाशियां औरअनेक अप्रिय कार्य किये जा रहे थे ? क्या ये सब कष्ट, बलिदान और व्यय इसलिए किया जा रहा है कि फिर से उसी भ्रष्ट्र ,निकम्मे गुट को सत्ता में लाया जाए? क्या हम पुन उसी को सत्ता में लाना चाहते है? ( My Frozen Turbulence in Kashmir)

हो सकता है कि कई दोस्त इसलिए नाराज हो जाएं कि मैं कश्मीर-कश्मीर गा रहा हूं। इस वक्त देश में अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का मसला भी है, इस वक्त देश में बूचड़खाने का मसला भी है और नहीं तो रोमियो स्कवाड पर बात की जा सकती है। ऐसी दर्जनों समस्याएँ हैं जिन पर लिखा जाना चाहिए। ऐसी हजारों बातें है जिस पर लिखा जाना चाहिए और जिन पर बात करनी चाहिए। मसलन मेरठ में लगा हुआ पोस्टर कि यूपी में रहना होगा तो योगी योगी कहना होगा, उस पर नहीं लिख रहा हूं। ये भी मेरे बहुत से बौने दोस्तों ने ( मैं भी बौना ही हूं पत्रकार हूं) बातचीत में कहा या फिर वॉल पर भी लिखा।

मैं भी कई बार हिचक जाता हूं कि जब दिल्ली में ही जेएनयू है, दिल्ली में ही बहुत से दूसरे लोग है जिनकी चिंता फिलिस्तीन से लेकर इथोपिया और नाईजीरिया में अत्याचारों को लेकर है और मैं कश्मीर की बात कर रहा हूं। वही कश्मीर जहां हिंदुस्तानी शासन का क्रूर चेहरा (अंग्रेजीदां पत्रकारों की नजर से) दिख रहा है। वो कश्मीर के उन नौजवानों को रोकना चाह रहे हैं जो हिंदुस्तान की जमीन को छीनकर इस्लामिक कट्टरपंथियों को तोहफे में देना चाहते हैं। जो बेचारे खिलाफत के खुरासान मॉडल के विकासपरक स्वरूप को लागू करना चाहते हैं। मुझे मालूम है दिल्ली के मासूम अंग्रेजीदां कश्मीर में तमाम मासूमों के हक की आवाज में लड़ रहे है। वो लिख रहे है कि मारे गये युवकों में से एक भी पत्थरबाज नहीं था। वो लिख रहे हैं कि जिसको जीप पर बैठाया गया वो तो बेचारा वोट डालने गया। एक और अखबार ने लिखा कि मासूम तो तमाशा देखने गये थे। और वो वीडियो जिसमें वो मतदान केन्द्रों को लूटने वाली भीड़ में पत्थर फेंक रहे है वो वीडियो मॉर्फ है।

जवानों की लाशों के घर लौटने पर इन अभिव्यक्ति के दीवानों की खुशी इतनी बढ़ जाती है कि वो बेचारे ट्वीट भी नहीं कर पाते हैं। दरअसल ये एक नया पंथ है जिसकी जड़ें हिंदुस्तानियों में ही है। क्योंकि इस पंथ और अभिव्यक्ति की बात करना तो सूरज का पश्चिम से निकलना ही होता है और इसके लिए किसी से वाद-विवाद करने की बजाय सिर्फ इतिहास पर नजर डालने की जरूरत है ( जिस देश में वामपंथी सत्ता में आएँ वहां विरोध की बात तो अलग है बोलने भर पर जुबां काटकर गले के साथ कल्ला मीनार बना दी गई) । ऐसे में फिर ये सवाल उठता है कि इस विरोध का हल क्या है ?

इसका एक ही मतलब है कि पहले तो ये बात साफ हो कि कश्मीर भारत का हिस्सा है। ये सिर्फ एक उक्ति भर नहीं है। मैं कई बार साथ के दोस्तों की बातों में हैरान हो जाता हूं। वो इस बात के लिए लड़ने लगते है कि जब नक्सल नहीं खत्म हो रहा है तो कश्मीर की बात क्यों कर रहे हो। कश्मीर में ऐसा क्या है। इस बात का जवाब उनको अच्छे से मालूम है लेकिन क्या किया जाए देश के खिलाफ खड़े होने भर से विद्वान बन जाएं और कुछ नुकसान भी न हो तो इसमें क्या घिसता है।

एक पूरा अलग नरेटिव पूरे कश्मीर में तैयार हो गया है। कश्मीर के नाम पर सुरक्षा बलों को कोसने वाले को ये पूछना अपनी जात भंडवाना है कि भाई एक सी नदियां और एक सी फसलों और एक जैसे माहौल वाले लद्दाख और कश्मीर घाटी में ऐसा क्या अलग हो जाता है जो पत्थरबाज पैदा कर देता है। जो रातों रात लाखों लोगों को अपनी बेटियां और औरते छोड़कर भाग जाने को कहता है। कई बार लगता है कि अत्याचारों की इस श्रृंखला इतिहास के अंदर धंसकर कभी बाहर निकली ही नहीं । एक के बाद एक इतिहास के दावानल इसको भड़काते रहे है। और बाकि देश ( जो अलग-अलग राज्यों में था एक साथ रियेक्ट नहीं करता था) इससे अलग-थलग रहा।

कश्मीरियत की बात करने वाले के मुंह से तब जुबां गायब हो जाती है जब पूछा जाए कि अगर सरकार कश्मीर में अलग से पंडितों की कालोनी बसा रही है तो उसका विरोध क्यों। क्या वो हजारों सालों से उसी धरती पर नहीं रहे। क्या उन्होंने सदियों से सिर्फ एक खास धर्म से रिश्ता रखने के चलते अत्याचार नहीं सहे। और अब जब देश धर्म के नाम पर बंटा, तब भी उन्हें उनके पुरखों की भूमि से ही बेदखल कर दिया। और कोई बोला भी नहीं क्योंकि उनके धर्म में किसी का साथ देना बहुत मान्य नहीं है। और जो बोलेगा उसको उसी धर्म के दूसरे फौरन कट्टरपंथी कह देंगे।

क्या डरे हुए उन लोगों को घाटी में एक सेफ जगह पर कालोनी बना कर रख देने से धरती उलट जाएगी। दिल्ली में बैठकर अंग्रेजियत के सहारे इस देश में विद्वता का परचम फहरा रहे पत्रकारों से पूछना चाहिए कि भाई सवाल पूछने पर तुमको क्या जवाब देते हैं मानवीय अलगाववादी। कट्टरपंथ क्या कर सकता है इसका उदाहरण दुनिया के लगभग हर हिस्से में दिख रहा है लेकिन इस देश के पत्रकारों ने इस तरह से अपना जाल तैयार किया है कि जो विक्टिम है वही षडयंत्रकारी बन गया है। जो क्रूरता को अपना हथियार बना कर सदियों की एक सभ्यता को कुचलने पर लगे हुए हैं, वो मानवीय दिखाएं जा रहे हैं।

कई बार तो लगता है कि एक बड़ा षडयंत्र इस तरह से चलाया जा रहा है कि एक देश को पूर्णतया तबाह और बर्बाद कर दिया जाए। ऐसे ही एक और साथी ने बातचीत में कहा कि आपका देश कौन सा है जो इस तरह सुरक्षा बलों की हिमायत कर रहा है। मैं अचकचा गया और मुझे वाकई लगा कि हां ये सवाल तो वाकई बड़ा है कि देश कौन सा है मेरा। और उन लाखों कश्मीरियों का देश कौन सा था जो रात में अपनी बहु बेटियों की इज्जत शांतिप्रिय कट्ट्रपंथियों के हाथ से बचाकर भागे थे। रात-रात में हजारों नहीं लाखों की तादाद में सदियों से एक संस्कृति के हिस्सेदार जान बचाने के लिए भाग निकले क्योंकि वहां एक शांति की स्थापना का यज्ञ चल रहा था।

मैं अखबारों की उन कतरनों की अभी तलाश कर रहा हूं जिनमें उस रात के दुनिया के जालिमाना तरीकों से हुए पलायनों में शुमार एक पलायन का जिक्र हो। और मुझे हैरानी होती है कि पूरे देश को अंधेरे में रखा अपने आपको रोशनी की मीनार बताने वाले पत्रकारों ने। मुझे लगता है कि पत्रकारिता के उन बौंनों को एक देश होने से ही नफरत सी हो गई है। उनको लगता है कि मोदी या फिर बीजेपी इस परिवर्तन की हामी है। लेकिन बीजेपी या फिर उसके चेहरे बने हुए मोदी इसके पीछे नहीं है। इतिहास का परिवर्तन हमेशा से जिंदगी की खिड़कियों से झांकता है। ये वामपंथियों की फैलाई गई नफरत से पैदा हुए झूठ का नकार है।

हां ये देश जरूर एक नहीं रहा होगा लेकिन इस पर अत्याचारों की परत जिस तरह से चढ़ाई गई वो इसके लोगों को एक मानकर ही की गई। मैं कश्मीर के इतिहासकार को पढ़ रहा था। सईद तसद्दक हुसैन साहब बता रहे थे कि कश्मीर का जिक्र तो कभी पुराणों में भी नहीं था। उनको शायद ये भी लग रहा था कि 1320 में ही कश्मीर का जन्म हआ, जब मंगोल जुलुजु ने हमला किया। खैर ये बात बहुत पुरानी हो जाती है । और इसका बोझ हिंदुस्तानी दिमागों पर नहीं आना चाहिए क्योंकि इतिहास से उनकी दुश्मनी वामपंथियों ने पैदा कर दी थी। आज मैं एक किताब की कुछ लाईंने ही लिख रहा हूं ये बताने के लिए कि साहब आपने-अपनी आंखें खोलिए।

” The winter of 1985 was tenuous. But storms were already gathering by February. One day the pent up hate of the majority community found expression in a communal frenzy which had not been seen earlier. Many temples and shrines in the Anantnag district of South Kashmir were torched. The mayhem was so profound, and hate so wide spread, that the idols in these beautiful, quaint temples were smashed beyond recognition. Some of the idols were pieces of art, and part of our collective heritage. These temples were spread over many villages in serene places, overlooking a natural springs and sacred groves. Our greatest festival Shivaratri was approaching. The sudden and violent attack on our symbols of culture and faith made us sink to the depths of despair. Several Pandit men and women were injured, and many killed, in the communal riots. The Muslims of south Kashmir were full of hate for the Pandits.”
(Pradeep kaul—–A LONG DREAM OF HOME)

गाय को लेकर चल रही बहस में मैं बहुत हिस्सा नहीं लेता हूं क्योंकि एक दम से किसी को भी संघी कहना इतना आसान हो गया जैसे पानी पीते वक्त मुंह को गिलास से सटाना। और गाय कश्मीर में धर्मांतरण में किस तरह इस्तेमाल की गईं वो कहानियां मैं सुनाना नहीं चाहता वो तो आप कि


माल के लिए कुछ लाईने दे रहा हूं। हो सकता है कि इस पर किसी को आपत्ति हो तो रेफरेंस देख सकता है।

“Open sell of beef was encouraged. The Pandits had not seen such huge carcasses hanging from the butcher shops earlier. The sight was very revolting.These carcasses were now hanging all over. To escape this ignominy thrust upon us we found ways to escape their nauseating sight by making lengthy detours through side alleys and bylanes to escape thes butchers shops. The common kashmiri had now found a new metaphor for ‘freedom’ in these dangling beef chunks.
(Pradeep kaul—–A LONG DREAM OF HOME)


dhirendra pundhirधीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।