ब्रह्मानंद ठाकुर
पूरी दुनिया आज बाजार बन गयी है। पूंजीवाद ने पूरी दुनिया को बारूद की ढेर पर लाकर खड़ा कर दिया है। मानवता खतरे में है। लोक से निरपेक्ष होकर लोकतंत्र आज अपनी सार्थकता खो रहा है। सामंती शोषण-शासन के बाद समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के उच्चतम आदर्शों के साथ जो पूंजीवाद आया था, वही आज अपने उन आदर्शों को कुचल रहा है। ऐसे ही अनेक सवाल हैं जो हमें लगातार मथते रहे हैं। कुछ लोग समाजवाद के रास्ते इस समस्या के स्थाई समाधान के पक्षधर हैं तो कुछ लोग गांधीवाद को मानव मुक्ति की राह बताते हैं। इन्हीं शंकाओं, सवालों को लेकर प्रख्यात समाजवादी चिंतक और लेखक सच्चिदानन्द सिन्हा जी से मिला। जो लोग अभी उनसे नहीं मिले हैं, उन्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि करीब 25 से ऊपर पुस्तकें लिख चुके 89 साल के सच्चिदा बाबू कैसे अकेले और इतनी सादगी के साथ रहते हैं। उन्होंने मोबाईल फोन का उपयोग इधर दो सालों से करना शुरू किया है। कहते हैं जब किसी का फोन आता है तो चिंतन की एकाग्रता में व्यवधान पैदा हो जाया करता है। दुनिया की खबरों से रू-ब-रू होते रहने के लिए मात्र एक रेडियो है। ऐसा नहीं कि सुख-सुविधा के आधुनिक साधनों के उपयोग करने की उनकी क्षमता नहीं है। सब कुछ है लेकिन सच्चिदा बाबू ने अपनी जरूरतें सीमित कर रखी हैं। किसी भी आगंतुक को चाय अपने हाथों से बनाकर पिलाते हैं। उपभोक्तावाद में समाजवाद की प्रासंगिकता समेत तमाम मसलों पर बदलाव के अतिथि संपादक ब्रह्मानंद ठाकुर की सच्चिदानंद सिन्हा से हुई बातचीत के अंश ।
बदलाव- मौजूदा दौर में आप समाजवाद को किस रूप में देख रहे हैं?
सच्चिदा बाबू– देखिए, समाजवाद एक बड़ी ही गम्भीर विचारधारा है। लेकिन आज के दौर में भटकाव का शिकार है। यह एक सशक्त विचारधारा थी जो मार्क्सवाद से प्रभावित थी। पिछले सौ सालों का अनुभव यह बताता है कि यह विचारधारा तब जितना ही वैज्ञानिक थी, आज उतनी ही अव्यहारिक हो गयी है। मार्क्सवादी विचारधारा की सबसे बड़ी ताकत औद्योगिक सभ्यता को केन्द्र में रख कर पैदा हुई थी। तब लोगों में यह भरोसा था कि वैज्ञानिक उपलब्धि और चिंतन के सहारे समाज को बदला जा सकता है। लेकिन वक्त के साथ यह भ्रम टूटा और जिस औद्योगिक व्यवस्था को केन्द्र में रख कर समतामूलक समाज की स्थापना की परिकल्पना की गयी थी, अंतत: वही औद्योगिक सभ्यता मानव और प्रकृति विरोधी हो गयी। यह तो निर्माण के बदले विनाश का कारण बन गया। न्याय और समता के लिए इसमें कहीं कोई जगह ही नहीं बची ।
औद्योगिक व्यवस्था की शुरुआत 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति से हुई। इसके पीछे जीवाश्म ऊर्जा स्रोत और कोयले का महत्वपूर्ण योगदान रहा । फिर इससे एक कदम आगे बढ़कर लोगों ने पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि का सहारा लिया। 19वीं शताब्दी के प्रख्यात अर्थशास्त्री जेवोन्स ने लिखा है- कोयला तो एक क्षरणशील ऊर्जा स्रोत है जो धीरे धीरे समाप्त हो जाएगा। हालांकि उस वक्त उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया। पेट्रोलियम समेत अन्य प्राकृतिक संसाधन ऊर्जा के स्रोत बने जो बाद में धीरे धीरे खत्म होने लगे। आज दुनिया के देशों मे जो गलाकाट प्रतिस्पर्धा है, वह इन्हीं ऊर्जा स्रोतों पर कब्जा हासिल करने को लेकर है। 20वीं शताब्दी के मध्य में एक जर्मन विशेषज्ञ शुमाकर ने भी प्राकृतिक संरचनाओं को बचाए रखने और प्राकृतिक सम्पदा के अविवेकपूर्ण दोहन नहीं किए जाने पर बल देते हुए अपनी पुस्तक दि स्मॉल इज ब्युटीफुल में कुछ ऐसी ही बातें कहीं हैं।
बदलाव- मार्क्सवाद और डॉ. लोहिया के समाजवाद में क्या फर्क है ?
सच्चिदा बाबू– मार्क्सवाद जहां सीधे औद्योगिकीकरण पर जोर देता है वहीं लोहिया का स्मॉल तकनीक पर जोर रहा। वे ‘स्मॉल इज ब्युटीफुल’ पुस्तक की बातों से सहमत थे। निर्वाध औद्योगितीकरण से न केवल ऊर्जा स्रोतों को ही खत्म किया जाता है, बल्कि इस प्रक्रिया में दूसरे प्राकृतिक संसाधन भी नष्ट होते हैं। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है। एक बड़ी आबादी को विस्थापन झेलना पड़ता है। संसाधनों के उपयोग से जो उत्सर्जन होता है उससे धरती पर, सम्पूर्ण प्राणीजगत पर प्रतिकूल असर पडता है। इसका दुष्परिणाम दुनिया के सामने है। आज आलम ये है कि शहर ही नहीं गांवों मे भी लोगों को मास्क लगा कर चलना पड़ रहा है ।
निर्वाध औद्योगिकीकरण दूसरे प्रकार से भी जनता का शोषण करता है। खनिज निकालने में, पनबिजली के लिए नदियों पर बांध बनाने में और बड़े बड़े उद्योग लगाने से किसान और जंगलों पर आश्रित आदिवासी विस्थापित होते हैं। कृषि योग्य भूमि का नुकसान होता है। तीन फीसदी सालाना विकास दर होने पर 1924 से 1940 तक के 16 सालों में मनुष्य ने जितने प्राकृतिक संसाधनो का इस्तेमाल कर लिया, वह मनुष्य के पृथ्वी पर आने से आज तक के बराबर है। लाखों वर्ष के संसाधन के बराबर आज संसाधन नष्ट हो रहे हैं। इसलिए लोहिया प्रकृति से सामंजस्य बैठाते हुए विकास के पक्षधर थे।
बदलाव- आपकी दृष्टि में विकास का आधुनिक मॉडल कैसा होना चाहिए?
सच्चिदाबाबू– भौतिकी में इन्ट्रोपी (सम ताप) का एक सिद्धांत है। उसे समझने की जरूरत है। इसमें ज्यादा ताप कम ताप की ओर संक्रमण करता है। एक समय ऐसा भी आएगा जब यह प्रक्रिया रुक जाएगी । तब दोनों तरफ समताप की स्थिति बन जाएगी। मतलब न अधिक ताप होगा और न वह कम ताप की ओर संक्रमण कर पायेगी। वह स्थिर हो जाएगी । ऐसी दशा में प्रकृति और जीवन नष्ट हो जाएगा । इस स्थिति से बचने के लिए हमें तो प्राकृतिक संतुलन हर हाल में बनाए रखना होगा। जो विकास के मौजूदा मॉडल से मुमकिन नहीं है। इसके लिए हमें विकास का गांधीवादी तरीका अपनाना होगा, जिसमें प्रकृति को कम से कम नुकसान पहुंचा कर उससे ताल मेल बैठाने की कोशिश की जाती है । तभी दुनिया का वास्तविक भला होगा । अन्यथा हम एक समस्या के समाधान की कोशिश में लगातार दूसरी समस्यायें पैदा करते रहेंगे। विज्ञान से सीख लेते हुए व्यापक जन हित में विकास के रास्ते की तलाश आज जरूरी है। मेरी समझ में गांधीवाद के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं ।
सच्चिदाबाबू ने इस संक्षिप्त चर्चा का अंत मुस्कुराते हुए एक फिल्मी गीत की पंक्ति से किया – ना ना कर के प्यार तुम्हीं से कर बैठे, करना था इन्कार,मगर इकरार तुम्हीं से कर बैठे। भले ही और लोग इस पंक्ति का मर्म न समझें लेकिन मैं तो समझ ही गया कि यह इस महान समाजवादी चिंतक का समाजवाद से गांधीवाद की तरफ लौटने का इशारा है।
ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।