धीरेंद्र पुंडीर
“हर बार जब भी मेरा बेटा अपनी मां के लिए रोता है, मैं सहन नहीं कर पाता हूं। और मैं उसके बिना अकेला महसूस करता हूं। मैं उसके साथ रहने के लिए जा रहा हूं।”
कागज पर लिखे हुए ये आखिरी शब्द अब उस दो साल के मासूम के लिए अपने पिता की विरासत होंगे। कागज तो बेजान सी चीज है, लिहाजा वो दर्द से उबल नहीं सकता लेकिन उस कागज पर कई सारे सूखे हुए आंसू शायद उन सभी आंखों के होंगे जिनके हाथों ने इस कागज पर लिखी हुई इबारत को पढ़ने की कोशिश की होगी। यहां तक कि पुलिसवालों की आवाज से भी लोग आंसूओं का टपकना महसूस कर सकते थे। बाप ने आत्महत्या करने से पहले बस यही लिखा था कागज पर। दो साल के बेटे लिए या फिर दुनिया के लिए ये भी साफ नहीं पता चलता।
दो साल का अकेला बच्चा जिसकी मां ने दस दिन पहले ही पंखे से लटक कर जान दे दी थी। दो साल में मां की गोद से बड़ी और कोई चीज न देखने वाले मासूम को मालूम नहीं कि अब मां को फोटो के अलावा कहीं और नहीं देखना है। और वो छोटे से घर के बड़े से वीराने में अपनी मां को तलाश करता हुआ रोता था कि अपने राजा बेटे के रोने की आवाज से नींद में भी जाग जाने वाली मां आकर उसे गोद में भर लेगी। लेकिन मां तो नहीं आई। बेटे की रोने आवाज ने उसके पिता के सीने को भी चाक कर दिया। बेटे को प्यार करने की चाहत में बेटे को सबसे बड़ा दंश दे दिया बाप ने। दिल्ली के एक आम से जो़ड़े के बीच छोटी सी कहा-सुनी ने एक मासूम की जिंदगी को शायद सालों के वीराने में तब्दील कर दिया।
बात तो इतनी सी है कि दस दिन पहले बच्चे की मां प्रिया ने कुछ सामान लाने के लिए अपने पति विजय से कुछ पैसे मांगे थे। विजय के पास उस दिन पैसे नहीं थे। बात बढ़ गई। प्रिया ने वो गुल्लक तोड़ कर पैसे निकाल लिए जिसमें चंद पैसे किसी आपात वक्त के लिए रखे हुए थे ( जिस तरह के हालात में दुनिया है उसमें ये हर वक्त ही आपात वक्त रहता है, बस कुछ दूर छिपा हुआ सा)। विजय को और गुस्सा आ गया, तनातनी बढ़ी और गुस्से में विजय ने प्रिया को डांट दिया। प्रिया अंदर चली गई और उसने दरवाजा बंद कर लिया।
कुछ देर में गुस्सा शांत होने के बाद जब विजय ने दरवाजा खुलवाना चाहा तो दरवाजा बंद था। घबराए हुए विजय ने परिवार के बाकि सदस्यों को चिल्ला कर बुलाया। दरवाजा तोड़ा गयाऔर वहां पंखे से लटकी हुई प्रिया मिली। अपने जिस बच्चे के लिए कुछ सामान लाने के लिए बात इतनी बढ़ी थी वो लटकी हुई मां को देखकर कुछ समझ भी नहीं पा रहा होगा। प्रिया का अंतिम संस्कार हुआ और बच्चे के पास बस बाप बच गया। कुछ दिन तक विजय ने खुद को और बच्चे को संभाला लेकिन जल्दी ही टूट गया। और फिर एक दिन बच्चे की आवाज से बचने के लिए हमेशा बच्चे के गले में चीख थमा कर वो भी फंदे से झूल गया।
सनसनीखेज खबरों की दुनिया में इस तरह की खबरें जाने कहां खो जाती हैं, पता ही नहीं चलता। इस तरह की खबरें रोज हर अखबार में छपी मिलती हैं लेकिन उस पर किसी को कभी बात करते हुए नहीं देखता। मैं खुद भी योगी के नए फैसलों और रोहिंग्या घुसपैठियों की खबरों पर प्रोग्राम तैयार करने की धुन में खोया हुआ था कि सायक ने कहा पापा नहाने का समय हो गया। और मैं चल दिया बाथरूम की ओर (सायक की छुट्टी हो तो मुझे ही उसको नहलाना होता है)। मैं कुछ और सोच ही रहा था कि सायक तेज आवाज में बोला “पापा क्या कर रहे हो बुलबुले मेरी आंखों में जा रहे हैं। अरे मेरा दिमाग वापस लौटा, एक बाप ही ये जान सकता है कि बेटे को नहलाने जैसे बेहद आम काम में बेटे और बाप के रिश्ते की कैमिस्ट्री दुनिया की निगाह से अलग होती है। सिर्फ बाप जानता है कि बेटे को शैंपू के कितने बुलबुले से सर भर जाने पर डर लगता है और पानी को किस तरह से उसके सर पर डालना है कि वो बिना डरे नहा ले। नहाते वक्त बाप के कपड़ों पर पानी डालने और झुंझलाहट पर हंसने वाले बेटे की वो मासूम सी शरारतें सिर्फ बाप के लिए ही बनी होती है। वो मुस्कुराहटें और किसी के सामने खुल ही नहीं सकती है।
और मैं सिर्फ ये सोच रहा हूूूूं कि विजय तुम ये कैसे भूल गए कि मां भले ही नहीं रही थी लेकिन बाप भी मां हो सकता है। बेटे के लिए मां तो नहीं आ सकती थी लेकिन उसके पास बाप तो बचा हुआ था जिससे वो अपने अकेलेपन का दर्द और मां के प्यार की बातें कर सकता था। लेकिन अब वो मासूम अपने डर भी किसी को नहीं बता पाएगा। मैं नहीं जानता हूं कि वो कैसे अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाएगा। हालांकि इस मासूम को पालने के लिए प्रिया की बहन और विजय का भाई (वो पति-पत्नि है) है लेकिन इस वक्त देश में हजारों ऐसे मासूम अलग-अलग संस्थाओं में पल रहे है जिनके मां या बाप, या फिर दोनों नहीं है। ऐसे मासूम बच्चे जिनको सड़कें पालती हैं या फिर अनाथालय में हृदयहीन सिस्टम उनकी रगों में दौड़ते हुए खून को पानी में बदल रहा है। अनाथालयों के अंदर की कहानियां जब सामने आती हैं तो लगता है कि खून सफेद हो उठा हो।
सड़कों पर एक्सीडेंट की ऐसी सैकड़ों कहानियां रोज हमारी आंखों के सामने से गुजरती हैं जिसमें बच्चों के मां-बाप दोनों गुजर जाते हैं। ऐसे बच्चे कहां पलते हैं, उनकी दुनियां कैसे बदल जाती है। एक सपनों की दुनिया उनको पत्थर की दुनिया महसूस होने लगती है। जाने किस डर में आजकल जीने लगा हूं। अखबार में किसी भी ऐसी खबर में सबसे पहले मेरी निगाह खोजती है कि मरने वाले के पीछे कौन -कौन है। वो कितने मासूम बच्चे हैं, जिनके हाथ शाम को बाप की गोद में चढ़ने के लिए फैल जाते हैं। दिन भर रोज अनजान और पहुंच से दूर होती जा रही पथरीली दुनिया के रास्ते से गुजर कर पत्थर जैसे चेहरे को लेकर घर पहुंचे हुए बाप के चेहरे को पिघला देने वाली मुस्कुराहट के साथ दरवाजे पर इंतजार करती हुई मासूम आंखें फिर किसको अपनी आंखों में ये जगह दे पाती हैं या नहीं।
पता नहीं लोग इस बात से कोई ताल्लुक रखते है कि नहीं लेकिन अब मुझे लगता है कि देश में इस तरह के बच्चों की तादाद काफी ज्यादा हो गई है। लेकिन मुझे कभी कोई सरकारी नुमाइंदा इस पर बात करते हुए नहीं दिखता। कोई एडिटोरियल इस पर नहीं दिखता। क्या कुछ लोग हैं, जो इस तरह के बच्चों के लिए कुछ कर रहे हैं, अगर है तो अखबारों में क्यों नहीं दिखते ?
कुंवर बैचेन साहब की कुछ लाईंने शायद इस बात को अपने शब्दों में सही से कह पाती हों
पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता है नचिकेता कि
उनका संसार
अभी जीवित है।
पढते हुए आंखें भर आयीं। और अंदर एक आक्रोश -सा सुलग उठा। काश ! कुछ ऐसा सार्थक कर पाता जिससे इन मासूम के चेहरे की मुस्कान कभी गायब नहीं होती। मतलब हर किसी को इज्जत और सम्मान की जिंदगी जीने वाली व्यवस्था की स्थापना ।
पढ कर आखें गिली हो आई और दिल में आक्रोश भी सुलग उठा ।मन बेचैन हो गया यह सोंच कर कि काश ऐसी आर्थिक विकास}षमता मुक्त समाज बना पाता जिसमें किसी मासूम के चेहरे की मुस्कान कभी नहीं मिटती।