ब्रह्मानंद ठाकुर
पिछले तीन सालों में देश में नये मुद्दे पैदा करने की परम्परा का बड़ी तेजी से विकास होता दिखाई दे रहा है। यह बात दीगर है कि ऐसे अधिकांश मुद्दों का व्यापक जन हित से कोई सरोकार नहीं होता, असली समस्या से लोगों का ध्यान बंटाना होता है। परिणाम यह होता है कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का मुद्दा गौण हो जाता है। योगी आदित्य नाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने के तुरंत बाद अयोध्या विवाद (राम जन्मभूमि, बाबरी मस्जिद) मामले में सुप्रीम कोर्ट का आपसी सहमति से मामले का हल निकालने का सुझाव दिया जाना कुछ ऐसा ही मुद्दा बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे धर्म और आस्था से जुड़ा मामला बताते हुए आपसी सहमति से मिल बैठ कर इसका समाधान करने की सलाह दी है। यह सर्वविदित है कि मुख्यमंत्री बनने से पहले ही आदित्यनाथ अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को अपने जीवन का मिशन बता चुके हैं। प्रधानमंत्री भी इस मिशन में शामिल हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं। वैसे राम जन्मभूमि विवाद के धार्मिक आस्था से जुड़े होने की बात बड़े जोर शोर से की जाती रही है लेकिन यह विवाद पूरी तरह राजनीतिक हो चुका है। चलिए इस मामले को ऐतिहासिक संदर्भों के माध्यम से समझने की कोशिश करते है-
राम भक्त तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना कर उत्तर भारत में विष्णु अवतार के रूप में राम को प्रतिष्ठित किया था। सन् 1528 में जिस राम मंदिर को तोड़ कर बाबरी मस्जिद के निर्माण की बात कही जाती है , उस समय तुलसीदास की उम्र करब 30 बर्ष थी। इसके 44 बर्ष बाद यानी 1572 में रामचरित मानस की रचना पूर्ण होने की बात कही जाती है। तुलसीदास ने तब देश में ‘मलेच्छ (मुस्लिम) राजशक्ति का प्रभाव बढ़ रहा है’ ऐसा कह कर अपनी चिंता का इजहार किया है। जाहिर है यदि उस समय राम मंदिर को तोड़ कर मस्जिद निर्माण की मर्मांतक घटना हुई तो सवाल ये है कि तुलसी दास जी ने उसका उल्लेख कहीं क्यों नहीं किया?
दूसरी बात ये कि जिस बाबर के नाम पर बाबरी मस्जिद है, यदि भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने राम मंदिर को तोड़ कर मस्जिद का निर्माण कराया तो उसका उल्लेख उसने अपनी आत्मकथा ‘बाबर नामा’ में क्यों नहीं किया। जबकि ग्वालियर के पास पहाड़ी पर स्थापित नग्न जैन मूर्तियों को तोड़ने का जिक्र बाबर ने अपनी आत्मकथा में किया है ।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर बाबर को स्थापत्य कला का बड़ा संरक्षक माना जाता है। इतिहास में इस बात का भी जिक्र मिलता है कि बाबर ने हुमायूं को सलाह दी थी कि हिंदुस्तान में अन्य धर्मों के मंदिरों और उपासना गृहों को अपवित्र मत करो, गो हत्या पर लगाम लगाने की कोशिश करो। इस बात का भी जिक्र मिलता है कि बाबर ने हुमायूं से यह भी कहा था कि अगर हिंदुस्तान पर हुकूमत करना है तो यहां के निवासियों का दिल जीतना होगा। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अयोध्या में राम मंदिर विवाद की शुरुआत ब्रिटिश हुकूमत के दौरान 1885 में हुई जब अंग्रेजी सब जज की अदालत में वहां चबूतरा निर्माण के लिए एक मामला दर्ज कराया गया था। वह खारिज हो गया जिसके बाद स्थिति यथावत बनी रही।
दूसरा विवाद आजादी मिलने के दो साल बाद 1949 में शुरू हुआ। कहा ये गया कि कि 23 दिसम्बर 1949 की सुबह राम और सीता की मूर्ति यहां चमत्कारिक रूप से प्रकट हुई। यह अपने आप में संदेहास्पद लगता है। वास्तविक घटना इससे अलग बताई जाती है। 23 दिसम्बर 1949 की सुबह स्थानीय जिलाधिकारी के के नायर ने यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत, राज्य के मुख्य सचिव और गृह सचिव को बेतार संवाद भेज कर सूचित किया था कि रात में जब मस्जिद में कोई नहीं था तब कुछ हिंदुओं ने बाबरी मस्जिद में प्रवेश कर वहां राम और सीता की मूर्ति स्थापित कर दी। यहां इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि इस घटना से नौ दिन पहले से ही वहां अखंड रामधुन जारी थी। इस प्रकरण में एक मामला भी दर्ज हुआ और 6 दिन के भीतर ही अदालत ने 29 दिसम्बर 1949 को मस्जिद मुसलमानों को न लौटा कर शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए मस्जिद में ताला जड़वा दिया और मूर्तियां वहीं रह गयीं। इस दौरान सख्त निर्देश था कि विवादित स्थल से 200 मीटर के भीतर नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। वेदी पर पूजा करने के वास्ते चार पुजारियों को नियुक्त कर दिया गया और यहीं से शुरू हुआ धर्म का सियासीकरण।
सियासी दलों की नजर हिंदू वोटरों पर टिक गई और देश की सियासत हिंदू बनाम मुस्लिम वोटबैंक की ओर करवट लेने लगी। कांग्रेस को डर सताने लगा कि कहीं आस्था के नाम पर हिंदू वोटर उसके खिलाफ न चले जाएं, लिहाजा बीजेपी के हिंदुत्व का मुकाबला करने के लिए 1989 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राजीव गांधी ने अदालत के निषेधाज्ञा की अनदेखी करते हुए विश्व हिंदू परिषद को बाबरी मस्जिद की बगल में राम मंदिर के शिलान्यास की इजाजत दे दी और इसी घटना के बाद नींव पड़ी 6 दिसम्बर 1992 के विध्वंस की।
विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद जो कुछ हुआ उससे पूरा देश वाकिफ है। इस घटना के बाद दो फौजदारी मामले अभी तक लम्बित हैं। दीवानी मामले को आपसी सहमति से सुलझाने के लिए शीर्ष अदालत ने जो सलाह दी है, वह स्वागतयोग्य अवश्य है, लेकिन ये इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि एक पक्ष अभी केन्द्र और राज्य की सत्ता में है। जिसने अपनी जिंदगी का मिशन अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण घोषित किया हुआ है। जाहिर है ये पक्ष अपने घोषित लक्ष्य से पीछे हटने वाला नहीं।
सभी धर्मों में सेवा भाव को सर्वोपरि कहा गया है। वास्तव में इंसानियत से बढ़ कर दूसरा कोई धर्म ही नहीं है। समय के बदलाव के साथ धर्म की अवधारणायें भी बदलती रहीं हैं। अगर इस बदलाव को देख कर विवादित स्थल पर दोनों धर्म के लोग मंदिर मस्जिद के निर्माण की जिद छोड़ वहां आधुनिक साधन सम्पन्न अस्पताल और उच्च शिक्षण संस्थान की स्थापना पर सहमत हो जायें, जहां गरीबों के बच्चे मुफ्त मे अच्छी और ऊंची शिक्षा प्राप्त कर सकें तथा गम्भीर से गम्भीर बीमारियों का मुफ्त इलाज हो सके तो यह एक बडी उपलब्धि होगी। आज जब दुनिया के अधिकांश मुल्क जाति, धर्म, सम्प्रदाय और रंग भेद के आधार पर कट-मर रहे हैं वैसी परिस्थिति में भारत इस मसले को सद्भावना से हल कर एक नजीर तो दुनिया के सामने पेश कर ही सकता है। जब हम 2017 का ये साल 1917 में हुए गांधी के चम्पारण सत्याग्रह के शताब्दी बर्ष के रूप में मना रहें हों तो क्या गांधी के नजरिए से इसे देखा और सुलझाया नहीं जा सकता?
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।
क्षमा कीजिये किन्तु आपके इस विचार से सहमत नहीं, ऐसी नजीरों को स्थापित करते करते हमने अपनी विरासत के ऐसे अमूल्य रत्न जमींदोज़ कर दिए जिन्हें आज की पीढ़ी नाम से जानती तक नहीं,कितनी भाषाएं मर गयीं, कितने विज्ञान, कितने ज्ञान मर गए… और यकीन मानिए ये नजीरें यदि स्थापित हुईं तो ज्यादा नहीं दो पीढ़ियों बाद राम भी विलुप्त हो जाएंगे, फिर किस राम का और उनके आदर्शों के दर्शन कहाँ कराएंगे?
जी , नमस्कार । दुनिया मुझे}ं स्थाई कुछ भी नही है और अपरिवर्तनीय भी कुछ नहीं। आस्थाएं , मूलय और मांन्यताएं सब कुछ बदलती रही हैं बदलती रहेंगी और मनुष्य इस बदली परिस्थितयों मे नूतन मूल्य ,मान्यताएं , आस्था औरविचारधारा का निर्माण भी करता रहेगा ।करता ही रहा है।रही बात आपके ‘राम के विकास}लुप्त ‘हो जाने की तो यदि} राम का लोकपक्ष मजबूत रहेगा तो लोक में उनकी उपादेयता रहेगी ही। चलिए आपने ग्यान ,विग्यान और अनेक भाषाओं के विलुप्त होने की बात कही है तो मेरे खुद का मानना है कि जो भाषा ,ग्यान और विग्यान मानव जाति के कल्याण की भूमिका का निर्वाह नही करेगा ,उसे विलुप्त हो ही जाना है। अतीत जब लाश बन जाए तो उसे कलेजे से चिपकाए रखने से बेहतर उसे दफन कर देना ही बुद्धिमानी है।। सर्वाइवल फार दि फिटेस्ट के सिद्धांत को कैसे नकारिएगा । कमेंठ के लिए धन्यवाद ।स्वस्थ बहस होनी ही चाहिए।
ब्रह्मानंद सर मैं अभी आप जितना अनुभव और ज्ञान तो हासिल नहीं कर पाया हूं लेकिन मैं आपसे ये जरूर जानना चाहूंगा कि क्या आपकी नजर में इस देश का कोई वजूद है या नहीं। क्या किसी देश को अतीत से काट कर आप सीधे पैदा कर देने को तार्किक मान सकते है। मुझे मालूम नहीं कि हम झूठ में जिंदा रहकर किसका भला करते है। मैं बाबरनामा (युगजीत नवलपुरी) में ऐसी एक भी बात नहीं खोज पाया जो आपने बताया कि बाबर ने हुमायू को कहा था। हां कल्ला मीनार कितनी बार चुनवाई गईं ये जरूर बता सकता हूं। कल्ला मीनार आप जानते होगे। मेदिनीराय के चंदेंरी दुर्ग में उसने क्या किया था ये भी उसने लिखा है। राणा सांगा से लड़ने में और इब्राहिम लोदी से लड़ने में कितना अतंर था ये भी उसमें साफ है कि काफिर के साथ क्या करना है और मुस्लिम के साथ क्या। मैं उसी किताब के रैंफरेंस में दिए गए ( थोड़ी ही देर में काफिर बिलकुल नंगे होकर लड़ने निकले। इस बार डटकर लड़े।हमराे अक्सर लोगो के मुंह फेर दिये।दीवार पर भी चढ़ आएं। हमारे बहुत से लोग मार दिए।दीवार भी छीन ली। पहले भागे यों थे कि पकड़े जाने का डर था। अब अपने बार बच्चों और सूरतियों को मारकर और आप मरने की ठानकर नंगे आएं थे।) इसके बाद भी कल्ला मीनार चुनवा दी गई। पेज नंबर 402टिप्पणी में (नेविल) जिला गजेटियर फैजाबाद में लिखा है ” 1529 में बाबर अयोध्या( अवध) आया। और एक सप्ताह तक रहा। उसने प्राचीन मंदिर (रामजन्मस्थान) तुड़वाकर उसके स्थान पर मस्जिद बनवाईं इस मस्जिद पर दो अभिलेख है
1 मस्जिद के भीतर
“बफरमूदिये शाहि बाबर कि अदलश बनाईस्त ता काखइ गरदूं मुलाकी
बना करदईं मुहबिते कुदसियां अमीरे सआदत-निशां मीर बांकी
बुवद खैर बाकी चु साले बनाइश अयां शुद्ध कि गुफ्तम बुवद खैर बाकी ।
2. मस्जिद के बाहर
बनामें आ कि दाना हस्त अकबर कि खालिकि जमला आलम लामकानी
दुरूहे मुसतफा बादज सितायश कि सरवार अँबियाये दो-जहानी
फसाना दर जहां बाबर कलंदर कि शुद दर दौरि गीतो कामरानी
वैसे मैं इस बारे में किसी दुराग्रह से नहीं लिख रहा हं बस सिर्फ जानने की अभिलाषा से लिख रहा हूं। मेरा मानना है कि अगर हम सच से टकराना सींखेंगे तो आने वाली पीढ़ी ज्यादा सुकून से रह सकेंगी।
यह न जानना कि आपके जन्म होने से पहले क्या हुआ, हमेशा शिशु बने रहना है।
जी , धीरेन्द्र पुणडीर जी ! सुरेन्द्र कुमार और तपन सान्याल की पुस्तक — दि सेक्युलर एम्परर बाबर ‘में इस बात का उल्लेख है कि बाबर ने अपने एक पत्र के माध्यम से हुमायूं को उक्त सलाह दी थी जिसका जिक्र मैने ‘दुनिया को क्या पैगाम देगी राम की नगरी ‘शीर्षक अपने आलेख में किया है। जहां तक बाबर के सामने}क्युलर होने की बात है तो पंडित नेहरू ने भी लिखा है —–‘बाबर जैसा सुसंस्कृत और दिलपसंद व्यक्ति उस जमाने में मिलना मुश्किल था।उसमें जाति द्वष बिल्कुल न था ।धार्मिक कट्टरता नहीं थी और न तो उससने अपने पुरखों की तरह विनाश ही किया।वह कला और साहित्य का पुजारी था,कवि था ‘ (विश्व इतिहास की झलक)
धीरेन्द्र जी !मेरा खुद का मानना है कि अतीत चाहे कितना भी गौरव शाली क्यों न रहा हो ,उसै दुहराया नहीं जाना चाहिए। वर्तमान को बेहतर बनाने की प्रेरणा उससे ली जा सकती है।मध्य काल की सामाजिक स्थिति से आप अवगत हैं।धर्म के नाम पर तब क्या कुछ नहीं हो रहा था।शाक्त शैव्य से और शैव्य वैष्णव से लड रहे थे। समाज के एक बडे वर्ग अछूतों की क्या दशा थी तब ?तब न बुद्ध आए और उन अछूतों को गले लगाया और बौद्ध धर्म को व्यापकता मिली।
फिर हिन्दु राजा शशांक ने बडी संख्या में बौद्ध मठों को तोडा। सिरफ अयोध्या में सौ बौद्ध मठ थे और मात्र दस हिन्दु मंदिर । आज उसी बौद्ध मठों पर हिन्दु मंदिर खडे हैं। विवेकानन्द ने भी कहा है कि पुरी का जगन्नाथ मंदिर पहले बौद्ध मठ था उसी को बाद में हिन्दुओं ने मंदिर बना दिया।आज अर बौद्ध माऔग करने लगे कि उनका मठ उन्हें लौटाया जाए तब ? आधुनिक युग में मध्यकाल वाली मठ मंदिर मस्जिद तोडने की मध्यकालीन घटना को दुहराना सभ्यता की निशानी नहीं मानी जा सकती। आज मुद्दे अनेक हैं जिनका समाधान पहले जरूरी है। मैं मंदिर मस्जिद का विरोवधी नही हूं, विरोधी.हूं उस निहित स्वार्थी राजनीति का जो जनता में धार्मिक उन्माद फैला कर असली मुद्दे से उसका ध्यान हटाना चाहती है। पहले रोटी जरूरी है ।ग्यान जरूरी है तब दूसरी चीजें। देश की जनता को अपने वर्ग दुश्मन के प्रति सचेत रहना चाहिए। धर्म निरपेक्षता का सही अर्थ है राजसत्ता द्वारा किसी भी धर्म को प्रोत्साहन न देना। किसी भी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में धर्म एक नितांत व्यक्तिगत मामला होना चाहिएः
सर शुक्रिया इस बात को चीत में बदलने का यानि बातचीत में बदलने का। मैंने युगजीत नवलपुरी का अनुवाद पढ़ा और फिर काफी इतिहास की किताबें भी पढ़ी है। ( हालांकि इतिहास मेरा विषय नहीं है। मैं Entomology में पोस्ट ग्रेजुएट हूं। लेकिन पत्रकार होने के नाते देश को घूमना और जानना मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। मैं दिल्ली के बहुत करीब यानि उसी दोआब का हिस्सा हूं जिसको सैकड़ों साल ऊपजाऊ होने का ऋण चुकाना पड़ा। मैंने उस दिन सिर्फ नवजीत नवलपुरी की किताब का बयान दिया था। मैंने उसी किताब के आधार पर उद़रण दिए थे। मैं भी इस बात का हामी हूं कि इतिहास में लौटा नहीं जाता और न ही इतिहास को लौटाया जा सकता है लेकिन मैं इस बात का भी पूरी तरह हामी हूं कि बिना सही इतिहास पढ़ें किसी कौंम का भविष्य बनाना नहीं जा सकता है। इतिहास को मानवीय बनाने की जो कोशिश राजनीतिज्ञों ने शुरू की थी वो इतिहास का गलत पाठ है। मैं इस बारे में शाम को आपको कई उदरण देने की कोशिश करूंगा। अभी मैं ऑफिस में हूं तो ज्यादा तो नहीं बता पाऊंगा। लेकिन मैं इस बात के लिए आपके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता हूं कि आपने मेरे साथ ये सब संवाद किया। मेरे लिए उस खत का उतना ही महत्व हो सकता है जितना कि इस बात कि खुद बाबर ने अपनी किताब में उसका जिक्र नहीं किया। हालांकि नेहरू की सपनों और उनकी ईमानदारी पर मैं विश्वास करता हूं लेकिन इस बात पर नहीं कि वो एक इतिहासवेत्ता थे। और दूसरी एक बात अगर आप मेरी बात को अन्यथा न ले और मुझे माफ करेंगे मेरे इस उदाहरण के लिए कि क्या हम लोग इतिहास में ये दर्ज कर सकते है कि दाऊद इब्राहिन कला का बहुत ही प्रेमी आदमी है या था। क्योंकि कम से कम दस ऐसे मुशायरों के बारे में सबूत मैं दे सकता हूं जिसमें वो बाकायदा खुद आयोजन में शामिल है। एक मुशायरे की सीडी को मैंने आजतक पर भी चलाया था जिसमें खुमार साहब अपना कलाम पढ रहे थे और दाऊद इब्राहिम हमारे सुनील दत्त साहब के साथ मिलकर दाद दे रहा था। आपको वो तमाम सीडी याद होगी श( अगर आप टीवी देखते है तब) जिनमें वो अपने बच्चों के जन्मदिन पर पूरी फिल्म इंड्रस्ट्री को घर में इकट्ठा कर लेता था। अभी मैं अपनी समझ को इस बात के लिए नहीं कुछ हासिल कर पाया हूं कि हम अपने देश के लिए इतिहास लिख रहे थे तो क्या उस वक्त की जनता की आवाज और उसके दर्द को इसलिए दबा देना चाहिए कि आज की जनता को सच का पता न चले। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम उस दर्द की आवाज के बारे में पढा़ कर आने वाली पीढ़ी को उस दर्द के कारणों की खोज कर हमेशा के लिए उस रास्ते से दूर करने की कोशिश करे। मैं मीडिया में हूं तो हमेशा ये देखकर हैरान होता कि किस तरह से अंग्रेजी के मीडिया ने पूरे देश की चेतना को जमींदोज करने का काम किया। और हिंदी मीडिया ने सिर्फ उनकी कॉपी कर के बिना किसी बात की तह में जाएं नकल कर एक अजीब सा इतिहास पैदा कर दिया। ये एक ऐसा इतिहास है जो दिखाई नहीं देता लेकिन पढाया जाता है। मैं इसका एक उदाहरण आपको लोक परंपरा का भी देता हूं। मेरे गांव दिल्ली से महज 125 किलोमीटर दूर है। और ऐसे रास्ते पर है जिसको हमेशा लूट का शिकार होना पड़ा। लेकिन उनकी जिंदगी में अब उसकी याद कुछ भी नहीं है। लेकिन अभी भी कुछ बुजुर्ग है जो ये बताते है कि सवा मन जनेऊ तुलवा कर ही औरंगजेब को चैन मिलता था। मुझे मालूम नहीं है कि वो अनपढ़ लोग किसी तरह से आरएसएस के चंगुल में आएँ होगे। जबकि मैं जानता हूं 1989 में गांव में एक सम्मानित प्रिसिपल की गाड़ी के पहिये इस लिए लड़कों ने निकाल लिए थे क्योंकि वो संघियों की पार्टी का प्रचार करने गांव में पहुंचा है जिन्होंने गांधी बाबा को मारा है। बड़ी मुश्किल से मेरे ताऊ जी ने वो टायर वापस कराएं थे। तो मैं इस बात को देखता हूं कि लोक परंपरा, वाचिक परंपरा और इतिहास के जिंदा गवाह ( यानि इमारतेे) उस झूठ को साफ करती है जो पिलाने की कोशिश की गई। मैं किसी से नफरत नहीं करता हूं सिवाय इस बात के कि आने वाली पीढ़ियों को भी झूठ में डाल कर उनकी जान को आफत में डाला जाएं क्योंकि वो जानते ही न हो। रही बात आपकी जैन और बौद्ध धर्म पर अत्याचार की तो मैं उसका इतिहास भी जानता हूं लेकिन उस का शमन किया गया। आपकी परंपरा में किसी आबादी ने इस लिए उन पर अत्याचार शुरू नहीं किए कि वो किसी खास धर्म के है उनपर राजा के व्यक्तिगत फैसलों के असर हुए। पावापुरी के जैन मंदिरों के ढांचों पर खडे हुए मां के मंदिर को भी मैंने देखा है। और क्या वो आम हिंदुस्तानी की जिंदगी में कितने दिन तक हावी रहा। और क्या उस वजह किए गए इन कार्यों की वजह से इन पर होने वाला हर जुल्म जायज हो गया। बात आपके लेख से शुरू हुई है मैं उसके इतर भी संवाद की गुंजाईश देख रहा हूं। गुलाम वंश से शुरू कर मुगल पीडियड़ के इतिहास के शुरू होने तक की पॉलिशी पर भी अलग अलग इतिहासकार के आर्टिकल्स है। उन पर भी हम लोग चर्चा कर सकते है यदि आपकी अनुमति हो और आप नाराज न हो तब। सादर