बेटियां अक्खज होती हैं, उनको भी कोई सीसा-बक्सा में भरती कराता है?
प्रभात खबर के पत्रकार पुष्यमित्र को नॉदर्न और इस्टर्न रीजन का ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ मिला है। उन्हें जिस स्टोरी पर यह अवार्ड मिला है, वह वर्ष 2016 में प्रकाशित हुई थी। दिल्ली में हुए एक आयोजन में पुष्यमित्र समेत कई पत्रकारों को ये सम्मान दिया गया। बदलाव के पाठकों के साथ पुष्यमित्र का लंबा नाता रहा है, इसलिए प्रभात खबर की ये रिपोर्ट हम साभार बदलाव के पाठकों के लिए साझा कर रहे हैं।
जब बिहार के वैशाली सदर अस्पताल में स्थित स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट में पहुंचा तो वहां नौ बच्चे भर्ती मिले। इनमें से लड़की एक ही थी। यूनिट की इंचार्ज नर्स सुनीता कुमारी ने बताया कि यह हमेशा की कहानी है। यहां लड़कियां कम ही आती हैं। 12 सीटों वाले इस अत्याधुनिक स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) में कई दफा 20-22 बच्चे तक एडमिट रहते हैं, ऐसे में एक-एक बेड पर दो-दो बच्चों को साथ रखना पड़ता है। मगर तब भी लड़कियों की संख्या 5-6 से अधिक नहीं होती। उनकी सीट के आगे चार्ट बनाकर आंकड़े प्रस्तुत किये गये हैं। उन आंकड़ों के मुताबिक 1 अक्तूबर, 2015 से लेकर 15 जनवरी, 2016 के बीच इस यूनिट में कुल 367 बच्चे एडमिट हुए, जिसमें 235 लड़के थे और लड़कियां महज 132 ।
आखिर ऐसा क्यों है? क्या नवजात (जन्म से 28 दिन तक की उम्र) लड़कियां अधिक स्वस्थ होती हैं? एसएनसीयू के बिल्कुल पड़ोस में स्थित मेटरनिटी वार्ड की ऑन ड्यूटी महिला चिकित्सक ने बताया कि ऐसी कोई बात नहीं। अक्सर हम लोग ही जन्म के बाद बच्चों को एसएनसीयू के लिए रेफर करते हैं। खास तौर पर जो बच्चे जन्म के बाद तत्काल रोते नहीं हैं या जिन्हें सांस लेने में परेशानी होती है या वजन कम होता है, उन्हें हम हर हाल में वहां भेज देते हैं और इनमें लड़के भी होते हैं और लड़कियां भी। अमूमन दोनों में एक जैसी परेशानी होती है।
तो क्या, सदर अस्पताल, वैशाली के मेटरनिटी वार्ड से रेफर होने वाले लड़के तो एसएनसीयू पहुंच जाते हैं और लड़कियां बिल्कुल पड़ोस में स्थित एसएनसीयू तक पहुंच नहीं पातीं? मां-बाप भगवान पर भरोसा करते हुए उन्हें लेकर घर चले जाते हैं। एसएनसीयू, वैशाली के ज्यादातर स्टाफ यही मानते हैं। वे कहते हैं, हालांकि यहां इलाज कराने में उनका एक भी पैसा खर्च नहीं होता, मगर एक हफ्ते से लेकर 15 दिन तक उन्हें ठहरना पड़ता है। इसमें परेशानी भी है और पैसे भी खर्च होते हैं। ऐसे में बेटों के लिए तो परिजन यह परेशानी उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं, बेटियों के मामले में ढिलाई बरतने लगते हैं।
यह बात वैशाली के एसएनसीयू कैंपस में नजर दौड़ाने पर भी समझ में आती है। वहां सामने बने शेड में कई परिजन जमीन पर लेटे रहते हैं, कई बेंचों पर ऊंघते मिलते हैं। 15 दिन का वक्त इस हालत में काटना तकलीफदेह तो होता ही होगा। मगर बच्चों के प्रति प्रेम ही उन्हें यह सब करने के लिए प्रेरित करता है। एक ऐसे ही पिता कहते हैं, बच्चा भरती है तो परेशानी झेलना ही पड़ता है। उनसे यह पूछने पर कि क्या अगर बेटी होती तो भी वे इतनी परेशानी झेलने के लिए तैयार हो जाते? वे हां, तो कहते हैं, मगर उनकी बातों में उत्साह नजर नहीं आता। पड़ोस में बैठी एक बूढ़ी कह बैठती है, बेटी सब त अक्खज होइ छै… यानी बेटियां तो अक्षय होती हैं, इतनी आसानी से थोड़े मरती हैं… और उनकी एक लाइन नवजात बच्चियों के प्रति समाज की सोच को उजागर कर देती हैं।
हालांकि वहां एक ऐसी माता भी मिलती हैं, सोनपुर की गुड़िया देवी। जिसकी बिटिया यहां भरती है। वह कहती हैं, तीन बेटों पर बेटी हुई है। मान-मनौव्वल वाली है, घर में सब बेटी-बेटी करते थे, अब जाकर हुई है। इसको तो बचाना ही पड़ेगा।मगर यह आम सोच नहीं है। तभी यहां लड़कियां इतनी कम पहुंचती हैं। यह कहानी सिर्फ वैशाली के एसएनसीयू की नहीं है।यूनिसेफ की एक स्टडी बताती है कि पूरे राज्य में एसएनसीयू की यही हालत है। उनके आंकड़ों के मुताबिक पिछले छह माह के दौरान राज्य भर के एसएनसीयू में भरती बच्चों में 64 फीसदी लड़के थे और लड़कियां महज 36 फीसदी। यानी तकरीबन आधी। यूनिसेफ, पटना के हेल्थ ऑफिसर डॉ. सैदय हुबे अली, जिनकी देख-रेख में यह स्टडी हुई है, कहते हैं, ये आंकड़े बताते हैं, समाज में अभी भी बेटे और बेटियों के लेकर भेदभाव किया जा रहा है। लोग जरा सी परेशानी से बचने के लिए अपनी बेटियों का जीवन खतरे में डाल देते हैं।
वे कहते हैं, कई जिलों के एसएनसीयू की स्थिति काफी बेहतर है, इसलिए वहां प्राइवेट अस्पतालों के बच्चे भी एडमिट भरती होते हैं। वैशाली में पिछले आठ सालों में, जब से यह यूनिट स्थापित हुआ है, सदर अस्पताल से रेफर 4023 बच्चे एडमिट हुए हैं तो बाहर से आने वाले बच्चों की संख्या 4370 है। ऐसा दूसरे अस्पतालों के मामले में भी है। मगर अफसोस यह है कि इनमें लड़कियों की संख्या काफी कम है। सिर्फ 32 फीसदी. ऐसे में हमारा यह मिशन अधूरा है। डॉ. अली बताते हैं, यह सोचना भी गलत है कि लड़कियां ज्यादा स्वस्थ होती हैं, उन्हें न्यूबोर्न केयर की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि बिहार में एक साल के अंदर प्रति एक हजार शिशुओं में से 40 की मौत हो जाती है, और इनमें लड़कियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक हैं, प्रति एक हजार में 43। इसलिए संकटग्रस्त लड़कियों को न्यूबोर्न केयर यूनिट तक लाये बिना यह मिशन पूरा नहीं हो सकता।
जागरुकता के साथ इंसेंटिव देने पर भी हो रहा विचार
बिहार के शिशु स्वास्थ्य स्टेट हेल्थ सोसाइटी के राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी डॉक्टर सुरेंद्र चौधरी कहते हैं कि ये आंकड़े निश्चित तौर पर हमारे लिए सुखद नहीं हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि लोगों में जागरुकता लायी जाये, ताकि वे बेटों के साथ-साथ नवजात बेटियों के स्वास्थ्य के प्रति जागरुक हों और आवश्यक होने पर या डॉक्टर द्वारा सलाह दिये जाने पर उन्हें एसएनसीयू में अवश्य भरती करायें। फिलहाल पूर्णिया और गया जिले में यूनिसेफ के सहयोग से हम एक योजना शुरू कर रहे हैं. इसके तहत नवजात बालिका को आवश्यक होने पर एसएनसीयू में भरती कराने पर दो सौ रुपये का इंसेंटिव दिया जायेगा। आगे कुछ और योजनाएं लागू की जा सकती हैं।
क्या है न्यूबोर्न केयर यूनिट?
हमलोग आम बोलचाल की भाषा में कहते हैं कि जन्म के बाद बच्चे को परेशानी थी, इसलिए डॉक्टर ने उसे बक्सा में रखवा दिया है। तो वही, बक्सा वाला सेंटर ही दरअसल न्यूबोर्न केयर यूनिट है। एसएनसीयू जैसे अत्याधुनिक इकाई की शुरुआत के बारे में बताते हुए डॉ. हुबे अली बिहार में आज भी एक हजार नवजात शिशुओं में से 28 जन्म लेने के महज 28 दिनों के अंदर मर जाते हैं. उसकी कई वजहें होती हैं, जैसे सांस लेने में परेशानी या जन्म के तत्काल बाद नहीं रोना आदि। इन्हीं बच्चों का जीवन सुरक्षित करने के लिए राज्य के सदर अस्पतालों में एसएनसीयू की स्थापना की गयी है. साथ ही साथ रेफरल अस्पतालों में एनबीएसयू (न्यूबोर्न स्पेशल यूनिट) और हर डिलीवरी प्लाइंट पर न्यूबोर्न केयर सेंटर की स्थापना हुई है। डॉक्टर भी थोड़ी सी परेशानी रहने पर भी बच्चों के इन यूनिट में भेज देते हैं. यहां जन्म से 28 दिन तक के बच्चों का मुफ्त में इलाज होता है। गांव की आशा के द्वारा भी यहां बच्चों को भरती कराया जा सकता है.
विभिन्न जिलों में एसएनसीयू में भरती बच्चों का लिंगानुपात
(अवधि 1 अक्तूबर, 2015 से 31 मार्च, 2016 के बीच) स्रोत-यूनिसेफ
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।
Very insightful story. Congratulations Pushyamitra!