हमारा गांव अब पूरी तरह से वैश्विक बाजार के हवाले हो गया है। खाने-खाने-पीने की चीजों से लेकर ओढना-बिछौना, रेडिमेड से लेकर थान वाले कपड़े, जूते- चप्पल, ऋंगार की सामग्री, गैस सिलेंडर और गैस चूल्हे की मरम्मत करने वाले कारीगर, बर्तन, गिलट और रोल्डगोल्ड, कभी कभी सोने चांदी वाले गहने, सर्दी खांसी से लेकर घातक बिमारियों से छुटकारा दिलाने वाले नुस्खे और दबाइयां कहां तक गिनाऊं, सब कुछ पलक झपकते यहां हाजिर है । पहले हम अपनी जरूरत का सामान खरीदने कभी कभार बाजार जाते थे या पड़ोस के साप्ताहिक हाट से जरूरत का सामान लाया करते थे। ऐसे मे सामान्य आवश्यकताएं अक्सर कल पर टाल दी जाती थीं। मन कचोटता तो था लेकिन बाद में सकून भी मिलता था । आज बाजार हाजिर हो गया है हमारे दरबाजे पर । नयी आवश्यकता पैदा करने के लिए प्रचार का पूंजीवादी माध्यम टेलिविजन हर घर में है ही । रात भर प्रचार वाले उन विभिन्न आइटमों को देख और उनकी कथित गुणवत्ता के वशीभूत हो अब कौन ऐसा मूर्ख होगा जो सुबह होते ही इन वस्तुओं को हासिल करने के लोभ से निरपेक्ष रह सके?
प्रख्यात समाजवादी चिंतक और लेखक सच्चिदानन्द अक्सर कहा करते हैं कि जीवन में यदि सुखी रहना है तो अपनी आवश्यकताओं को कम करो। पहले अर्थ शास्त्र का एक प्रसिद्ध सिद्धांत हुआ करता था – आवश्यकता आविष्कार की जननी है। यानि किसी चीज का आविष्कार मनुष्य की आवश्कता होने पर ही हुआ । आज स्थिति बिल्कुल बदल सी गयी है। उपभोक्ता वस्तुओं का आविष्कार पहले करते हैं और उसकी आवश्यकता बाद में पैदा की जाती है। अब तो आलम ये है कि गांव में पीने का पानी भी सफेद -हरे जार में उपलब्ध कराया जाने लगा है। यानी पीने का पानी भी बाहर से आने लगा है। 20 लीटर पानी का एक जार 20 रूपये में आता है। उपयोग की जरूरत को देखते हुए लोग प्रतिदिन एक या दो जार पानी लेते हैं। अनेक लोग इस तरह के पानी सप्लाई के धंधे में लग गये हैं। अनेक ब्रांड जैसे मोदी नीर, आदर्श नीर, अमृत जल आदि के नाम से चलने वाला यह नया व्यवसाय बड़ी तेजी से बढ़ा है। इसके नियमित ग्राहक को 200 रूपये पेशगी दे कर इसका ग्राहक बनना पड़ता है। अब जो लोग गरीबी या अन्य कारणों से यह कथित हानिकारक रसायन मुक्त पानी का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, वे दूसरों की नजर में दोयम दर्जे के हो गये हैं। पहले गांव के हर टोले में कुंआ होता था। साल में एक बार मई जून महीने में उसकी उड़ाही होती थी । उसी का पानी सब पीते थे। बाद में चापाकल का युग आया। लोगों ने उस स्रोत को अपनाया।। धीरे-धीरे कुंए की उपेक्षा होने लगी। अधिकांश ध्वस्त हुए । जो बचे रहे वे विकास के इस अंधी दौर मे बेकार हो कर रह गये। खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक, तृण नाशी रसायनों का धड़ल्ले से उपयोग होने लगा इन घुलनशील रसायनों ने भूगर्भ जल स्रोतों को प्रदूषित कर दिया तो चापाकल का पानी भी प्रदुषित हुआ। हम स्वच्छ पेय जल के लिए परावलम्बी हो गये।
उपभोक्तावाद ने परिवार, समाज और गांव की गौरवशाली विरासत को नेस्त नाबूद कर जो नयी संस्कृति पैदा की है उससे गांव का सारा ताना-वाना बिखरने लगा है । जैसे शहर में एक ही इमारत के विभिन्न मंजिलों में रह रहे लोग एक दूसरे से ज्यादा वास्ता नहीं रखते वैसे ही गांव में आदमी से आदमी की दूरी काफी बढ़ गयी है। मैं अपने बचपन के दिनों को याद करता हूं। आजादी के एक दशक बाद यानी 1957 की बात है। तब हमारे गांव में कुल तीन दुकाने थीं जहां से लोग जरूरत की कुछ चीजें खरीदते थे। गांव के पश्चिम किनारे धन्नु महतो की, पूरब में हरिसकरी चौक पर हरिहर चौधरी की और हमारे घर के ठीक सामने कमल बाबा की दुकान थी ।दुकान छोटी थी फिर भी जरूरत का अधिकांश सामान जैसे नमक,तेल, किरोसिन, चीनी, साबुन आदि वहां मिल जाता था । वे अपने दुकान के लिए सप्ताह में एक दिन गांव से चार मील दूर मतलुपुर जुगेश्वर चौधरी के यहां से सामान लाते थे। तब ऐसे बड़े दुकान को गोला कहा जाता था । किरोसिन तेल लाल और उजला दो रंग का होता था । चार आने में एक सेर किरोसिन मिलता था ।लाल किरसिन से स्याही ज्यादा निकलने के कारण उसका उपयोग ढिबरी जलाने में और उजला लालटेन जलाने में उपयोग होता था । हमारे गांव से तीन मील की दूर सिमरा हाट लगता था । हाट तो अब भी लगता है लेकिन उसमें वो पहले वाली बात कहां ।यहां से खरीददारी करने में लोग अपनी हेठी समझने लगे हैं ।पहले लोग उपनयन, शादी -विवाह’, श्राद्ध , तीज-त्योहारों के अवसर पर ऐसे ही हाटों से सामान खरीदा करते थे। दुकानदार से परिचय था सो उधार भी मिल जाता था। ग्रामीण हाट का क्रेज खत्म हुआ। बाजार चुपक-चुपके गांव में कब प्रवेश कर गया लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगी । नाई ने सैलून खोला । जूते की मरम्मत और उसे चमकाने की दुकान एक टाट बिछा कर सड़क किनारे सजा ली गयी। कपड़ा धोने के लिए लान्ड्री खुल गया । लुहार ने खेती का परम्परागत तरीका बंद हो जाने के बाद दूसरा व्यवसाय अपना लिया। मनोरंजन के परम्परागत साधन नाच,नौटंकी, नाटक, कीर्तन, जब गायब हुए तो लोग घरों में टीवी के पास सिमट आए। होली, चैतावर,बिरहा,बारहमासा, कजरी, संझा और पराती की तान भूल कर फिल्मीगीत गुनगुने लगा हमारा गांव । अब तो अष्टयाम, विवाह कीर्तन, सुंदर कांड और सतबार पाठ में भी फिल्मी धुनों की बहार है ।
ये सब देखकर अच्छा भी लगता है लेकिन डर भी लगने लगा है क्योंकि विकास की इस अंधी दौड़ ने प्रकृति का अनुपम उपहार साफ पानी भी हमसे छीन लिया।
ब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।