पुष्यमित्र
अपने देश में राजनीति ने काम करने का बड़ा दिलचस्प तरीका अख्तियार कर लिया है, दुर्भाग्य यह है कि अब हम मीडिया वाले भी उसी पैटर्न को फॉलो करने लगे हैं। सिर्फ कारपोरेट मीडिया नहीं, सोशल मीडिया का भी वही हाल है। दुर्भाग्य यह है कि नये मीडिया के नाम पर जो पोर्टल शुरू हुए हैं, उनका भी यही हाल है। अब जैसे देखिये, बिहार के फरकिया इलाके में पुल को लेकर जो आंदोलन चल रहा है वैसा आंदोलन लंबे समय से मैंने तो बिहार में होता नहीं देखा है। मगर आपको इसकी चर्चा राजधानी पटना में कहीं सुनाई नहीं पड़ेगी। न मीडिया में, न प्रतिपक्ष में। सरकार तो खैर चाहती ही है कि इस मसले पर कम से कम चर्चा हो। विधानसभा चल रही है और विपक्ष मोदी के अपमान का प्रतिशोध लेने पर आमादा है। उसे इसके अलावा कोई मुद्दा नजर नहीं आ रहा।
12 दिन से 50 लोग अनशन पर बैठे हैं। धरना स्थल पर ही उनको स्लाइन चढ़ाई जा रही है। इन लोगों ने 2 फरवरी को कई किमी लंबी मानव श्रृंखला बनाई। मगर विपक्ष के लिये यह इतना बड़ा मुद्दा भी नहीं है कि विधानसभा में सरकार से सवाल पूछा जा सके। बीजेपी के कुछ नेता जरूर धरना स्थल पर तीर्थयात्रा करके आ गये हैं। सांसद महोदय ने मंच से कुछ राजनीतिक टिप्पणियां कर दी हैं। मगर उनके लोग राजधानी पटना में इस सवाल को उठाने के लिये तैयार नहीं है। उनके लिये मोदी की इज्जत सबसे बड़ा सवाल है। जैसे- पिछले राज में सोनिया और राहुल की इज्जत कांग्रेस के लिये सर्वोपरि हुआ करती थी। बाकी मुद्दे भांड में जाएँ।
साथियों को बुरा लगेगा, मगर यह भी कम दुखद तथ्य नहीं है कि यह खबर अब तक पटना के अखबारों में जगह नहीं बना पाई है। दरअसल, यह सिर्फ मीडिया या विपक्ष का दोष नहीं है। दोष राजनीति के नये पैटर्न का है। अब जरूरी मुद्दों पर बहस की गुंजाइश न्यूनतम हो गयी है। अब केवल अस्मितावादी मुद्दे बहस के लिये उछाले जाते हैं। देश, धर्म, जात और व्यक्तिगत अस्मिता का सवाल अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। रोजी-रोजगार, शिक्षा, सेहत और मूलभूत सुविधाओं का सवाल गौण हो गया है। तभी विपक्ष को भी सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिये ऐसे ही मुद्दे मिलते हैं। आप पिछले दो साल के सोशल मीडिया ट्रेंडिंग को देखिये, ज्यादातर ट्रेंडिंग इन्हीं मसलों पर हैं। अभी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (कई दूसरे बैंकों ने भी) ने आमलोगों की जेब ढीली करने का काला नियम लागू किया है, मगर वह मुद्दा उठते ही धराशायी हो गया।
वस्तुतः यह राजनीतिक दलों की अपनी सुविधा है। आर्थिक मुद्दों पर सभी पार्टियां एकमत हैं। सब्सिडी खत्म करना है, जनता से हर सेवा की कीमत वसूल करना है, हर सरकारी सेवा को बाजार के हवाले कर देना है। तभी आर्थिक विकास की दर में बढ़ोत्तरी होगी। इस मुद्दे पर मोदी और मनमोहन में इतना ही फर्क है कि मनमोहन इसे लागू नहीं कर पाए, मोदी आसानी से लागू कर ले रहे हैं। क्योंकि उनके पीछे समर्थकों की फ़ौज है। इसलिये इन मुद्दों पर बहस को भरसक टाला जाता है।
दुःखद यह है कि देश का मीडिया और सोशल मीडिया भी इसी ट्रैप में फंसा है। वह समझता है कि वह कन्हैया से लेकर गुरमेहर तक जैसे मसले खड़े कर इस भ्रम में रहता है कि वह सरकार का विरोध कर रहा है। जबकि सरकार जो फ़ैसले कर रही है, खास तौर पर आर्थिक; उसमें उसे कहीं कोई परेशानी नहीं आ रही। फरकिया के पुल के सवाल भी इसी तरह हवा में उड़ाए जा रहे हैं। यह इकलौता मसला नहीं है। देश में ऐसी सैकड़ों लड़ाईयां चल रही हैं, जिन्हें कोई नोटिस लेने वाला नहीं है। वे भी नहीं जो खुद को जन पक्षधर होने का दावा करते हैं।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।
पुष्यमित्र जी ! जनता की बुनियादी समस्याओं के समाधान के मामले मे सत्ता पक्ष , विपक्ष , दक्षिण पंथी , वाम पंथी और मध्यम मार्गी पार्टियों समूय कारपरेट्स मीडिया का दृष्टिकोण एक ही रहता है। अंतर केवल भाषा या शब्दों का है। उबरते जनसवालों को वोट की राजनीति के चश्मे से देखना संसदीय राजनीति की विशेषता है। आप जैसों की चिंता इसलिए है कि आप लोगों ने इस पूंजी वादी राज सत्ता से आम जन की बेहतरी की उम्मीद संजोए हुए हैं।