राकेश कायस्थ
सिनेमा हम सबके भीतर होता है। ज्यादातर लोग मन की आंखों से देखते हैं। लेकिन कुछ जिगर वाले ऐसे भी होते हैं, जो अपना सबकुछ दांव पर लगाकर दुनिया को दिखाते हैं। अविनाश दास वैसे ही लोगो में हैं। फेसबुक की अनगिनत दीवारों में कैद उनकी आरा वाली अनारकली अचानक फड़फड़ाई तो मेरे आंखों के सामने अतीत के कुछ पुराने पन्ने खुल गये और मैं अचानक फ्लैश बैक में पहुंच गया।
बहुत पुरानी बात है। शायद 2005 की। तब मैं अविनाश दास को नाम से भी नहीं जानता था। किसी का रेफरेंस लेकर वे मुझसे मिलने आये थे। दिल्ली के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपने लिये संभावनाएं तलाश रहे थे। उमस भरे मौसम में चेहरा पसीने से तर था। पहली नज़र में ही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि झारखंड के खदानों से कोई अनगढ़ हीरा निकला है। मैंने हिंदी में टाइप किया बायो-डेटा देखा तो भ्रम दूर हुआ। पता चला कि साहब अनगढ़ नहीं हैं बल्कि काफी पढ़े लिखे हैं और प्रभात ख़बर के किसी एडिशन के स्थानीय संपादक भी रह चुके हैं। मैंने पूछा कि करना क्या है तो उन्होंने जवाब दिया— वैसे तो फिल्म बनाना चाहता हूं लेकिन फिलहाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कोई नौकरी मिल जाये तो बेहतर।
मैंने कुछ संपादकों को फोन किया, अविनाश की मुलाकातें भी हुईं लेकिन मेरी मदद से उनकी कहीं कोई बात नहीं बन पाई। इस बीच मालूम हुआ कि वे कुछ समय के लिए मुंबई चले गये हैं। फिर एनडीटीवी ज्वाइन करने की ख़बर मिली। अविनाश से मेरी मुलाकतें बहुत कम लेकिन आत्मीयता से भरी रहीं। एक बार वो मेरी फरमाइश पर पंडित छन्नू लाल मिश्रा के कंसर्ट की सीडी लेकर आये जो आज भी मेरे पास है। उसके बाद कई छिट-पुट मुलाकातें रहीं। आखिरी बार पिछले साल हम दिल्ली के पुस्तक मेले में टकराये तब उन्होंने बताया कि फिल्म पूरी हो चुकी है। तब मुझे उनका बरसों पुराना सपना याद आया और ये भी मालूम हुआ कि वे भी मुंबई शिफ्ट हो चुके हैं। उन्होंने चहकते हुए कहा— एडिट शुरू हो चुका है, आइये आपको दिखाता हूं। लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी में कई बार अंधेरी से वर्सोवा तक की दूरी भी बहुत लंबी हो जाती है। अब लगता है अच्छा ही हुआ मैंने कुछ नहीं देखा, वर्ना फर्स्ट डे फर्स्ट शो का मज़ा चला जाता।
मेरे हिसाब से ये हिंदी सिनेमा का सबसे अच्छा दौर है, जहां हर तरह की फिल्मों के लिए दर्शक हैं। ज्यादा बड़ी बात है, ऐसे लोगों का फिल्म मेकर बनना जो शायद आज से 20 साल पहले कतई फिल्म नहीं बना सकते थे। बॉलीवुड में आम आदमी के सशक्तीकरण की एक और मिसाल है, अनारकली आरावली। यकीनन ये फिल्म उन लोगों का हौसला बढ़ाएगी जो सिल्वर स्क्रीन पर अपने आपको एक्सप्रेस करने के लिए बेताब हैं। इस फिल्म में स्वरा भास्कर और पंकज त्रिपाठी जैसे स्थापित लेकिन जमीन से जुड़े कलाकार हैं। मुझे अविनाश की किस्सागोई और उनके सौंदर्य बोध का अंदाज़ा है, इसलिए फिल्म के कंटेट को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हूं। अगर आप अच्छी फिल्मों के शौकीन हैं तो 24 मार्च की तारीख नोट कर लीजिये। पहले ही दिन देख आइयेगा क्योंकि आजकल 100 करोड़ का बिजनेस करने वाली फिल्में भी हफ्ते दो हफ्ते से ज्यादा नहीं चलती हैं।
राकेश कायस्थ। झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय । खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ, टीवी टुडे, बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आपने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों स्टार स्पोर्ट्स से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।
सही कहा। अविनाश में कमाल की प्रतिभा है। उनकी मंजिल अब सामने दिखाई दे रही है। शुभकामनाएं।