यूपी के बांदा में इन दिनों कोहरे के बीच गुलाबी धूप की गुनगुनाहट के साथ ठंड दस्तक दे चुकी है। ऐसे में पड़ोसी राज्य के बंजारा, कुचबंधिये और नट जाति के समूह रोजगार के लिए यहां आये हैं। कुछ पहाड़ी क्षेत्रों की हर्बल दवा बेचते हैं, तो कुछ इस तरह पास-पड़ोस में हस्त निर्मित बर्तन। यहां आने वाले राजस्थान के जिला भीलवाड़ा के मेहनतकस लोग हैं। सिविल लाइन मार्ग में जीआईसी मैदान पर आजकल इनका फुटपाथी बाज़ार आबाद है। बड़े शहरों के बिग बाजार, माल और चौपाटी स्टाल से बिल्कुल अलग। सभी ने बरसाती पन्नी से सर्दी-पानी की बचत को अपनी छत बना रखी है। करीब दस से अधिक तम्बू में अस्थाई रहवासी परिवारों का एक ही मुखिया है लक्षमण कारीगर। तम्बू की महिला कारीगर को न तो पुरुष से बात करने में दिलचस्पी है और न तस्वीर लेने-देने का शौक। उन्हें अपने दिहाड़ी काम में जुटे देखा जा सकता है जो उनके परिवार को दो वक्त की रोटी देगा ।
देश भर में हुई नोटबंदी और ‘कैशलेस ‘ मोदी एप के बीच बुंदेलखंड में छोटे जिलों में भी आर्थिक विपन्नता ने भुखमरी का पंजा मारा है । गांव में किसानी ठप है तो बड़े शहरों में काम करने वाला मजदूर वर्ग गांव लौट आया है। इसका असर बाहर से पलायन करके आने वाले इन कारीगरों पर भी पड़ा है। लक्ष्मण को बांदा आये एक सप्ताह हो रहा है। इसके पहले झाँसी मऊरानीपुर), छतरपुर, शिवपुरी, रीवा, सतना में रहे। अपने बचपन में पिता से सीखा उनका ये लोहे के देसी बर्तन गढ़ने का हुनर ही उनके इस दस तम्बू वाले समूह का पैतृक रोजगार है। आज भी बाकि लोग रोज की तरह तैयार बर्तन बेचने शहर के मुहल्लों में जाते हैं। शाम को जब वापसी होती है, तब नफा-नुकसान का हिसाब लगाया जाता है। बकौल लक्ष्मण इस नोटबंदी ने हालत पतली कर रखी है। आजीविका ठप है। किराये की गाड़ी से ऐसे ही जीवन बसर हो पा रहा है। बच्चे स्कूल नहीं जाते। वे भी साथ में बर्तन बनाने से लेकर कुछ न कुछ सहयोग करते हैं, इसको आप प्राथमिक पाठशाला भी समझ लीजिये। हमारे पास आज बीड़ी बंडल की किल्लत है। भोजन तो हम भी खा लेते हैं, जैसे सब लोग दिहाड़ी खा रहे हैं।
लक्ष्मण के पास स्मार्ट फोन नहीं है और वे कैशलेस / डिबेट कार्ड / पेटीएम / एटीएम के तकनीकी शब्दों पर जोर से हँसते हैं- जाओ जी हमें अपना काम करने दो । आप लोग भी तस्वीर लेने आ जाते हो। हमारी औरतें (बींदणी ) फोटू न खिंचवावेगी। इतनी बात के साथ आगे बढ़कर देखा तो हाल ही में नोटबंदी में लगे लाखों की नकदी से लगा ‘कमल मेला ‘ होर्डिंग उनकी एक जरुरत तो पूरी कर रहा था। समूह की सभी महिला अपने तम्बू के सामने इसका ‘बाथरूम ‘ बनाये हैं। मोबाइल स्नानघर को देखकर समझ आया कि अभी देश बदल तो रहा है। बशर्ते नेता और नीतिकार ये नहीं समझ पा रहे हैं कि ये देश बदल रहा है या टूटते-बिखरते सपनों के मानिंद घिसट रहा है। आमजन की बुनियादी जरूरतों से मोहताज जिंदगी को शायद रोटी -कपड़ा की अधिक दरकार है, कैशलेस की नहीं ।
बाँदा से आरटीआई एक्टिविस्ट आशीष सागर की रिपोर्ट। फेसबुक पर ‘एकला चलो रे‘ के नारे के साथ आशीष अपने तरह की यायावरी रिपोर्टिंग कर रहे हैं। चित्रकूट ग्रामोदय यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। आप आशीष से [email protected] पर संवाद कर सकते हैं।