महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर।।
सौरभ फैला विपुल धूप बन, मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन,
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल।।
सारे शीतल कोमल नूतन, माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण,
विश्वशलभ सिर धुन कहता मैं हाय न जल पाया तुझमें मिल
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल।।
जलते नभ में देख असंख्यक, स्नेहहीन नित कितने दीपक,
जलमय सागर का उर जलता, विद्युत ले घिरता है बादल
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल।।
द्रुम के अंग हरित कोमलतम, ज्वाला को करते हृदयंगम,
वसुधा के जड़ अंतर में भी, बंदी है तापों की हलचल
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल।।
मेरे निश्वासों से दुततर, सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अँचल की ओट किए हूँ, अपनी मृदु पलकों से चंचल।
सहज-सहज मेरे दीपक जल।।
सीमा ही लघुता का बंधन, है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन,
मैं दृग के अक्षय कोशों से तुझमें भरती हूँ आँसू-जल।
सजल-सजल मेरे दीपक जल।।
तम असीम तेरा प्रकाश चिर, खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा अमिट चित्र अंकित करता चल।
सरल-सरल मेरे दीपक जल।।
तू जल जल होता जितना क्षय, वह समीप आता छलनामय,
मधुर मिलन में मिट जाना तू उसकी उज्जवल स्मित में घुल-खिल।
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल।।
दीपोत्सव के अवसर पर लीक से अलग हटकर श्रीमती महादेएवी वर्मा की कविता’मधुर मधुर मेरे दीपक जल ‘ देने के लिए बधाई ।