महिला अधिकारों के ‘तलाक’ का हक किसको है?

महिला अधिकारों के ‘तलाक’ का हक किसको है?

धीरेंद्र पुंडीर

woman-in-burqaबचपन में खेंतों को पार कर नदी के दूसरी तरफ बसे गांव न्यामू में जाना सिर्फ मेले के वक्त ही होता था। स्कूल की छुट्टियां, जून का सूरज सिर पर तपता हुआ और दिन भर अपने गांव के जंगलों में गाय-भैंस चराते हुए न्यामू का मेला एक नखलिखस्तान हुआ करता था। जिसका ख्वाब कई बार देखता था। और आखिर में दंगल देखना तो जैसे गांव की छुट्टियों की फैंटेसियों का ऊरूज। ढोल की थाप पर, लंगोट में बांधे हुए कसरती बदन और ताजा खुदी मिट्टी के अखाड़े के बाहर की गांव-गांव की भीड़ अपने पहलवान को इज्जत का वास्ता देती हुई, खुशी से पागल कर देती थी। छुट्टी खत्म और गांव के दिन भी।

शहर के स्कूल में कई दिन तक लगता था कि जैसे अभी भी दिल न्यामू के गांव के अखाड़े में ही कही दबा हुआ है। नदी हिंदवती जिसे लोगो ने हिंडन और अब सिर्फ एक नाले में बदल दिया जिसके इस ओर मेरा गांव और दूसरी ओर न्यामू। बड़े होने के बाद गांव में आना-जाना तो बना रहा लेकिन घर के बाहर जाना बंद ही हो गया। कुछ देर या दिन के लिए जाने के चलते सिर्फ अपने घर और खेतों में ही जा पाता हूं तो नदी पार के गांव में जाकर फिर से बचपन को अखाड़े की मिट्टी खोजना हो ही नहीं पाता। और इस तरह से न्यामू मेरे बड़े होने के साथ मेरी जिंदगी में छोटा होता हुआ गायब हो गया। हाल ही में जैसे ही अखबार हाथ में लिया तो जैसे न्यामू अपने पूरे वजूद के साथ आ खड़ा हुआ।

देश की राजधानी में एक नेशनल अंग्रेजी अखबार में अग्रेजी में न्यामू पढ़ने मे दिक्कत हुई लेकिन फिर पढ़ा तो याद कि ये तो मेरा न्यामू है। और खबर में जिस कारण थे था उसको मैं याद नहीं करना चाह रहा था वो तीन तलाक की बात थी। एक लड़की जिसका बच्चा महज 11 महीने का है अपने पिता के घर बच्चे के साथ खुशी को बांट रही थी। ससुराल से घर आई हुई बेटी को देखकर घरवालों को जो सुकून मिलता है वो तो हर किसी ने जरूर अहसास किया होगा।

अपने घर के आंगन में बड़ी हुई बेटी के हाथों में खेलता हुआ बच्चा देखकर कैसा लगता होगा ये अहसास करना मुश्किल नहीं। दीवारों-दर और आंगन उस बच्चे में और अपने आंगन में खेल कर बडी़ हुई बच्ची के बीच, कुछ -कुछ याद कर हंसते होंगे। ससुराल से घर आई हुई लड़कियां करती है अपने पति के फोन का इंतजार। फोन आने पर घर के भाई या बुजुर्ग उठकर चल देते हैं या फिर बेटी फोन लेकर उठकर अलग कोने में बात करती है। तो फिर ऐसा ही एक फोन न्यामू की उस बेटी के फोन पर आया लेकिन इस बार बेटी की आंखें फोन खत्म करने पर चमक से नहीं बल्कि आंसूओं से भर गई थीं।

मां जो बेटी की सांस लेने से दर्द और खुशी में अंतर कर लेती है वो समझ गई कि कुछ ऐसा हो गया है कि जिसने बेटी की जिंदगी को एक दम से बदल दिया है। पूछा तो जैसे बेटी की जुबान खामोश हो गई। मां ने गले से लगाकर बहुत दर्द से पूछा तो बेटी ने बस एक ही जवाब दिया कि उन्होंने फोन पर कहा है तलाक,तलाक, तलाक। अपने नाती को गोद में लिए खुश दिख रहे बाप के हाथ से जैसे सब कुछ छिन गया। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। अभी बेटी के ब्याह के लिए उठाए गए उधार का सूद भी नहीं गया और ये क्या हो गया? सिर्फ तीन बार तलाक तलाक और तलाक कहा, और बेटी की जिंदगी की डोर काट दी। आंखों में आंखें डाल कर भी नहीं सिर्फ मोबाइल पर कह दिया और सब कुछ खत्म हो गया।

गांव ने इसके खिलाफ़ लड़ने का फै़ैसला किया। और गांव आज उस बेटी के साथ खड़ा है। कोर्ट जाएगा। पंचायतें होगी या फिर बाकी मेल मिलाप की बातें भी लेकिन इस बात ने मुझे मजबूर कर दिया कि तीन तलाक के मुद्दे पर देश में चल रही बहस में अपनी समझ को शेयर करूं।तीन तलाक के मुद्दे पर विरोध कर रहे लोगों ने अपना रूख साफ कर दिया। उसमें बहुत कुछ कहना-सुनना ज्यादा नहीं है। अपने हलफनामे में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उनको कम दिमाग भी कह दिया और अपनी समझ का परिचय भी दे दिया जो उन्होंने ( उनके मुताबिक) अपने मजहबी रवायतों से हासिल किया है।

तीन तलाक का विरोध करने वाले ज्यादातर अल्पसंख्यकों के लेख पढ़ने के बाद ऐसा लगा मानो वो कह रहे है कि ये गलत है क्योंकि इसका जिक्र कुरान शरीफ में नहीं है। वो इस बात का तर्क दे रहे है कि ये कुरान शरीफ के मुताबिक नहीं है। यानि शरिया में नहीं है इसलिए इसका विरोध किया जा रहा है। इसलिए नहीं कि ये महिलाओं और बेटियों और बहनों की जिंदगी को नरक में बदले हुए है। ये संविधान के प्रदत्त अधिकारों की अवहेलना करता है। इसलिए विरोध नहीं किया जा रहा है कि महिलाओं को अधिकार दिलाया जाना चाहिए बल्कि इसलिए किया जा रहा है कि ये शरिया में नहीं है।

ये बात बहुत निराश करने वाली है। मीडिया जिस तरह से इन विरोध करने वालों को संविधान के रक्षकों की भूमिका थमा रहा है वो ऐसी किसी भूमिका में हैं ही नहीं। उनका विरोध किसी गैर महिला विरोधी परंपरा का विरोध नहीं बल्कि उनका विरोध शरिया सम्मत न होने का विरोध है। मीडिया में बैठ कर उनकी बातें सुनने के बात मुझे लगा कि ये लोग संविधान के शासन से ज्यादा शरिया का क़ानून चाहते हैं। पूरी बहस में महिलाओं के हक की बात  कम है, और मजहबी क़ानून पर कहीं ज्यादा फोकस है।

मुझे लगता है इंसानी सभ्यता ने बहुत लंबा सफर तय किया है। इस सफर में उपलब्धियों के बीच महिलाओं की चींखें हमेशा दबती रही हैं। महिलाओं को बराबर का अधिकार देने से से रोकने के लिए हर धर्म के प्रमुखों ने हर तरह की कोशिश की है। ऐसे में विरोध करने वाले का आधार अगर तीन तलाक में शरिया सम्मत नहीं होना है या फिर कुरान शरीफ के मुताबिक नहीं है तो ये सिर्फ मुखौटे की आड़ में हिसाब साफ करना है। इंसानी सभ्यता का विकास बराबरी के आधार पर तय होना चाहिए। संविधान में हर इंसान को दिए गए अधिकारों के आधार पर होना चाहिए न कि किसी के धर्म के आधार पर।


pundir-profileधीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है। 


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