‘झिझिया’ से इतनी झिझक क्यों भाई !

पुष्य मित्र

jhajhiyaअगर हमें अपनी संस्कृति और लोक परंपराओं को जीवित रखना है तो उसे सिर्फ दिल में सहेजने भर से काम नहीं चलेगा । उसे जुबां पर लाने की जरूरत है । यूपी-बिहार के लोग जो दिल्ली में रहते हैं वे अक्सर कहते मिल जाते हैं कि मराठी-गुजराती, राजस्थानी समेत तमाम लोक कलाएं आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ने की बजाय फल-फूल रही हैं जबकि पूरबिया महक अपनी सुगंत को खोती चली जा रही है । कोई त्योहार आ गया तो किसी गली-मोहल्ले में लोक संस्कृति की झलक दिखाई दे जाएगी,नहीं तो आज कल गांवों में भी परंपरा को बोझ समझकर दूर कर दिया जा रहा है । अभी दशहरा बीता है, लेकिन दशहरा पर होने वाले बिहार के पारंपरिक लोक-नृत्य ‘झिझिया’ शायद की किसी को याद आया हो । कुछ बुजुर्ग होंगे जिनकी स्मृति पटल पर शायद अंकित हो लेकिन आज की युवा पीढ़ी तो शायद नाम ही कभी ना सुनी हो । झिझिया की जगह हम सभी के आंगन में गरबा-डांडिया ने घर बना लिया है । ऐसे में सवाल उठता है कि गुजरात और महाराष्ट्र में जिस तरह गरबा-डांडिया लोकप्रिय है, क्या हम बिहार में झिझिया लोक नृत्य को उसी प्रकार लोकप्रिय नहीं बना सकते । जिस तरह सरकारें गरबा-डांडिया को संरक्षण प्रदान रही हैं, क्या बिहार की सरकार झिझिया लोक नृत्य को संरक्षण नहीं दे सकती है । बिहार में जितने भी कला संस्कृति मंत्री बनाए गए उन्होंने पहल क्यों नहीं की।

खैस किसी पर दोषारोपड़ करना हमारा मकसद नहीं बल्कि बस इतना कहना है कि अपनी अच्छी परंपराओं और कलाओं को सजोंकर रखिए । अपने बच्चों को उनके बारे में बताइए ताकि वो भी अपनी माटी की महक को महसूस कर सकें । ऐसे में अब कुछ लोगों के मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर ये झिझिया क्या है । तो आपको बताते चलें कि झिझिया मिथिलांचल का खास लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा पर होने वाले इस लोक नृत्य में कुंवारी लड़कियां ही भाग लेती हैं। नृत्य के दौरान उनके सिर पर जलते दिये और छिद्र वाले घड़े होते हैं। पूरी तरह स्त्रियों के इस लोक नृत्य में लड़कियां सखी-सहेलियों के साथ एक गोल घेरा बनाकर नृत्य करती हैं। घेरे के बीच में एक मुख्य नर्तिका सिर पर घड़ा लेकर खड़ी रहती है। घड़े के ऊपर ढक्कन पर एक दीप जलता रहता है। इस नृत्य में सभी लड़कियां एक साथ ताली वादन तथा पग-चालन व थिरकने से जो समा बंधता है, वह अत्यंत ही आकर्षक होता है।

इन लोक कलाओं का सही मायने में विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक हर किसी के जेहन में ये रच-बस ना जाएं । ऐसे में आज के परिवेश के मुताबिक इसमें कोई परिवर्तन करने हों तो वो किए जाने चाहिए ताकि हर किसी की भागीदारी सुनिश्चित हो सके । कोई भी कला या संस्कृति अगर वक्त के साथ खुद में कुछ बदलाव नहीं लाती है तो वो अपना अस्तित्व को देती है ।इसमें कोई संदेह नहीं कि गांव जवार की टीम कला और संस्कृति को संजोने का जो कार्य कर रही है वो काबिले तारीफ है । ऐसे में हमें उनका साथ देना चाहिए ।

PUSHYA PROFILE-1


पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।

 

3 thoughts on “‘झिझिया’ से इतनी झिझक क्यों भाई !

  1. dadhai. aap ne likha. is me gaon jawar ke pryash ka bhi ullekh krte to acha hota.

    1. ekhlaque भाई पोस्ट की आखिरी लाइन में गांव जवार के प्रयास का ही जिक्र है…

  2. झिझिया मिथिलांचल ही नही पूरे बिहार का मशहूर लोकन्रित्य है ।गुजरात मे इसे डांडिया कहा जायता है ।यह मुगलकालीन एक लोक कथा पर आधारित है जिसका नायक बालरूप हैःइसके केन्द्र मे डाईन-जोगिन और जादू-ना है।एकगीत—–
    काजर य कैले डैनी टिकुली त कैँले गे
    सेनुर लगैले नौरंगिया गे ।

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