ब्रह्मानंद ठाकुर
मेरे गावं का नाम पिअर है । मेरा गावं पहले मुजफ्फरपुर जिला के मुरौल प्रखण्ड के अन्तर्गत था । 1994 में यह बंदरा प्रखण्ड में आ गया ! गावं के बगल से बूढी गंडक नदी बहती है । तटबंध ऊँचा होने से फ़िलहाल बाढ़ का खतरा नहीं है । सिल्ट जमा हो जाने से नदी उथली हो गई है । चार साल पहले पिलखी घाट पर पुल बन जाने से आवागमन आसान हो गया है । इससे पहले हमलोग इस नदी के देदौल या पिलखी घाट पर नाव से नदी पार कर शहर जाते थे, लेकिन आज सरपट गाड़ियां दौड़ती हैं । आलय ये कि विकास की रफ्तार ने गांव का सूरत बदल दी । अगर हम अपने बचपन की बातें करें तो आज कुछ नहीं बचा है । विकास की अंधी दौड़ में गांव की विरासत और सादगी कब रौंद दी गई पता ही नहीं चला । आज की पीढ़ी को गांव का इतिहास जानने में कोई दिलचस्पी नहीं लिहाजा विरासत को समझने की जरूरत ही नहीं पड़ती ।वैसे तो पीअर गांव का काफी ऐतिहसिक महत्व है । ये कम युवा ही जानते हैं कि असहयोग आन्दोलन, नमक सत्याग्रह और स्वदेशी आन्दोलन में इस गावं की अहम भूमिका रही । यही नहीं देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने खुद इस गावं में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना कराई थी । बाद में यहाँ बेसिक स्कूल और उच्च शिक्षा के लिए पोस्ट बेसिक स्कूल की स्थापना हुई ।
यह पोस्ट बेसिक स्कूल ही आज का सर्वोदय उच्च विद्यालय है । तब यहाँ कटाई, बुनाई और तेलघानी उद्योग चलता था । छात्र तकली और चरखे पर सूत काटते थे । गावं के एक स्वतंत्रता सेनानी मुसन चाचा स्कूल में हस्तकरघा पर कपडा बुनते थे । मैंने भी बचपन में तकली पर कटाई की है । इस स्कूल के बगल में खूब वट वृक्ष हुआ करता था, जहां हम लोग बडहोर पकड़ कर झुला झूलते थे । आज यह सिमट कर मात्र एक पेड़ तक हो गया है ।
पहले हर काम मिल-जुलकर और आपसी सहयोग से हुआ करता था । गावं वालों ने जमीन दान कर एक सब पोस्ट ऑफ़िस की स्थापना कराई थी । जन सहयोग से कार्यालय, पोस्टमास्टर का आवास और पोस्टमैन का आवास बनाया गया था , लेकिन विभाग ने उसकी मरम्मत नहीं कराई। जिसका नतीजा ये हुआ कि भवन धराशायी हो गया । वहाँ जंगल उग आए और डाकघर किराये के मकान में चलने लगा ।पहले शादी-विवाह के मौके पर किसी भी सामान के लिए टेंट की जरूरत नहीं थी । शामियाना, दरी, जाजिम, इतरदान, गुलाबपास, फुहारा, अचकन, पैजामा, समेत शादी-विवाह की जरुरत लायक कई जरुरी सामान गांव में ही मिलते थे वो भी बिना किसी पैसे के । नई पीढ़ी को जानकर अचरज होगा कि पहले एक अचकन-पैजामा से कई दूल्हो का विवाह होता था । मेरा भी हुआ है । तब शूट का प्रचलन नहीं था । जामा-जोड़े में विवाह होता था । पहले विवाह में बारात तीन दिनों तक रहती थी, पूरा गावं गुलजार रहता था । अब तो बारात तीन घंटो में वापस आ जाती है । धीरे-धीरे सबकुछ बदल गया । मठ्ठा की जगह चाय और लाठी की जगह बंदूक ने कब गांव को अपने आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला ।
धोती और पैजामे को जिन्स पेंट ने विस्थापित कर दिया । लंगौटा के बदले जांघिया लोक प्रिय हुआ । बैलों से दौनी की जगह ली थ्रेशर ने और धान कूटने वाली मशीन ने ओखल-मूसल की प्रासंगीकता समाप्त कर दी । अब किसी के घर के बाहर दालान नहीं होते जहाँ चौपाल लगे और ना ही जाडे में घूरा के पास बैठकर बतकही । कमरे में भगवान के साथ फ़िल्मी नायिका और विश्वसुन्दरियों कि तस्वीरे मुस्कुराती हैं । पंचायत चुनाव से लेकर संसदीय चुनाव तक पूँजी निवेश ने जन सेवा का मायने बदल दिया । हर गावं-गली कई-कई पार्टियों के नेता बन गये है जो थाना से ब्लॉक और अंचल तक उछल-कूद करते है । ठेकेदारी-दलाली का पेशा शिक्षक के पेशे से ज्यादा सम्मानित हो गया है ।
ब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले । पेशे से शिक्षक फिलहाल मई 2012 में सेवानिवृत्व हो चुके हैं, लेकिन पढ़ने-लिखने की ललक आज भी जागृत है । गांव में बदलाव पर गहरी पैठ रखते हैं और युवा पीढ़ी को गांव की विरासत से अवगत कराते रहते हैं ।
वाकई यह शानदार रिर्पोताज है। पीयर के युवा इसे पढ़कर अपने गांव को समझ सकते हैं। हर गांव के बुर्जुग को अपने गांव पर रिर्पोताज लिखना चाहिए।