दीपक कुमार
जीवन में गुरु की महत्ता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है। आज के आधुनिक दौर में भले ही इंटरनेट और कंप्यूटर ने शिक्षा प्रणाली में अपनी उपस्थिति बना ली हो, लेकिन गुरु का स्थान लेना इन माध्यमों के बूते की बात नहीं। इस शिक्षक दिवस के अवसर पर मैं अपने सभी गुरूजनों को याद कर रहा हूँ। आज जो भी हूँ और जैसा भी हूँ, इनमें सारे गुरूजनों का कुछ न कुछ जरूर योगदान रहा है। मैं जवाहर नवोदय विद्यालय का छात्र रहा हूं। वो दिन भी क्या दिन थे। हॉस्टल के। 24 घंटे शिक्षकों के भरोसे छात्रावास का अलहदा जीवन। ऐसे में शिक्षकों की अहमियत हमारे लिए कहीं ज्यादा थी। शिक्षक दिवस के मौके पर जब दो पल को ठहरकर उन दिनों को याद करते हूं तो कई गुरुजनों के चेहरे बरबस आंखों के सामने कौंधने लगते हैं।
राकेश सिन्हा, हमारे लाइब्रेरियन सर। किताबों में दिलचस्पी इन्होंने ही पैदा की। प्रेमचंद, शरतचन्द्र, टैगोर आदि के नाम से छोटी सी उम्र में परिचय कराया। सिन्हा सर स्कूल में क्वीज प्रतियोगिता करवाया करते थे। उनके कारण हम सब देश दुनिया के बारे में जानने को उत्सुक हुए। लेकिन सबसे बड़ी विशेषता थी उनका प्रोत्साहन। वो हम सबों को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देते रहे। खास कर वो स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर देते थे। यहाँ तक कि वो लड़कियों के घर जाकर उनके माता-पिता से मिलते थे और लड़कियों को आगे पढ़ने देने के लिए मिन्नतें करते थे। स्कूल से निकलने के बाद भी वो हम सबों का रिपोर्ट कार्ड लेते रहते थे।
संतोष सिंह सेंगर, सर हमलोगों को विज्ञान पढाते थे। उनका पढ़ाने का ढ़ंग निराला था। हमलोग उनकी कक्षा को कभी भी बंक नहीं किया। वो हर एक विद्यार्थी पर निगाह रखते थे और मनोस्थिति को भाँपते भी थे। वर्षोँ बाद भी सेंगर सर ने हम लोगों को याद रखा है। उन्होंने विज्ञान के साथ ही हमें जीवन जीने का सलीका भी सिखाया। खास कर कपड़े पहनने और उन्हें बरतने को लेकर वो खुद ही मिसाल पेश किया करते।
शंभुनाथ झा, हमारे स्कूल के प्रधानाचार्य थे। विद्वान और मृदुभाषी। प्रार्थना सभा में जब वो बोलते थे तो उनका वक्तव्य एक अलग ही छाप छोड़ता था। वे सभी धर्मों को समान रूप से देखते थे और सभी धार्मिक उत्सवों को समान रूप से मनाने को प्रोत्साहित करते थे। जब आज समाज में धर्म के नाम पर झगड़ा हो रहा है, शंभुनाथ झा सच्चे सेकुलरवाद के प्रतीक थे। शंभुनाथ झा सर ने हमेशा हमारी रचनात्मकता को प्रोत्साहित किया। शायद, उनके लिए अनुशासन से कहीं ज्यादा अहमियत हमारी रचनात्मकता रही। इसकी वजह से कई बार हमने अनुशासन तोड़ा लेकिन आज जब रचनात्मक रूप से हम थोड़े संवेदनशील हैं, तो ये उन जैसे शिक्षकों की ही देन है।
पसंदीदा शिक्षकों की फेहरिस्त कहीं लंबी हो सकती है। फिलहाल, कुछ चेहरों को जेहन में कौंधने और विचरने का मौका दे रहा हूं। अगले शिक्षक दिवस पर भी तो कुछ ऐसे ही शिक्षकों को याद करने और उन पर बातें करने को लोभ बनाए रखना चाहता हूं। यही तो वो लोग हैं, जो साल दर साल हमारे जीवन में और अहम होते जा रहे हैं।
दीपक कुमार। जवाहर नवोदय विद्यालय पूर्णिया के पूर्व छात्र। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा। हंस में छपी आपकी कहानी काफी चर्चा में रही। जिंदगी के संघर्ष में कुछ यूं घिरे कि हाल के दिनों में बहुत ज्यादा रचनात्मक लेखन नहीं कर पाए हैं।
तुम्हारी ठिठकी हुए रचनात्मकता आज फिर से उड़ान भरने की कोशिश में एक कदम आगे बढ़ी है बधाई हो । इत्तफाक देखो फिर प्रेरणा बने तो वो हीं गुरुजन । मुझे बहुत खुशी हो रही है । अपनी अभिव्यक्ति को फिर से बहने दो । तुम्हारे सहजता से सच बोलने के तरीके से अन्य को भी खुद को समझने में मदद मिलती है ।
– आलोक