चित्रकूट का रोमांच और आनंद

चित्रकूट । फोटो- बरुण सखाजी
चित्रकूट से होकर बहती मंदाकिनी नदी। फोटो- बरुण सखाजी

बरुण के सखाजी

अगर आपके पास 2 या 3 दिन हैं तो आपके लिए चित्रकूट एक अच्छी लोकेशन हो सकती है, जहां आप स्वयं को स्फूर्ति और ताजगी से भर सकते हैं। मध्यप्रदेश के सतना जिले में आने वाली यह पहाड़ी आध्यात्मिक आनंद का पर्याय कही जा सकती है। यही पहाडिय़ां राम-भरत मिलाप की गवाह हैं, तो तुलसी के रामचरित मानस की अनुगूंज भी हैं। चित्रकूट सतना जिला मुख्यालय से 75 किलोमीटर यूपी के बांदा की तरफ है। इसके लिए 8 किलोमीटर के दायरे में करबी रेलवे स्टेशन भी एक विकल्प है, यद्यपि यहां ट्रेनें बहुत कम हैं। यह लखनऊ रूट पर पड़ता है। हम लोगों की सपरिवार इस बार की स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्याएं इन पहाडिय़ों की तलहटी में मनी। इस यात्रा पर आपको भी लिए चलता हूं। पूरी यात्रा चूंकि लेखक की नजर से है तो इत्तेफाक न भी रखें तो भी कम से कम इस यात्रा का आनंद जरूर लें। रात का सन्नाटा और डकैतों का खौफ, रोमांच से भरी यात्रा चित्रकूट की आनंद यात्रा एक रूप में रोमांचक भी रही। मैहर से जब हम लाख ऊहापोह के बाद बस मार्ग से चित्रकूट के लिए निकले तो रास्ते की पूर्वाग्रह से उपजी शंकाओं ने खूब छकाया। पूरे परिवार के साथ यात्री बस से ऊबड़-खाबड़ रोड से होकर चित्रकूट के पहाड़ों की तरफ चल पड़े। शंकाएं साकार तब हो गईं जब बस चित्रकूट से महज 10 या 12 किलोमीटर दूर पुलिस वालों ने रोक दी। सवा 8 बजे रात को पहुंचने वाली बस के यहां खड़े कर दिए जाने से सभी सवारी चिंताग्रस्त हो गईं। पुलिस ने बताया कि यहां से घना जंगल है। रात को किसी भी वाहन को अकेले नहीं गुजरने दिया जाता। यहां से ही बुंदेलखंड के वो बीहड़ शुरू होते हैं, जहां डकैत रहते हैं। इसलिए जब तक 12 से 15 वाहन नहीं हो जाते बस नहीं जाएगी। करीब 10 मिनट तक यहां संशय रहा। इस खबर को सुनने के बाद यात्रियों में भी दहशत भर गई। मेरे में मन में भी फिल्मों बनने लगीं, जिनमें मैंने कुछ डाकुओं को मिथुन चक्रवर्ती स्टाइल में या अली कहते हुए मार गिराया, जिसके लिए मुझे राज्य वीरता पुरस्कार भी मिल गया। थोड़ी ही देर बाद एक फिल्म ऐसी भी बनी जिसमें मैंने अपनी आध्यत्मिक और सार्थक बातों से डाकुओं को आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया। एक फिल्म में मैं सभी यात्रियों को बचाते हुए शहीद भी हुआ। इस तरह से मन की उधेड़-बुन के बीच शंकाओं को विराम लग गया, अगले ही पल ड्राइवर अपनी सीट पर आ बैठा और बस चल पड़ी।

सावन का महीना, धर्मशालाओं में जगह नहीं, होटलें फुलchitrakoot6
रात करीब साढ़े 9 बजे चित्रकूट में हम सपरिवार एक ऑटो हायर करके होटल, धर्मशाला खोजने लगे। समूचे चित्रकूट में पिछले कई दिनों से रात को पूरी तरह से बिजली कटौती हो रही है। लोगों ने बताया कि शाम 6 बजते ही लाइट चली जाती है, जो रात 12 बजे आती है। कभी-कभी वही भी नहीं आती। हमारी खोज एक होटल में जाकर पूरी तो हुई लेकिन वह संपन्न नहीं हो सकी। जिस हॉल को हमें दिया गया वहां एक तो पानी टपक रहा था तो रात को जनरेटर भी जल गया। इससे अंधेरा हो गया। हम लोगों ने रात 11 बजे होटल छोडऩे का फैसला कर लिया। अब खोज फिर शुरू। रात को ऑटो से खोजते रहे होटल, सब जगह मिल रहा एक ही जवाब नो रूम्स रात 11 बजे पूरे परिवार को लेकर यूं होटल छोडऩे का फैसला मेरा था। इसलिए यह जिम्मेदारी भी मेरी ही थी कि अगली होटल थोड़ी और बेहतर व आरामदायक हो। हम लोग करीब एक घंटे तक यहां से वहां घूमते रहे। मगर कहीं भी कोई रूम नहीं थे। अच्छे से अच्छे होटल गए और अच्छी से अच्छी धर्मशालाओं तलाशी। परिवार के कुछ लोग थोड़े तनाव में जरूर थे, मगर धीरे-धीरे इसे भी हम लोग एंजॉय करने लगे थे। अंतत: एक धर्मशाला में एक बड़ा हॉल मिल गया। या यूं कहिए कि हमारे आध्यात्मिक गुरु श्री राम बाबा जी का जैसे ही ध्यान लगाया हमारा ऑटो इस धर्मशाला के सामने था।

chitrakoot5यह बात कहने, सुनने में थोड़ी अटपटी जरूर लग रही है, लेकिन दिव्य अनुभूति ही थी कि एक ही पल में उस धर्मशाला के सामने हम लोग थे जहां एक हॉल खाली था। वह भी महज 200 रुपए के किराए पर और 15 रुपए प्रति गद्दा (फोम वाले), 5 रुपए तकिया और 10 रुपए चादर। महज 355 रुपए में हम सब जिस तरह के हॉल में रुके वह वास्तव में बहुत ही आरामदायक था। तय हुआ सुबह 7 बजे चला जाएगा। ऑटो वाले को बता दिया गया। थकान से भरी सुबह, वापसी को आतुर, लेकिन घूमने के बाद लगा बस यहीं ठहर जाओ सुबह हम लोगों ने अपनी यात्रा तय तो 7 बजे की की थी, लेकिन ताम-झाम की वजह से 9 बजे शुरू हो सकी। इससे पहले ऑटो वाला 3 बार आया और हमें जगाकर तैयार रहने के लिए कहकर गया। मगर संभव नहीं हुआ। मैं स्वयं ही जो हजार तर्क दे रहा था कि सुबह जल्दी निकलना है, पौने 9 बजे उठा और 9 बजे तक सभी तरह से तैयार होकर बाहर था।

मंदाकिनी की किल्लोल करती धारा और फटिक शिला पर साक्षात् होते राम, लक्ष्मण और सीता

फटिक शीला पर राम के पैरों के निशान
फटिक शीला पर राम के पैरों के निशान

हमारा ऑटो सबसे पहले मंदाकिनी के उस घाट पर गया जहां राम, लक्ष्मण और सीता एक पत्थर पर बैठा करते थे। इसे ही फटिक शिला कहा जाता है। यह किस पत्थर की है यह तो कोई नहीं बता पाया लेकिन सबने यह जरूर कहा कि इस पर आर्चियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) सभी तरह के शोध कर चुका है। वह भी कहता है कि फटिक शिला लाखों साल पुरानी है। इस शिला पर कुछ पैर जैसे अस्पष्ट से निशान नजर आते हैं। यहां पर मौजूद पंडित राकेश पांडे ने बताया कि यह चिन्ह भगवान राम और सीता के पैरों के हैं। करीब एक से डेढ़ फीट लंबे पैर के निशान पहले तो हजम नहीं हुई बात, लेकिन जब डार्बिन का विकासवाद का सिद्धांत यादा आया तो बात समझ आई। लाखों साल पहले वास्तव में लोग ऐसे ही रहे होंगे। जबकि सीता के चरण अपेक्षाकृत छोटे थे, लेकिन आज के मनुष्य के पैर से फिर भी बड़े ही नजर आए। मन में शंका उत्पन्न हुई कि क्या राम के युग में भी पुरुषों और ियों में ऐसा नैसर्गिक भेद था, कि पुरुष शरीर में मजबूत तो है ही साथ ही हाथ, पैर के आकार में भी से बड़ा है क्या। यह प्रश्न मन में अभी भी निरुत्तर है। राम के इस घाट पर यानी रामघाट पर तुलसी नहीं दिखे। हां, बड़े आश्रम जरूर नजर आए।

मंदाकिनी की धार और बंदरों की मार
जैसा कि आमतौर पर होता है, यहां भी था। बंदरों की भरमार थी। लेकिन वे परेशान नहीं करते। एक बंदर ने जरूर मुझे रोककर जेब में तलाशी ली। कुछ नहीं मिला तो वह चला गया। हम लोगों ने भी कुछ फूटे बंदरों के लिए डाल दिए। इसके बाद हमारा ऑटो अपने अगले गंतव्य की ओर था।

रिमझिम फुहार के बीच अनसुइया का आश्रमchitrakoot4
जंगलों से होकर अब हम अनसुइया आश्रम पहुंच चुके थे। यहां पर भी मंदाकिनी की तेजधार के तीर पर बना एक बड़ा मंदिर था। इसे बनाने और बसाने वाले महाराज जी की मूर्तियां लगी हुईं थी। सतियों की कथा को मूर्तियों में वर्णित किया गया है। यहां हम कुछ और सतियों से मिलते हैं, जो नीची जातियों से ताल्लुक रखती थीं। मेरे मन में ख्याल आया कि सती सुलोचना, सती सावित्री, सती अनुसुइया को हम सब जानते हैं, लेकिन एक सती बहेलिन को नहीं जानते। यद्यपि यहां मंदिर में उनकी मूर्त भी उतने ही सम्मान से लगी थी, लेकिन लोक कथाओं से वे नदारत हैं। मन में अच्छा महसूस नहीं हुआ, कि वह दलित थीं इसलिए उन्हें लोक कथाओं में वो सम्मान हासिल नहीं जो बाकी सतियों को है। वहीं तुलसी यहां भी नजर नहीं आते। जबकि आश्रम बनाने वाले बाबाजी की मूर्तियां हर आकार में लगी हुईं थीं। अब हमारा कारवां सबसे रोचक, रोमांचक और मन को स्फूर्त कर देने वाले गुप्त गोदावरी पहाड़ पर था । यहां से होकर अब हम चित्रकूट के सबसे महत्वपूर्ण पर्वत गुप्त गोदावरी की तलहटी में थे। यहां पर रास्ते से बहता पानी। झरना। आनंद को चौगुना कर रहा था। हम सभी परिवार के लोग यहां से करीब घुटने-घुटने नीचे की ओर ठेलते पानी को चीरते हुए पहाड़ी की तरफ बढ़ रहे थे। नंगे पैर, गुदगुदी करके निकलता पानी लाख खुशियों के बराबर था। मेरा तीन साल का नन्हा बेटा तक इस आनंद को पूरे मनो उत्साह के साथ महसूस कर रहा था। उसे देखकर मुझे जो गुप्त गोदावरी और पहाड़ के दर्शन करने में आनंद आ रहा था वह और पंचगुना हो चला। सीढिय़ों से टहलते हुए पानी का सड़क पर आना और दुकानों के नीचे से होकर बड़े चौड़े नाले में समा जाना आनंदप्रद था। यहां हम लोग जानबूझकर एक घंटे तक रुके। यहां के सभी वीडियो और फोटोज आप नीचे देख सकते हैं। गुप्त गोदावरी के इस आनंद से बीच भी बाबा तुलसी नजर नहीं आए।

बरुण सखाजी और उनके भाई ।
बरुण सखाजी और उनके भाई ।

अब बारी थी कामदगिर की, कहते हैं जिसके अच्छे दिन आते हैं वही यहां आता है
कामदगिर एक पहाड़ी तलहटी है। यहां 5 किलोमीटर की गोल परिक्रमा भी की जाती है। हमारे पास वक्त नहीं था, चूंकि 14 अगस्त की रात को मैहर से हम लोगों की वापसी की ट्रेन थी जबकि चित्रकूट से मैहर का रास्ता करीब 5 घंटे का था। इसलिए हर हाल में दोपहर 3 बजे तक निकलना ही था। हालांकि मन इतना कर रहा था कि अपनी यात्रा को एक दिन और बढ़ाया जाए और चित्रकूट को पूरी तरह से देखा,जाए। इस संबंध में हम सभी एक दूसरे के सामने प्रस्ताव रखते और खारिज करते। यानी सब चाहते थे कि रुकें, लेकिन आरक्षण की मजबूरियों के चलते यह संभव नहीं हो सका। अब हम कामदगिर के मंदिर में थे। यहां भी मैंने तुलसी को खोजा, मगर वे नहीं थे।

chitrakoot1चरण पादुकाएं माथे पर लगाकर बोलते फू-फा
कामदगिर में भरत जी के मंदिर में करीब 80 साल के एक पुजारी लकड़ी की चरण पादुकाएं लेकर बैठे थे। वे मन ही मन कुछ बोलते मगर जो सुनाई देता वह फू-फा था। वे एक फू कहकर चरण पादुका सिर पर रखते और फा कहकर पीठ पर रख देते। इसे मैंने करीब 5 बार सुनने और समझने का प्रयास किया मगर यह हर बार फू-फा उच्चारण ही समझ आया। चूंकि मामला आस्था का था इसलिए कोई और विकल्प नहीं था। फिलहाल बाबा कामद के श्यामल स्वरूप के देखकर मन उजास से रौशन हो पड़ा। मगर बाबा तुलसी यहां भी नजर नहीं आए। तुलसी को खोजती निगाहें चित्रकूट के बारे में मेरी राय यह थी कि यहां पर बाबा तुलसी की एकतरफा चलती होगी। उनके मंदिर, मठ, चौपाइयां होंगी, लेकिन ऐसा नहीं है। यहां पर तुलसी दास ने जहां पर राम चरित मानस लिखा वहां तो हम नहीं जा पाए, लेकिन बाकी जगहों पर जरूर तुलसी को खोजा। फिर ख्याल आया, तुलसी सिर्फ देने का नाम है, लेने का नहीं। जिन ब्राह्मणों ने तुलसी को गंवार कहा उन्हीं ब्राह्मणों को वे राम चरित में पूज्य बताते हैं। वे पूरे राम चरित में ब्राह्मणों को स्थापित करते नजर आते हैं। बावजूद इसके तुलसी को कृपण ब्राह्मण इतना सम्मान भी नहीं दे पाते कि वे चित्रकूट के एकल ऋषि कहाते।

हर बाबा का बड़ा, भव्य और भयानक आश्रम
यहां आश्रमों को भयानक कह देना मेरा पूर्वाग्रह है। लेकिन जो दिखता है वह इससे बहुत ही नजदीक भी है। यहां रावतपुरा, जय गुरुदेव, सद्गुरु से लेकर कइयों कॉर्पोरेट बाबाओं और स्वघोषित पूज्यों के बड़े बारी मठ, मंदिर हैं। करोड़ों की जमीन पर अरबों के तने यह आश्रम आम लोगों के लिए क्या करते होंगे कह पाना संभव नहीं है। हम लोग जब एक रात पहले रूम खोज रहे थे तो इन आश्रमों में भी खोजे, मगर यहां कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आया जो सेवा भाव को प्रकट करता हो।

बरुण सखाजी की पत्नी और बेटा ।
बरुण सखाजी की पत्नी और बेटा ।

चित्रकूट की अच्छाई, पंडों से परे है यह
चित्रकूट ऐसा जान पड़ता है कि बीते 200 सालों में ही रिकगनाइज हुआ है। यानी बाबा तुलसी की 500 साल पुरानी राम चरित मानस के बाद, 300 साल तक बेगौरी में ही रहा। शायद इसीलिए यहां पंडों की लुटेरी पीढिय़ां नहीं हैं। जबरदस्ती करते नौजवान नहीं हैं। हर मंदिर में कोई बी 50 साल से नीचे का पुजारी नहीं मिला, वजह शायद यही हो कि इनकी नई पीढिय़ां नौकरी करने लगी हों। यहां इतना फायदा न हो। इसे मध्यप्रदेश सरकार को रोजगार देने में विफल कहा जाए या सफल थोड़ा कहना मुश्किल है। यहां हर ऑटो वालों की उम्र 20 से 25 साल के बीच नजर आई। वे दो या तीन की संख्या में एक ऑटो चलाते हैं। अच्छे से बात करते हैं। पर्यटकों से बेस्ट डीलिंग करते हैं। थोड़े-थोड़े पैसों के लिए झगड़ते नहीं। हर जगह जाने तैयार रहते हैं। बुड्ढे ऑटो वालों की तरह खुर्राट, चालाक नहीं होते।

पीछे छूटती चित्रकूट की पहाडिय़ां जैसे हमसे कह रहीं थी फिर आना ।
अब हम सब भोजन के बाद सतना की तरफ बस में सवार थे। पीछे छूटती पहाडिय़ों को निहारते तो ऐसा लगता कि जैसे नौकरी करते-करते दिमाग में जो जंग लग गई है वह एक ही चित्रकूट ने साफ कर दी। दिमाग की ओवरहॉलिंग हो गई। यूं हल्का और उत्साहित महसूस होने लगा जैसे कोई वजन, बोझ था ही नहीं। इस आनंद के लिए सबको बधाई।                             साभार- sakhajee.blogspot.in


BARUN K SHAKHJEEबरुण के सखाजी, माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई। किताब-‘परलोक में सैटेलाइट’। दस साल से खबरों की दुनिया में हैं। फिलहाल छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में पत्रिका न्यूज के संपादक।