प्रणय यादव
उम्मीदें बहुत थीं। बातें बहुत थीं। दावे बहुत थे। लेकिन हुआ क्या? जो हुआ वही तो होता आया है। जिसका विरोध बीजेपी करती थी। जिसके लिए बीजेपी कांग्रेस को कोसती थी। मोदी ने भी वही किया। दो साल बाद भी नरेन्द्र मोदी कहते हैं। सबका साथ सबका विकास होगा। अच्छे दिन आएंगे। जो हुआ सबके भले के लिए हुआ। लेकिन कैसे भले के लिए हुआ ये नहीं बताते। पिछले इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड लेंगे। कामकाज का आंकलन करेंगे। काम के आधार पर फेल-पास का फैसला करेंगे। चूंकि मोदी प्रधानमंत्री हैं। उन्हें जनता ने चुना है उनका फैसला तो जनता ही करेगी लेकिन कम से कम इतनी उम्मीद तो थी कि मोदी ने जिन्हें मंत्री बनाया वो उनका हिसाब तो करेंगे। हर पन्द्रह दिन में खबर आती है कि मोदी मंत्रियों के कामकाज का हिसाब ले रहे हैं। फिर कुछ तस्वीरें भी आती हैं। लेकिन मोदी ने किसे फेल किया, किसे पास … इसका खुलासा कभी नहीं हुआ। इस बार उम्मीद थी कि जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं। मोदी उनको प्रमोट करेंगे। जो मंत्री मोदी के जनता से किए गए वादों को पूरा करने में अक्षम दिख रहे हैं, उनकी जगह दूसरों को मौका दिया जाएगा। मोदी के मंत्रिमंडल विस्तार से उम्मीदें काफीं थीं लेकिन अब लगता है कि सब बातें हैं बातों का क्या। हां, कैबिनेट एक्सपेंशन से कई बातें जरूर साफ हो गईं।
किसे मंत्री बनाया, क्यों बनाया, क्या राजनीति है, क्या मजबूरी है… इन सब पर बात करेंगें लेकिन पहले जो सबसे बड़ी बात हुई वो बता दें। जब सरकार बनी थी। नरेन्द्र मोदी बीजेपी के सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरे। जब नरेन्द्र मोदी अपनी कैबिनेट की लिस्ट तैयार कर रहे थे। तब उन्होंने तय किया कि वो यंग लीडरशिप को डेवलप करेंगे। बुजुर्गों को अब रिटायरमेंट लेना होगा। नतीजा क्या हुआ, वो लोग मार्गदर्शक मंडल के मेंबर हो गए जिन्होंने बीजेपी को बनाया, पाला-पोसा और नेशनल पार्टी बनाया। पार्टी को बनाते-बनाते वो कब बूढ़े हो गए, ये उन्हें खुद तब पता लगा जब नरेन्द्र मोदी ने उन्हें बताया कि वक्त बदल गया है- अब पुराने लोगों का क्या काम। जिनकी उम्र 75 साल से ऊपर है वो घर बैठे। पार्टी जरूरत पड़ने पर उनका मार्गदर्शन लेगी। मार्गदर्शन लेना तो दूर अब लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवन्त सिन्हा जैसे लोग अपना मार्ग तलाश रहे हैं। उन्हें भी समझ नहीं आ रहा कि उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर जाएं तो जाएं कहां। करें तो क्या करें। अपनी पीड़ा किससे कहें।
खैर मंत्रिमंडल विस्तार पर बात हो रही थी। तो नियम ये था, खुद मोदी ने बनाया था कि 75 साल से ज्यादा की उम्र के लोगों को मंत्री नहीं बनाएंगे। फिर मोदी ने कलराज मिश्रा की छुट्टी क्यों नहीं की। नजमा हेपतुल्ला को घर क्यों नहीं भेजा। इसके पीछे मोदी की मजबूरी है। कलराज मिश्रा रिकॉर्ड के मुताबिक चार दिन पहले 1 जुलाई को 75 साल के हो गए। लेकिन मंत्री पद बरकार है क्यों ? असल में कलराज मिश्रा उत्तर प्रदेश से हैं, ब्राह्मण हैं। उत्तर प्रदेश में इलेक्शन आने वाले हैं। अपने नियम के चक्कर में वोटों का नुकसान नहीं कर सकते। ब्राह्मणों को नाराज नहीं कर सकते। इसलिए कलराज अभी यंग हैं और कम से कम उत्तर प्रदेश के चुनावों तक रहेंगे।
दूसरा उदाहरण नजमा हेपतुल्ला। करीब तीस साल से राज्यसभा में हैं। अप्रैल में 76 साल की हो चुकी हैं। लेकिन उनका पद भी बरकरार है। मोदी ने उन्हें हटाने की हिम्मत भी नहीं दिखाई, क्यों? क्योंकि नजमा हेपतुल्ला मुस्लिम हैं। सबका साथ सबका विकास का मंत्र तो मोदी जी ने ही दिया है। अब ये फार्मूला उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के इलैक्शन के बाद होगा।
नरेन्द्र मोदी ने कहा कि ये मंत्रिमंडल में फेरबदल नहीं, विस्तार है। ये बात सही है। अब मोदी मंत्रिमंडल में 78 मेंबर हो गए। अब वो दौर याद कीजिए जब मनमोहन सिंह की सरकार में फेरबदल होता था। कैबिनेट एक्सपेंशन होता था। तब यही बीजेपी विरोध करती थी। मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में ज्यादा सदस्यों को लेकर हंगामा कर दिया। कहा गया कि इतने तो विभाग नहीं है, इतने मंत्री क्यों बनाए जा रहे हैं। जनता के पैसे की बर्बादी है। पहले लगा कि इस तरह की बातें होंगी ही नहीं। होंगी भी तो जबाव नहीं मिलेंगे। क्योंकि चुप रहना दूसरे विवादों को जन्म देता है। लेकिन ये सब पुरानी बातें हैं। मोदी ने कह दिया जरूरत कैसे नहीं। मंत्री ज्यादा कहां है। ज्यादा मंत्री होंगे तो विकास तेजी से होगा। सरकार की योजनाओं को लागू करने के लिए ज्यादा ताकत की जरूरत है। हमारे मंत्री पढ़े लिखे हैं। काबिल हैं। जब यही बात अरविन्द केजरीवाल अपने विधायकों और मंत्रियों के लिए कहते हैं तो बीजेपी को बुरी क्यों लगती है। अरविन्द केजरीवाल स्तरहीन भाषा में बात करते हैं। मर्यादा के खिलाफ जाकर राजनीतिक विरोधियों पर हमले करते हैं। लेकिन बात तो वही कहते हैं जो आज मोदी और उनके सहयोगी खुद को जस्टीफाई करने के लिए कह रहे हैं।
सवाल ये है कि मोदी बार बार दावा करते थे कि मंत्रियों के काम का आकलन होगा। जो बेहतर होगा उसे प्रमोशन मिलेगा। जिसका काम ठीक नहीं होगा उसकी कुर्सी जाएगी। लेकिन ऐसा दिखा नहीं। मंत्रिमंडल विस्तार पूरी तरह राजनीति और वोट बैंक को ध्यान में रखकर किया गया। उत्तर प्रदेश से खुद नरेन्द्र मोदी सांसद हैं। प्रधानमंत्री हैं। उनके अलावा बारह मंत्री हैं। ये बात सही है कि यूपी से बीजेपी ने सबसे ज्यादा और रिकॉर्ड सीटें जीतीं तो वहां से सबसे ज्यादा मंत्री बनाने में कोई बुराई नहीं हैं। लेकिन अब यूपी से तीन लोगों को और मंत्री बना दिया। एक रमाशंकर कठेरिया को हटाया। कहने को तो कठेरिया ने जो बयानबाजी की उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। लेकिन बयानबाजी तो साध्वी निरंजन ज्योति ने भी की थी। उनको क्यों नहीं हटाया? असली बात वोट का चक्कर है। क्योंकि जिनकों मंत्री बनाया वो इतने अनुभवी और काबिल भी नहीं है कि उनके बिना सरकार का काम नहीं चलता।
अपना दल की अनुप्रिया पटेल मंत्री बन गई हैं। पहली बार सांसद बनी हैं। अपनी पार्टी में भी उनकी स्वीकार्यता नहीं हैं। उनकी अपनी मां और बहन भी उनके खिलाफ हैं। अनुप्रिया पटेल को पार्टी से निकाल दिया गया है। लेकिन फिर भी 35 साल की अनुप्रिया पटेल को मंत्री बनाया गया। इसके पीछे की वजह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं हैं। बीजेपी की नजर पिछड़ों के वोट बैंक पर है। अपना दल का फायदा बीजेपी को लोकसभा इलेक्शन में मिला, अब बीजेपी विधासभा चुनाव में भी इस फॉर्मूले को जारी रखना चाहती है। अमित शाह अनुप्रिया की रैली में गए। उनके पिता सोनेलाल पटेल का जन्मदिन था। इस मौके पर अपना दल के नेताओं ने चिल्ला चिल्ला कर कहा कि इस रैली का बीजेपी से कोई लेना देना नहीं हैं। लेकिन बीजेपी ने करीब-करीब ये स्थापित कर दिया है कि अनुप्रिया पटेल ही अपना दल की नेता हैं। उनकी मां कृष्णा पटेल जो पार्टी की अध्य़क्ष हैं, उऩकी बहन जो पार्टी की उपाध्यक्ष हैं उनका कोई मतलब नहीं हैं। अनुप्रिया को मंत्री बनाने से उतना फायदा होगा, जितना बीजेपी समझ रही है… इसमें संदेह है।
बार बार विकास की बात करने वाले नरेन्द्र मोदी का अब दलित और आदिवासियों के प्रति प्रेम भी अचानक जाग गया है। जो उन्नीस नए मंत्री बनाए हैं उनमें सात दलित हैं। दो आदिवासी हैं अनुसूचित जनजाति के जसवंत सिंह भाभोर और फगन सिंह कुलस्ते। पांच अनुसूचित जाति के हैं। अजय टम्टा रामदास अठावले, अर्जुनराम मेघवाल, रमेश जिगाझिनागी और कृष्णा राज। इनमें फगन सिंह कुलस्ते और रमेश जिगाझिनागी अनुभवी हैं। एक छठवीं बार सांसद हैं और दूसरे पांचवीं बार। कुलस्ते तो वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। लेकिन मोदी को अब इनकी याद आई। अजय टम्टा और कृष्णा राज पहली बार सासंद बने हैं। उन्हें भी मंत्री बनाया गया है। इसकी बड़ी बजह ये है कि ये दोनों उन राज्यों से हैं जिनमें इलेक्शन होने हैं। टम्टा उत्तराखंड से हैं और कृष्णा राज उत्तर प्रदेश से। बीजेपी को दलित वोट चाहिए। इसके अलावा रामदास अठावले पहली बार मंत्री बने। ये अकेले ऐसे नेता हैं जिन्होंने शुरू से दलित राजनीति की। अंबेडकर के विचारों की लड़ाई लडी। लेकिन मायावती की तरह पहचान नहीं बना पाए। लेकिन इतना जरूर है कि महाराष्ट्र में वो समीकरण बनाने बिगाड़ने की ताकत रखते हैं। इस बार बीजेपी के साथ थे तो फायदा मिला। अब बीजेपी उनके चेहरे का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश में मायावती से मुकाबले के लिए करेगी। इसलिए रामदास अठावले की लॉटरी भी लग गई। अब तक वो शरद पवार, कांग्रेस, बीजेपी और शिवसेना, जिससे भी बात बने उसकी मदद से अपनी लोकसभा सीट या राज्यसभा सीट का जुगाड़ कर लेते थे। लेकिन इस बार राज्यसभा के साथ-साथ मंत्री पद भी मिल गया। अब बीजेपी को उम्मीद है कि अठावले उत्तर प्रदेश में मोदी के गुण गाएंगे।
एस एस अहलूवालिया भी इस बार मंत्री बन गए। अहलूवालिया पुराने नेता हैं। पहले कांग्रेस में थे। फिर वक्त और हवा का रूख देखकर अपना रास्ता अलग किया। उन्हें सही फैसले का फायदा भी मिला। अहलूवालिया की काबलियत पर शक नहीं किया जा सकता। अनुभवी हैं, कई भाषाओं के जानकार हैं, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों की अच्छी और गहरी समझ है। लेकिन ये मान लेना कि उन्हें काबलियत के कारण मंत्री पद मिला ये ठीक नहीं लगता। असल में मोदी बार बार सबका साथ सबका विकास की बात करते हैं लेकिन उनकी कैबिनेट में कोई सिख नहीं दिखता था। पंजाब में इलेक्शन हैं। सिर्फ प्रकाश सिंह बादल की बहू और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर से काम न चलता। पगड़ीधारी सिख होना और दिखना भी चाहिए। इसलिए एस एस अहलूवालिया को लाया गया। अब पंजाब में इसका फायदा उठाने की कोशिश होगी।
एम जे अकबर ने भी मंत्री पद की शपथ ले ली। इसके पीछे भी लिबरल दिखने की चाहत है। लेकिन ये बताना जरूरी है कि असल में मोदी को एक ऐसे शख्श की जरूरत थी जो हिन्दी और अंग्रेजी में सरकार की उपलब्धियों को, सरकार की बात को , सरकार के पक्ष को जनता के सामने रख सके। अब तक ये काम अरूण जेटली को करना पड़ता था। सरकार को एक अच्छे प्रवक्ता की जरूरत थी। वो एम जे अकबर पूरी करेंगे। चुनाव से पहले बीजेपी का दामन थाम कर दो साल में बीजेपी के प्रवक्ता के तौर पर बेहतर काम करके एम जे अकबर ने अपनी उपयोगिता साबित भी कर दी है। वैसे ये ध्यान रखना जरूरी है कि एम जे अकबर वरिष्ठ पत्रकार हैं, ज्ञानी हैं, राजनीति के अच्छे जानकार है। उऩकी सबसे बड़ी खूबी है जीतते हुए पक्ष को चुन सकने की क्षमता और हारते हुए पक्ष से जल्द से जल्द पिंड छुड़ा लेना। एम जे अकबर ने 1989 में राजनीति में कदम रखा। कांग्रेस का हाथ थामकर किशनगंज से लोकसभा में पहुंचे। 1991 में हार गए। कांग्रेस के प्रवक्ता भी रहे। इसके बाद तमाम तरह के प्रयोग करने के बाद 2014 में बीजेपी की हवा थी। एम जे अकबर बीजेपी में शामिल हुए। प्रगतिशील मुस्लिम होने का फायदा मिला। सबका साथ सबका विकास के नारे को मजबूती मिली। एक जमाने में जो कांग्रेस का प्रवक्ता था वो बीजेपी का स्पोक्सपर्सन हो गया। पहले कांग्रेस की तारीफों के पुल बांधे अब बीजेपी के जरिए राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रहे हैं। कांग्रेस मुक्त भारत के मोदी के सपने को आगे बढ़ा रहे हैं। मोदी ने सोच समझकर फैसला किया है। मुख्तार अब्बास नकवी को उम्मीद थी नजमा जाएंगी उन्हें प्रमोशन मिलेगा। उम्मीदें तो शाहनवाज हुसैन को भी रही होंगी। लेकिन एम जे अकबर ज्यादा चतुर निकले। उनमें नफासत है और अंग्रेजी अच्छी लिखते बोलते हैं। मुख्तार अब्बास नकवी और शहनावज हुसैन बोलते तो अच्छा हैं लेकिन अंग्रेजी नहीं आती। दुनिया भर में मोदी की बात पहुंचाने का काम एम जे अकबर ही कर सकते हैं। इसलिए मोदी ने एम जे अकबर को चुना।
लेकिन आज एक बात साफ हो गई कि मोदी के उन दावों में दम नहीं हैं। जिनमें कहा जाता है कि योग्यता ही पैमाना होगी। कामकाज के हिसाब से हैसियत तय होगी। ये सिर्फ बातें हैं वरना पहली बार चुनकर आए सांसदों को मंत्री बनाने के दो ही मतलब हैं। या तो बीजेपी के पास अनुभवी नेताओं का टोटा है। या फिर जातिगत समीकरण विकास की बातों पर भारी पड़ रहे हैं। अमित शाह उत्तर प्रदेश में घूम रहे हैं। अभी से प्रचार और रैलियां शुरू हो गई हैं। कई मौकों पर अमित शाह कह चुके हैं कि अगर उत्तर प्रदेश जीत गए तो 2019 में मोदी की वापसी पक्की है। दो साल में अंतर सिर्फ इतना आया है कि अब अमित शाह विकास की बातें नहीं करते। मोदी ने जो इंटरव्यू दिया वो भले ही फिक्स लगता हो लेकिन उसमें भी मोदी में वो कॉन्फीडेंस नहीं दिखा, जो दो साल पहले दिखता था। महंगाई के सवाल पर जबाव नहीं है। अर्थव्यवस्था पर वर्ल्डबैंक और कुछ संस्थाओं के तमगों के अलावा कुछ नहीं हैं। किसानों की फसल के मिनिमम सपोर्ट प्राइस के वादे को याद नहीं करना चाहते। रोजगार की बात भूल चुके हैं। मोदी जानते हैं कि पंजाब में लोग अकाली दल से नाराज हैं इसलिए लच्छेदार बातों से काम नहीं चलेगा। उत्तराखंड में सरकार बनाने की सारी कोशिशें फेल हो गईं। हरीश रावत को बीजेपी ने ही मजबूत कर दिया। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को गाली देने से नुकसान होगा। अखिलेश की छवि साथ सुथरी है। इस नौजवान मुख्यमंत्री ने काम भी किया है। लोगों में इसका असर है तो विकास के इश्यू पर भी अखिलेश यादव नरेन्द्र मोदी पर भारी ही पड़ेंगे। इसलिए ले देकर एक ही रास्ता बचा। जातिवादी राजनीति और वोटों के पोलराइजेशन की मदद ली जाए। ये मोदी के मंत्रिमंडल विस्तार से साफ दिख रहा है। इसके साथ- साथ ये बीजेपी और खासकर नरेन्द्र मोदी -अमित शाह की जोड़ी की निराशा को भी दिखा रहा है। ये बीजेपी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
प्रणय यादव। 20 साल से पत्रकारिता से जुड़े हैं। झांसी के मूल निवासी, दिल्ली में ठिकाना। कानपुर में शुरुआती पढ़ाई। उच्च शिक्षा के लिए संगम नगरी इलाहाबाद पहुंचे। कई टीवी चैनलों में पत्रकारिता की। दिग्गजों के बीच रहते हुए अपनी मौलिकता कायम रखने की कशमकश बरकरार है।
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