बिहार के चुनाव हो गए। नीतीश कुमार लगातार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे। लालू यादव की पार्टी दस साल के वनवास के बाद सत्ता में लौटेगी। लालू के दोनों बेटे भी राजनीति में जीत के साथ प्रवेश करेंगे। बिहार के चुनाव नतीजों के क्या मायने हैं ? नीतीश कुमार की इतनी बड़ी जीत महत्वपूर्ण हैं या फिर बीजेपी की इतनी करारी हार। असल में बिहार के चुनाव के नतीजे देश की राजनीति पर असर डालेंगे। अब तक बीजेपी का विजय रथ लगातार आगे बढ़ रहा था इससे बीजेपी के नेता दंभ से भर गए थे। महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर और हरियाणा में बीजेपी ने सरकार बनाई। इससे अमित शाह को ये लगने लगा कि वो इक्कसवीं सदी के चाणक्य हैं और नरेन्द्र मोदी इक्कसवीं सदी के चन्द्रगुप्त। प्रैस कॉन्फ्रैस में सवाल पूछने पर पत्रकारों को झिड़क देना ये तो अमित शाह का शगल हो गया। जो मनपसंद सवाल न पूछे, जो चापलूसी न करे वो बिका हुआ हो गया, विरोधियों का एजेंट हो गया।
मोदी ने जिस अहंकार के साथ बिहार में स्पेशल पैकेज का एलान किया। हजारों कैमरों के सामने , लाखों लोगों के सामने जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने पूछा, बताओ, कितना चाहिए, पचाह हजार करोड़, साठ हजार करोड़, सत्तर हजार करोड़, या एक लाख करोड़ चलो सवा लाख करोड़ देता हूं। ऐसा तो पहले कभी किसी प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं सुना था। नीतीश कुमार के कैंपेन ने यहीं से जोर पकड़ा। उन्होंने मोदी की अदा को मुद्दा बनाया, बिहार के स्पेशल पैकेज का ऑपरेशन किया। बता दिया कि ये रीपैकेजिंग हैं। इसमें नया कुछ नहीं है। इससे बीजेपी के नेता तिलमिलाए लेकिन बिहार के इलैक्शन में पहला टर्निंग प्वाइंट यहीं से आया क्योंकि मोदी जब अगली रैली में पहुंचे तो उन्होंने कहा कि ये पैसा मैं नहीं दे रहा, ये पैसा तो बिहार के लोगों का हक है। मैं तो सिर्फ बिहार के लोगों को उनका हक दे रहा हूं। मोदी के बदले रुख से लगा था कि बीजेपी के नेता, खासकर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ये समझ जाएंगे कि बिहार में वो सब नहीं चलेगा जो वो चलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
बीजेपी ये जानती थी कि लालू यादव और नीतीश कुमार की दोस्ती बिहार में बीजेपी की राह मुश्किल करेगी। लालू दबे कुचलों की बात करते हैं, जातिगत समीकरणों के मास्टर हैं। नीतीश कुमार की छवि पिछले दस सालों में विकास पुरूष की बनी है। हालांकि उन्होंने इसका मोदी की तरह प्रचार नहीं किया लेकिन बिहार की ये जमीनी हकीकत थी। बिहार में नीतीश के विरोधी भी ये कहते हैं कि नीतीश की सरकार में जबरदस्त काम हुए हैं, बिहार की शक्ल बदलने लगी है। इसी कारण से बीजेपी ने कभी नीतीश कुमार के ऊपर विकास को लेकर हमले नहीं किए। मुद्दा बनाया लालू और नीतीश की दोस्ती को। अमित शाह और नरेन्द्र मोदी से लेकर रविशंकर प्रसाद तक, सबने एक ही बात कही लालू यादव के कंधे पर बैठकर नीतीश कुमार विकास की बात कैसे करेंगे। हर पब्लिक मीटिंग में लालू के जमाने की याद दिलाकर जंगलराज का नारा दिया। लेकिन इससे बात नहीं बनी। नीतीश कुमार ने हर सवाल का जबाव शालीनता से दिया। बीजेपी के नेताओं के बयानों को ही मुद्दा बनाया।
ये कोई छोटी बात नहीं थी कि लालू और नीतीश पूरी केन्द्र सरकार का मुकाबला कर रहे थे। अमित शाह तो परमानेंट बिहार में डेरा डाले थे। नरेन्द्र मोदी ने करीब तीन दर्जन पब्लिक मीटिंग की इसके अलावा केन्द्र सरकार में बिहार से आने वाले मंत्री राजाव प्रताप रूढ़ी, रामविलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा, राधामोहन सिंह ,गिरिराज सिंह और रविशंकर प्रसाद परमारनेंट बिहार में ही रहे। इनके अलावा नितिन गड़करी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, वैंकेया नायडू, मुख्तार अब्बास नकवी जैसे तमाम मंत्रियों ने हैलीकॉप्टर से बिहार का चक्कर लगाया। लेकिन बात नहीं बनी। ये जीत इसलिए नरेन्द्र मोदी की हार है क्योंकि मोदी ने अपनी सारी ताकत बिहार में लगाई। जितना कैंपेन कर सकते थे जितना खर्च कर सकते थे जितने शिगूफे छोड़ सकते थे सब किया लेकिन बिहार की जनता ने बता दिया कि बिहार कुछ अलग है।
नरेन्द्र मोदी ने अपनी हर पब्लिक मीटिंग में नीतीश को अंहकारी कहा लेकिन जबाव में नीतीश ने कभी ऐसा नहीं कहा।नरेन्द्र मोदी अपने बड़बोलेपन के चक्कर में फंस गए। उन्होंने कैंपेन के दौरान दूसरी बड़ी गलती की। नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल उठा कर। नीतीश कुमार ने मोदी की इस गलती को अपने लिए अवसर में तब्दील कर दिया। उन्होंने इसे बिहारियों के अपमान से जोड़ दिया। इसे एक मुहिम से जोड़ दिया। बीजेपी के नेता इस इश्यू पर बोलने से बचने लगे। नीतीश ने इसके बाद नारा दिया बिहारी बनाम बाहरी। बीजेपी को इस पर डिफेन्सिव होना पड़ा। बीजेपी ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम डिक्लेयर नहीं किया था। लालू ने इसे बिना दूल्हे की बारात बताया लेकिन जब अमित शाह से इसके बारे में सवाल पूछे गए तो खुद को आधुनिक चाणक्य समझने वाले इस नेता पत्रकारों से कहा कि बीजेपी अपनी रणनीति बना लेगी अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा ये तय कर लेगी लेकिन हर बात आपके साथ शेयर की जाए ये जरूरी नहीं है। नीतीश ने अपनी हर सभी में सवाल पूछा कि बिहार में कौन राज करेगा बाहरी या बिहारी? रविशंकर प्रसाद ने नीतीश कुमार के खिलाफ खूब बयानबाजी की लेकिन जबाव में नीतीश कुमार ने एक ही सवाल पूछा कि कॉल ड्रॉप की प्रॉब्लम कब ठीक होगी। मतलब साफ था कि केन्द्र सरकार काम करे। मंत्री कामकाज छोड़कर पटना में बैठेंगे तो देश कैसे चलेगा लगता है बिहार की जनता इसको समझ गई इसलिए दिल्ली के मंत्रियों को दिल्ली भेज दिया काम करने को।
पहले ही फेज से पहले ये साबित हो गया था कि बीजेपी पिछड़ रही है। इस बीच मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर जो बयान दिया उससे तो बीजेपी नेताओं के दिल बैठ गए। लालू यादव ने मोहन भागवत का मतलब ये निकाला कि आरएसएस आरक्षण खत्म करने के पक्ष में है। मोदी के जरिए आरएसएस आरक्षण को खत्म करवाएगी। इसे लालू ने इश्यू बनाया। बीजेपी समझ गई कि ये इश्यू ले डूबेगा। वही हुआ। बीजेपी ने इस इश्यू पर डैमेज कन्ट्रोल की बहुत कोशिश की। मोदी ने कहा कि आरक्षण जारी रहेगा। अगर किसी ने आरक्षण खत्म करने की कोशिश की तो वो आरक्षण के लिए जान की बाजी लगा देंगे। लेकिन लगता है कि बिहार के लोगों भी मोदी की बातें सुन सुनकर उकता गए हैं। लालू ने जनता के मन में ये बात बैठा दी कि आरएसएस की बात मोदी टाल नहीं सकते और आरएसएस आरक्षण के खिलाफ है। इससे बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिली। बीजेपी मोहन भागवत को इस, बात के लिए मना नहीं पाई कि वो अपने बयान पर सार्वजनिक तौर पर स्पष्टीकरण दें। इसका मुकसान बीजेपी को हुआ।
बीजेपी एक के बाद एक कर गलती करती गई। आरक्षण के सवाल पर डिफेंसिव होने के बाद बीजेपी ने बिहार के चुनाव को साप्रदायिक रंग देने की कोशिश की। जिस तरह के नतीजे आए उससे लगा कि बीजेपी की ये कोशिश भी बिहार के लोगों को पसंद नहीं आई। दादरी की घटना पर लालू यादव के रिएक्शन को बीजेपी ने गौमांस से जोड़ा। यदुवंशियों से जोड़ा। अमित शाह ने अपनी सभाओं में कहा कि लालू की सरकार बनी तो बिहार के हर गांव में गौमांस की दुकानें खुल जाएंगी। मोदी ने नीतीश पर दलित पिछड़ों के आरक्षण को कम करके मुसलमानों को आरक्षण देने की साजिश करने का इल्जाम लगाया। अमित शाह ने कहा कि अगर लालू नीतीश जीते तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। ये कोशिश बिहार के चुनाव को साप्रदायिक आधार पर पोलराइज करने की थी। बिहार में जातिवाद तो चलता है लेकिन सांप्रदायिक आधार पर वोटिंग नहीं होती। बीजेपी की ये कोशिश उसे ले डूबी। जिस दिन अमित शाह ने पाकिस्तान में पटाखे फूटने की बात कही। जिस दिन मोदी ने तंत्र-मंत्र और लोकतन्त्र की बात की। उसी दिन ये समझ में आ गया था कि बीजेपी हारेगी। हार के डर से ही ये नेता इस तरह की ओछी और घटिया हरकतों पर उतरे। हालांकि अमित शाह और मोदी के लिए इस तरह की बातें कोई नई नहीं है। इसलिए इन्हें उस वक्त ये बात सामान्य लगी होगी लेकिन आज शायद अपनी गलती का एहसास कर रहे होंगे।
बिहार के चुनाव नतीजों के बारे में अनुमान लगाने में सारे एक्जिट पोल फेल हुए। सारे पॉलिटिकल पंडितों के अनुमान धरे रह गए। नीतीश कुमार की भारी जीत और बीजेपी की भारी हार की ऐसी कल्पना तो महागठबंधन और बीजेपी के नेताओं ने भी नहीं की थी। लेकिन बिहार के चुनाव नतीजों का असर देश की राजनीति पर भी पड़ेगा। अब बीजेपी का रथ रूक गया है। इसलिए नए सिरे से पॉलिटिकल रिएलाइंनमेंट हो सकता है। इसके बाद बीजेपी की नजर उत्तर प्रदेश पर थी। लेकिन बिहार के बाद अब अमित शाह को फिर सोचना पड़ेगा कि यूपी में क्या करना है। लोकसभा चुनाव में 80 में से 73 सीटें जीतकर बीजेपी ने झंडे गाड़ दिए थे। बिहार में भी 40 में 31 सीटें जीती थीं। इसलिए अब ये आशंका गलत नहीं है कि बिहार की तरह यूपी में भी लुटिया डूब सकती है। हालांकि मुलायम सिंह यादव को भी अब अपनी रणनीति पर दोबारा सोचना पड़ेगा।
बिहार चुनाव के नतीजों को देखकर एक बात तो साफ समझ में आई कि देश की जनता सब कुछ बर्दाश्त कर सकती है लेकिन अहंकार को नहीं। पुरानी बात है कि निर्भयता निरंकुशता को जन्म देती है। बीजेपी के नेता लोकसभा चुनाव में बदलाव के लिए मिली जबरदस्त जीत के बाद निर्भय हो गए थे। लोकसभा के बाद तीन राज्यों में मिली जीत ने उन्हें भयमुक्त कर दिया। इससे निरंकुशता बढ़ी। निरंकुशता ने अंहकारी बनाया और इसका सबूत खुद प्रधानमंत्री ने दिया। जो शख्स खुद को जनता का सेवक बताता हो, खुद को मजदूर नंबर वन कहता हो वो जनता को खैरात बांटने लगा खुद को शंहशाह समझने लगा ये जनता ने सुन तो लिया लेकिन वोटिंग के दिन बता दिया कि जनता जिसे सर माथे पर बैठाती है उसे गिराना भी जानती है। बिहार के चुनाव नतीजे देश के लिए फायदेमंद भी होंगे क्योंकि पिछले सत्रह महीनों में जमीन पर काम नहीं हुआ कागजों में योजनाएं बनीं, बड़े बड़े दावे हुए जमकर प्रचार हुआ और विदेशों में सरकारी शोज हुए। इसका नतीजा ये हुआ कि दाल अस्सी से दो चालीस रूपए प्रति किलो पहुंच गई। डॉलर के मुकाबले रूपए की कीमत साठ से सडसठ रूपए तक पहुंच गई। प्याज अस्सी रूपए प्रति किलो तक बिका सब्जियों की कीमतें भी कहां से कहां पहुंच गईं ये सबको पता है। ये उस सरकार का हाल है जो मंहगाई कम करने का वादा करके पावर में आई थी। बिहार से सबक लेकर अब मोदी देश में रहेंगे। गाल बजाने की बजाए कुछ करके दिखाएंगे। स्वच्छता अभियान देशभर में चलाने से पहले अपने अहंकार की सफाई करेंगे। विषवमन करने वाले अपनी पार्टी के नेताओं को सबसे पहले सबका साथ सबका विकास का पाठ पढ़ाएंगे। और सबसे जरूरी बात, अमित शाह को समझाएंगे कि अगर कोई मनपसंद सवाल न पूछे तो उसका जबाव भले न दें लेकिन उसे बिका हुआ न कहें। अगर मोदी ने इतना कर लिया तो यूपी में कुछ उम्मीद बंधेगी वरना जो होगा उसके लिए तो मोदी ही जिम्मेदार होंगे क्योंकि जिस तरह लोकसभा में जीत के साथ साथ महाराष्ट्र हरियाणा और जम्मू कश्मीर में बीजेपी की जीत के हकदार मोदी थे तो बिहार की हार के हकदार सिर्फ शत्रुघ्न सिन्हा और आर के सिंह नहीं हो सकते।
प्रणय यादव, 20 साल से पत्रकारिता से जुड़े हैं।
बेहद सटीक, गंभीर और समग्र विश्लेषण। प्रणयजी ने चाणक्य की सारी कूटनीति का विश्लेषण कर डाला। साधुवाद।