माँ भी पापा के पास चली गईं – दो

माँ भी पापा के पास चली गईं – दो

मई के मदर्स डे और जून के फादर्स डे के बीच काफ़ी कुछ बदल गया है. माँ भी पापा के पास चली गई है. जब तक माँ थी तो मदर्स डे भी मन जाता और फादर्स डे पर भी ऐसा सूनापन नहीं महसूस होता. मेरी माँ ‘हाफ़ फादर’ थीं और हमारे पापा ‘फ़ुल मदर’. माँ वाला कोमल दिल था पापा का. जब भी हम परदेसी भाई बहन पूर्णिया से जाते तो माँ से ज़्यादा आंसू पापा की आँखों में हुआ करते थे. खैर! पापा जब गए, तो पितृत्व के साथ मातृत्व वाला थोड़ा सा हिस्सा भी ले गए. अब जब हमारे पापा ने अपनी मालन को भी बुला लिया. तो हमारे पास बचा क्या- एक बड़ा सा ज़ीरो.

प्यारे पापा, इस फादर्स डे पर हम हमारी माँ की बात ही करेंगे. और जब माँ का ज़िक्र आएगा तो आप फिर-फिर याद आएँगे. माँ की ज़िंदगी का रेफ़्रेंस ईयर था -1960. माँ से हम जब भी कुछ पूछते वो कहतीं, 60 की साल में शादी हुई थी, तब पापा 17 साल के थे और मैं 13 साल की. लाभा महादेवपुर में पली बढ़ी माँ. पुरैनी में पले बढ़े पापा. माली और मालन का मिलन जिस दौर में हुआ था, तब बैलगाड़ी पर बारात आती. घोड़े और हाथी पर दूल्हे आते. जिसकी बारात में हाथी आ जाता वो बरसों तक उसका बखान करता. माँ भी अपनी शादी के क़िस्से बड़े चाव से सुनाती. पापा की क़द-काठी, गोरे-चिट्टे चेहरे और उनके तेवरों की मुरीद थी माँ.

माँ शादी कर पुरैनी वाले घर में ही आई थी. दादा और नाना दोनों मस्तमौला और सरल हृदय. माँ नाना की सबसे बड़ी बेटी थी. बहुत नाजों से पली थीं. 13 साल की उम्र ही क्या होती है, तभी गृहस्थी का भार माँ पर आ गया. पुरैनी में माटी का घर, लकड़ी वाला चौका-चूल्हा. कच्ची उम्र की बड़ी बहू का दादा-दादी और घरवाले बहुत ख़्याल रखते, लाड़ से रखते लेकिन फिर भी चुनौतियाँ कम नहीं थीं. हम भाई बहनों में कुछ का जन्म वहीं पुरैनी वाले घर में ही हुआ था. माँ कहतीं, जब भी कोई परेशानी होती, पापा बराबर के साझीदार बन जाते. तब का दौर ऐसा था कि खुल कर दुल्हन की मदद करने का साहस बहुतों का नहीं होता, लेकिन पापा को जब भी मौक़ा मिलता, माँ की चोरी-चुपके मदद जरूर करते.

पापा से माँ के उलाहनों की लिस्ट भी इसी पुरैनी वाले घर से ही बननी शुरू हो गई थी. कुछ शिकवे गहने-जेवर को लेकर होते. कब किस मौक़े पर पापा ने माँ से कौन सी चीज ‘दान’ या ‘गिफ़्ट’ करवा दी, तब हमें भी ज़ुबानी याद हो आया था. कुछ शिकवे मां का कहा नहीं मानने को लेकर होते. कभी कुछ और कभी कुछ. माँ को जब कभी बहुत ग़ुस्सा आता तो शिकायतों की पोटली खुल जाती. हम सब भी सुनते. पापा के पास कोई चारा नहीं होता. पापा बड़े आराम से मुस्काते रहते और इन उलाहनों का आनंद लेते. वो भी जानते थे कि माँ ने पुरैनी से पूर्णिया तक, ज़िंदगी के साझा सफ़र में जितना कुछ सहा, उतना तो कभी नहीं कहा.

माँ की सहनशीलता ग़ज़ब की थी. रिश्तों को सँभालने और सहेजने की सलाहियत भी कमाल की थी. मां और पापा के साथ मेरी पक्की स्मृतियाँ पूर्णिया से ही बननी शुरू हुई थीं. मेरा जन्म फारबिसगंज में हुआ था. माँ कहतीं, तब पापा प्राइवेट नौकरी किया करते. भैया संजय और दीदी के साथ मैं, जब पापा अपने साथ माँ को लेकर फारबिसगंज आए तो इतना ही छोटा सा परिवार था. माँ कहती बिस्तर के नीचे नोट तब बिछे रहा करते थे. कहने का मतलब जो भी पापा कमाते उसमें माँ बेहद खुश थीं और कोई कमी उन्हें महसूस नहीं होती.

फिर छोटा भाई राजू आया. तब एक दिन पुरैनी में कोई साधुनुमा व्यक्ति दरवाज़े पर आया. उसने माँ से मैथिली में कहा था- अहां के कभी पैसा जमा नै हेते लेकिन कोई काज रूकबो नै करते. अभी चंद महीनों पहले माँ जब बेंगलुरू से विदा हो रहीं थी, तो बिट्टू के साथ बातचीत में इस क़िस्से का ज़िक्र किया. माँ ने इस बातचीत में बताया – जब बच्चे माँ-बाप के लिए कुछ करते हैं तो बहुत ख़ुशी होती है, लेकिन जब माँ-बाप भी बच्चों के लिए कुछ करते हैं तो उन्हें भी परम आनंद आता है.

आख़िरी दिनों में माँ ने पापा की भूमिका भी अख़्तियार कर ली थी. उन्हें पापा की बहुत कमी महसूस होती लेकिन वो हमें इस कमी का अहसास नहीं होने देना चाहतीं. अपनी पोगली से माँ हर किसी की मुट्ठी में कुछ दबा देने को बेताब रहतीं. छोटे-छोटे पर्स और कपड़ों की तह में छिपे ख़ज़ाने से सौ और पाँच सौ के नोट निकाल कर वो सारी रस्में निभाने की कोशिश करतीं, जो पापा के समय से इस परिवार की रवायत रही है. मां जब चंद दिनों के लिए दिल्ली आई तो अनमोल और रिद्धिमा की ‘पार्टी’ का सिलसिला चल पड़ा था. वो इन दोनों की मुरादें पूरी कर बेहद ख़ुश हो जातीं. दीदी के साथ बेंगलुरू में भी वो कोशिश करतीं कि वो बच्चों पर कुछ खर्च करें. दिल्ली से पूर्णिया की आख़िरी यात्रा में भी माँ कुछ प्यार भरी सौग़ातें बहुओं और बच्चों के लिए समेट लाईं थीं. तन्मय-मिन्मय और पीहू की मुट्ठी भी दादी को अब मिस कर रही है. पापा और माँ के साथ तो मेरा ‘कल्प-वृक्ष’ ही चला गया.

उस साधू ने सच ही कहा था माँ का कोई काम कभी नहीं रुका. माँ की पोगली और पोटली में अकूत ख़ज़ाना भरा रहा. यही फ़लसफ़ा मेरे पापा का भी था. कोई लाख शिकायतें करता कि पापा आप ने कुछ अलग से जोड़ा क्यों नहीं, पापा उसे हवा में उड़ा देते- ‘क्या ज़रूरत है, मेरा कोई काम कभी रूका है क्या ?’ जैसे मेरे पापा, वैसी ही मेरी माँ. दोनों का ख़ज़ाना हमेशा भरा रहा, दोनों हमेशा प्यार लुटाते रहे, दोनों हमेशा ख़ुशियाँ बिखरते रहे, दोनों हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहे, दोनों रिश्तों को निभाते गए, प्यार का जहां बसाते रहे.

हैप्पी फादर्स डे माँ (‘हाफ़ फादर’)! हैप्पी फादर्स डे पापा (फ़ुल मदर)!

– पशुपति शर्मा, 15 जून 2025

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