शब्दांजलि

शब्दांजलि

पहले दादा और अब नाना, दोनों ‘गेम से आउट’ हो गए. ये शब्दअनमोल के थे, जो ‘ज़िंदगी के गेम’ को सहज-शब्दों में बयां करगया था.10 दिसंबर की देर शाम सर्बानी की आँखें आंसुओं से सराबोरथीं. वो एक कमरे में रोती-बिलखती अपने पिता के पास न होनेकी अपनी विवशता से बेचैन थी. मैं और अनमोल दूसरे कमरेमें बैठे थे. मैं कुछ हद तक ख़ामोश और अनमोल एक दोवाक्यों में अपनी बातें कहता जा रहा था. उसने रोती-फफकतीमाँ और दीदी को ‘वीक’ करार दिया था, मेरी खामोशी को भीइसी कैटेगरी के आस-पास रखा था. ख़ुद को ‘स्ट्रॉन्ग’ बता करअनमोल इस गमगीन माहौल को सामान्य करने की नादान सीकोशिश कर रहा था.ज़िंदगी के गेम से आउट ये खिलाड़ी हैं श्याम सुंदर शर्मा.सर्बानी के पिता. विवाह के उपरांत मैं उनके लिए पुत्रवत हीरहा. पुत्र और पुत्रवत होने में एक फ़ासला हुआ करता है. वोफ़ासला शायद यहाँ भी रहा ही होगा.

पिछले 17 सालों में हमनेइसे काफ़ी हद तक पाटने की कोशिश ज़रूर की. सर्बानी उन्हें‘भाई’ कहती और मैं हमेशा पापा ही कहा करता. आप से मेरी पहली मुलाक़ात साल 2006 में लक्ष्मी नगर मेंहुई थी. तब वो सर्बानी यानी आंटू के लिए ‘लड़के’ की तलाशकर रहे थे. मेरे पिता से कुछ वक़्त पहले ही उनकी एकमुलाक़ात हो चुकी थी. दिल्ली में ये उनका औचक निरीक्षण था.‘बैचलर’ लाइफ़ हमेशा अस्त-व्यस्त ही रही. उस दिन भी कुछऐसा ही आलम रहा होगा. कुछ वक़्त उन्होंने साथ गुज़ारा, कुछबातें हुईं, मैं गली में टहलता हुआ उन्हें छोड़ने आया. उन्होंनेपता नहीं क्या देखा, पसंदगी की मुहर लगा दी. हालाँकि उनकीबिटिया ने अपनी रज़ामंदी ज़ाहिर करने के लिए ‘देखा-देखी’की शर्त लगा दी. बेटी और पिता के बीच इस मसले पर काफ़ीखींच-तान भी हुई, लेकिन आख़िरकार रिश्ता पक्का हो गया.मेरी भी ‘पापा’ की ज़िंदगी वाले गेम में एंट्री हो गई.

रायगंज के मोहनबाटी बाज़ार में तीन कमरों का घर. अंदर बड़ासा आँगन. बाहर बरामदा. सुबह सवेरे 4 बजते-बजते सब्ज़ीमंडी का कोलाहल और उन सबके बीच एक कड़कती हुईआवाज़. घर के सबसे दबंग नायक की आवाज़. सबकी जुबांपर बस भाई-भाई की रट हुआ करती. मोहनबाटी का ‘भाई’,मुंबई के ‘भाई’ पर भारी था. घर के लोग जितना भाई से डरते,उससे कहीं ज़्यादा लड़ने-भिड़ने की गुंजाइश भी ढूँढ निकालते.बेहद प्यारी सी खट-पट चलती रहती. भाई डाँटता-फटकारतारहता. गुड्डू, मोंटी और भानू… तीनों बेटों के नाम भाई की जुबांपर रहते. कभी एक नाम पुकारते तो कभी दूसरा. सबकी एक-एक हरकत पर निगाह रखते. घर का पूरा कंट्रोल सिस्टम अपने पास रखने की चाहत औरजिजीविषा से सराबोर शख़्सियत. आप बेहद कठोर दिखने कीकोशिश करते लेकिन अंदर की नरमाहट मैंने रायगंज के चंद‘दौरों’ में ही महसूस कर ली थी. अपनी बेटियों के आगे उनकीज़्यादा नहीं चलती. जहां एक तरफ़ बेटे उनसे कतराते, बेटियाँयानी आंटू और पायल भिड़ने का दमख़म लिए कई मौक़ों परहावी हो जातीं. बो दी के साथ भी उनकी नोक-झोंक होतीरहती. कई बार तो कई-कई दिनों तक ‘गुमा-गुमी’ की नौबत आजाती. बातचीत नहीं होती और फिर एक वक़्त ऐसा आता दोनोंरो-रोकर एक दूसरे से ‘नालिश’ करते. मन का ग़ुबार आंसुओंके जरिए बह निकलता. अश्रुधारा झील सी शीतलता लिएरहती. ऐसे पलों का गवाह बनने वाले नए खिलाड़ी कई बार धोखा खासकते हैं, चकरा सकते हैं. कुछ पता ही नहीं चलता कि कौनसी गेंद कहां टप्पा खा रही है और किस ओर जा रही है. ऐसेवक़्त में आप चुपचाप बल्ला हाथ में लिए डिफेंसिव हो जाएँ तोही अच्छा. ये गेम समझना अच्छे-अच्छे के बूते की बात नहीं.इस कड़ी में एक और खिलाड़ी है जो पापा के गेम में काफ़ीमायने रखता है, इन्हें मुन्ना पीसी कहते हैं. कटिहार औररायगंज के बीच की ‘लाइफ़ लाइन’ है पीसी. इस घर की हरछोटी बड़ी ख़बर पीसी के पास हुआ करती है. भाई-बहन केलड़ने- झगड़ने और प्यार करने के जितने भी शेड्स की आपकल्पना कर सकते हैं, वो सब यहाँ भी मुझे नज़र आए. गोपालफूफाजी, अमित, अंकित भी भाई के फ़ेवरेट खिलाड़ियों मेंशुमार हैं. ज़िंदगी के गेम में कई किरदारों की एंट्री बाद में हुई. इनमेंपायल के जोड़ीदार विनय हैं, भानू की जोड़ीदार अमृता हैं. हरकिरदार की अपनी कहानी है. दिशा के दादा और रिद्धिमा-अनमोल-गर्विता के नाना की कहानी फिर कभी. ज़िंदगी का गेमइतना छोटा नहीं कि अनमोल की तरह दो शब्दों में बयां करजाऊँ और सच तो ये भी है कि अनमोल जैसी निर्मल समझअब शेष नहीं रह गई है. ( पशुपति शर्मा, 16 दिसंबर 2024)

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