पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार
3 मई, साल 2022 की अक्षय तृतीया. साल 2021 की यही वो तारीख़ थी, जब मेरे पिता बस स्मृतियों में रह गए. पिता की अक्षय स्मृतियों के ख़ज़ाने से कुछ बातें.
पिता ख़ुद ही पिछले कुछ दिनों से हमारे बीच आकर घूम-टहल रहे हैं. हिन्दी पंचांग के मुताबिक़ पिता का वार्षिक श्राद्ध 14 अप्रैल को पूर्णिया में हुआ. तब से कुछ ज़्यादा ही तीव्रता से पिता दिलो-दिमाग में आ-जा रहे हैं. साल 2021 का वो वक़्त काफ़ी भयावह था. कई आत्मीय और प्रिय तब पूर्णिया नहीं आ पाए थे, उनमें से कुछ ने इस बार वार्षिक श्राद्ध में हाज़िरी लगाई. पिता को ज़रूर अच्छा लगा होगा. ख़ास कर बड़ी बिटिया, बड़ी बहू, बड़ी भांजी और उसके साथ की बेल-लतर भी इस बार पूर्णिया के आँगन में नज़र आई.
स्मृतियों को ख़ज़ाना अक्षय है, लेकिन इस ख़ज़ाने को भी हम कई बार इतनी किफ़ायत से बरतते हैं कि स्मृतियों को भी कोफ़्त होने लगती है. ऐसी ही कोफ़्त मैंने दीदी की शिकायतों में महसूस की. पहला मौक़ा था, जब वो पिता के बग़ैर पिता की दहलीज़ पर थीं. बेटा-बटा कह कर पुकारने वाली आवाज़ नदारद थी. नाते-रिश्तेदारों और श्राद्ध के कार्यक्रम की भाग-दौड़ के बीच हम पापा के वो क़िस्से भी ज़ुबान पर नहीं ला पा रहे थे, जो ऐसे मौक़ों पर वो तलाश रहीं थीं. पिता को याद करतीं, ग़ुस्सा होतीं और उलाहने देती दीदी को देख पापा को थोड़ी ख़ुशी ही मिली होगी. पापा सरल थे, सहज थे और उन्हें इस तरह के शिकवे-शिकायतों में रस भी बहुत आता था. ज़िंदगी में अपनों से थोड़े से झगड़े न हों, शिकायतें न हों, ग़ुस्सा न हो, मनुहार न हो तो फिर मज़ा ही क्या?
बहरहाल, पापा आज याद आ रहे हैं, आते रहते हैं. 3 मई, सिलीगुड़ी की वो सुबह मुझसे मेरा ‘अक्षय पात्र’ खींच ले गई थी. पिता जब तक रहे, मैं इस अक्षय पात्र से हमेशा कुछ लेता ही रहा. अक्षय तृतीया पर जिस धन-संपदा की आकांक्षा हम रखते हैं, पिता वैसी आकांक्षा मेरे लिए भी रखते, हम सभी के लिए रखते. इस अक्षय पात्र ने पिता-पुत्र, भाई-भतीजा, नाते-रिश्तेदार सभी के लिए कुछ न कुछ संचय कर रखा था. संचय ऐसा कि जब आख़िरी वक़्त में अस्पताल जाने को हुए तो अपनी अटैची माँगने लगे. हमें आज भी पता नहीं कि ऐसा उस बिन चाभी वाली अटैची में क्या रखा था, जिसके बूते वो बड़े-बड़े धन्ना सेठों को जेब में लिए घूमते. दुनियावी मायनों में जिसे धन-संचय करना कहते हैं, पिता कभी उसके मोह-जाल में नहीं फँसे. साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, वाला भाव ही पिता में प्रबल रहा. ये अक्षय प्रेम भाव ही उनकी धन-संपदा, हीरे-जवाहरात थे.
मेरे पिता के पास और क्या-क्या था जो अक्षय है- उनका यश, उनकी ईमानदारी, उनकी सच्चाई, उनका मेहनतकश व्यवहार, उनकी आत्मनिर्भरता, उनका आत्मबल, उनका निर्मोही व्यक्तित्व, लोगों की सेवा, अपने गाँव से प्यार, अपनी बहन से प्यार, अपने पिता यानी मेरे दादा पर अगाध श्रद्धा, बेटे-बेटियों पर भरोसा… और भी बहुत कुछ. अब भी जब पूर्णिया में होता हूँ तो पिता के जानने वाले मिलते हैं तो उनको बड़े सम्मान से याद करते हैं, अच्छा लगता है. संयोग से इस बार पिता की अक्षय स्मृतियों के धरोहर स्थल – पूर्णिया, बिहारीगंज, पुरैनी, किशनगंज, बोरनेश्वर, रायगंज, कटिहार सब जगह की यात्राएँ हो गईं. इन यात्राओं में पापा के प्रिय व्यक्तियों से कुछ पलों का मिलना हुआ. अच्छा लगा.
पिता के होने और न होने के बीच एक वर्ष के अंतराल में काफ़ी कुछ नया भी होता गया. दीदी ने बेंगलोर में एक घर ले लिया, गृहप्रवेश हो गया. राजू ने अधूरा बना घर पूरा कर लिया, पूर्णिया में गृहप्रवेश हो गया. नातिन शालू को जुड़वां गिफ्ट मिल गया. मेरी माँ आठ महीने नाती-नातिन के साथ बेंगलुरू की सैर कर आईं. मैं एक चैनल लॉन्च कर बदलाव की नई कोशिश में जुट गया. चंदन का कारोबार थोड़ा संवरने लगा. भोमल-सोमल पहले से थोड़े ज़्यादा समझदार हो गए. सोमल के बेटे का अन्नप्राशन हो गया. ये सब दिखने में छोटी बातें हैं लेकिन मेरे पिता की अक्षय आकांक्षाओं में से कुछ का सच होना भी सुखद तो है. हमारे लिए भी, हमारे पिता के लिए भी.
हे परमात्मा मेरे परम-पिता का अक्षय आशीर्वाद हमेशा बना रहे. वो अक्षय थे, अक्षय हैं और अक्षय ही रहेंगे.
- पशुपति शर्मा, 3 मई 2022